Wednesday, August 3, 2011

एक पुरानी किताब की कविताएँ...(१) (राजेश जोशी)

इस बार छुट्टियों में घर पर हमेशा की तरह पुरानी अलमारियां टटोलते हुए एक किताब हाथ लगी.."आठवें दशक के सशक्त जनवादी कवि और प्रतिबद्ध कविताएँ' -सम्पादक स्वामी शरण स्वामी। (अगस्त 1982)अब चूंकि इधर कुछ दिनों से कबाड़खाना पर आकर कविताएँ पढ़ने लगा हूँ, इसलिए माँगकर किताब साथ दिल्ली ले आया१५५ कवियों की कविताएँ हैं इसमें... कुछ नामी और कुछ जिन्हें नहीं जानतावैसे इसमें समकालीन कविता पर एक लेख हैं उसे पढ़कर अच्छा नहीं लगा..(अपनी समझ कोई बहुत तगड़ी नहीं है लेकिन रघुवीर सहाय, धूमिल और कुंवर नारायण को एक झटके में रिजेक्ट कर देना हजम नहीं हुआ) लेकिन कुछ अच्छी कविताएँ इसमें मिलीअभी अभी राजेश जोशी जी की एक जबरदस्त कविता अनुनाद पर पढी थी, इसलिए कु उसी धरातल पर उनकी एक कविता इस संग्रह से लगा रहा हूँ...

बिजली सुधारने वाले
- राजेश जोशी

अक्सर झड़ी के दिनों में

जब सन्नाट पड़ती है बौछार
और अंधड़ चलते हैं
आपस में गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं
कई तार या कोई नंगा तार
बिजली के खम्बे पर पानी में भीगता
चिंगारियों में चटकता है
एक आग के फूल-सा झरता है
अचानक
उमड़ आयी अँधेरे की नदी में
मोहल्ले के मोहल्ले
घुप्प अँधेरे में डूब जाते हैं
वे आते हैं
बिजली सुधारने वाले
पानी से तरबतर टोप लगाए।

पुरानी बरसाती की दरारों और कालर
से रिसता पानी उन्हें अन्दर तक
भिगो चुका होता है।

भींगते-भागते वे आते हैं
अँधेरे की दीवार में
अपनी छोटी-सी टार्च से
छेद करते हुए।

वे आते हैं
हाथों पर रबर के दास्ताने चढ़ाए
साइकिल पर लटकाए एल्युमिनियम की
फोल्डिंग नसैनी लकड़ी की लम्बी छड़
और एक पुराने झोले में
तार,पेंचकस,टेस्टर
और जाने क्या-क्या भरे हुए-वे आते हैं
खम्बे पर टिकाते हैं
अपनी नसैनी को लंबा करते हुए
और चीनी मिट्टी के छोटे-छोटे कानों को
उमेठते एक-एक कर खींचते हैं
देखते हैं, परखते हैं
और फिर क़स देते हैं
किसी में एक पतला-सा तार

और एक बार फिर
जगमग हो जाती है
हर एक घर की आँख
वे अपनी नसैनी उतारते हैं
और बढ़ जाते हैं
अगले मोहल्ले की तरफ
अगले अंधेरों की ओर
अपनी सूची में दर्ज शिकायतों पर
निशान लगाते हुए....


(पुनश्च: जब 'नसैनी' जैसे शब्द, जो अपने मध्य-प्रदेशीय बचपन का एक हिस्सा है, को कविता में देखता हूँ, तो अनायास ही अपनी लगने लगती है, आश्चर्य है॥ :))

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कविता दृश्य बन आँखों के सामने से गुज़र गयी।

samar Singh said...

Kaun kehta hai ki shabd bolte nahi hain yeh chote chote sae shabd ek saath mil kar ek pura ka pura shahar bana dete hain .agar shak hai tho iss kavita ko padhe

batkahi said...

bhai,rajesh joshi ki is adbhut kavita ko padhvane ke liye shukriya.dhire dhire madhya varg ke abhijaat bante jane men sabse pahle jo pura samuday adrishya hua hai vo aise hi bijli thik karne vale log hain...anunaad par meri post ko aage badhane ka mauka mil gaya...
yadvendra

Kapil said...

इकबाल, इस किताब के सिलसिले में आपसे संपर्क करना चाहता हूं। मेरा ईमेल पता है kapil.gzb@gmail.com