Friday, July 22, 2011

तुम्हारी आंखें बरसात की एक रात जैसी हैं जिनमें डूब रहे हैं जहाज़

निज़ार क़ब्बानी की एक और लम्बी प्रेमकविता -

कविताएं

हमारे दरम्यान
बीस सालों की उम्र
मेरे और तुम्हारे होंठों के दरम्यान
जब वे मिलते हैं और ठहरे रहते हैं
ढहढहा कर गिरते हैं साल
चकनाचूर हो जाता है एक समूचे जीवन का कांच.

जिस दिन मैं तुम्हें मिला मैंने फाड़ दिए थे
अपने सारे नक्शे
अपनी सारी भविष्यवाणियां
एक अरबी घोड़े की तरह मैंने तुम्हारी बरसात को
सूंघ लिया था
इसके पहले कि वह मुझे गीला करती
मैंने सुन ली थी तुम्हारी आवाज़ की धड़कन
तुम्हारे बोलने से पहले
मैंने खोल दिए तुम्हारे केश अपने हाथों से
इसके पहले तुम उन्हें गूंथती चोटियों में

मैं कुछ नहीं कर सकता
तुम कुछ न्हीं कर सकतीं
घाव क्या कर सकता है
चाकू के साथ जो उस के रास्ते की तरफ़ बढ़ रहा हो?

तुम्हारी आंखें बरसात की एक रात जैसी हैं
जिनमें डूब रहे हैं जहाज़
और मेरा लिखा सारा भुला दिया जाता है
आईनों के सामने नहीं है कोई भी स्मृति.

या ख़ुदा ये कैसे है कि हम समर्पण कर देते हैं
प्यार के आगे उसे थमा देते हैं अपने शहर की चाभियां
मोमबत्तियां और अगरबत्तियां ले जाते हुए उस तक
गिर पड़ते हुए उस के कदमों पर
माफ़ी मांगते हुए
हम क्यों उसे खोजते हैं और सहन करते हैं
सब कुछ जो वह हमारे साथ करता है
सब कुछ जो वह हमारे साथ करता है?

बारिश में
जिस स्त्री की आवाज़
घोल देती है चांदी और शराब को
तुम्हारे घुटनों के आईनों से
दिन शुरू करता है अपना सफ़र
जीवन पहुंच जाता है समुद्र तलक

मैं जानता हूं जब मैंने कहा था
मैं तुम से प्यार करता हूं
कि मैं आविष्कार कर रहा था एक नई अक्षरमाला का
एक शहर के लिए जहां कोई भी नहीं पढ़ सकता था
उसे जो मैं लिखता था अपनी कविताओं में
एक सुनसान थियेटर में
उड़ेलता हुआ अपनी शराब
उनके लिए
जो उसे चख नहीं सकते थे.

जब ईश्वर ने तुम्हें दिया मुझे
मुझे लगा
जैसे उसने मेरे रास्ते में सब कुछ रख दिया हो
और अनकहा छोड़ दिया हो अपने सारे पवित्र ग्रन्थों को.

कौन हो तुम स्त्री
मेरे जीवन में प्रवेश काती हुई ख़ंजर की मानिन्द
ख़रग़ोश की आंखों जैसी हल्की
आलूबुख़ारे की त्वचा जैसी मुलायम
चमेली की लड़ियों जैसी ख़ालिस
बच्चों के बिब जैसी मासूम
और शब्दों की तरह निगल जाने वाली?

तुम्हारे प्रेम ने उछाल फेंका मुझे
अचरज की एक धरती पर
लिफ़्ट में प्रवेश करती हुई किसी स्त्री की
ख़ुशबू की तरह उसने घात लगा कर हमला बोला मुझ पर
उसने मुझे चकित किया
एक कहवाघर में
एक कविता पर बैठे
मैं भूल गया कविता
उसने मुझे चकित किया
मेरी हथेली की रेखाएं पढ़ते हुए
मैं अपनी हथेली भूल गया
वह मुझ पर गिरा
किसी गूंगी बहरी
जंगली मुर्गाबी की तरह
उसके पंख उलझ गए मेरे पंखों से
उसकी कराहें उलझ गईं मेरी कराहों से.

उसने मुझे चकित किया
दिनों की रेलगाड़ी का इन्तज़ार करता
जब मैं बैठा था अपने सूटकेस पर
मैं दिनों को भूल गया
मैंने तुम्हारे साथ सफ़र किया
आश्चर्य की धरती की ओर.

तुम्हारी छवि उकेरी जा चुकी है
मेरी घड़ी के चेहरे पर
वह उकेरी गई है उसकी दोनों सुईयों पर
वह खुदी हुई है हफ़्तों पर
महीनों, सालों पर
मेरा समय नहीं रहा अब मेरा
तुम हो वह.

2 comments:

शायदा said...

amazing.

प्रवीण पाण्डेय said...

न जाने कितने जहाज डूब गये हैं,
पर न जाने बात क्या है।