Sunday, October 2, 2011

कविता अन्न में बदल गई :गांधी और कविता'

आज  २ अक्टूबर , महात्मा गाँधी की जयन्ती के अवसर पर  प्रस्तुत है एक कविता जिसका शीर्षक है : 'गाँधी और कविता।' इस कविता के रचनाकार हैं मलयालम  की  नई कविता  के  प्रमुख प्रस्तुतकर्ता  और हमारे समय के सुप्रसिद्ध कवि - आलोचक के० सच्चिदानंदन। मूल मलयालम कविता का अंगेजी में अनुवाद स्वयं कवि ने किया है जो उनके संग्रह 'सो मेनी बर्थ्स' में संग्रहीत है और कवि के वेब ठिकाने 'कैक्टस' पर भी उपलब्ध है।  इस कविता  को  साभार यहाँ  प्रस्तुत किया जा रहा है। आइए देखें -पढ़े - गुनें इस कविता को :


के० सच्चिदानंदन की कविता
गांधी और कविता
(अनुवाद: सिद्धेश्वर सिंह)

एक दिवस
एक कृशकाय कविता
पहुँची गांधी - आश्रम तक
उनकी एक झलक पाने के लिए।

गांधी कताई में लीन
सरकाए जा रहे थे राम की ओर अपने सूत
कोई ध्यान नहीं उस कविता का
जो द्वार पर किए जा रही थी सतत इंतज़ार।

लाज आ रही थी कविता को कि वह बन सकी कोई भजन
उसने खँखार कर किया अपना गला साफ
तब गांधी ने उसे देखा अपनी उस ऐनक से
जिससे देखे जा चुके थे तमाम तरह के नर्क।
उन्होंने पूछा-
'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही  हो कभी भूखे पेट?'

कविता ने कहा:
'एक बहेलिए के मुख में
जंगल में हुआ मेरा जन्म
मछुआरे ने पाला पोसा अपनी कुटिया में.
फिर भी मुझे नहीं आता कोई काम
जानती हूँ केवल गान.
पहले मैंने दरबारों में गायन किया
तब मेरी काया थी हृष्ट-पुष्ट और कमनीय
लेकिन अब सड़कों पर हूँ
लगभग भूखी - दीन - क्षुधातुर।'

'अच्छी बात है' गांधी ने कहा
एक वक्र मुस्कान के साथ -
'लेकिन तुम्हें छोड़ना चाहिए
संस्कृत संभाषण की इस आदत को
जाओ खेत - खलिहानों में
सुनो कृषकों की बातचीत।'

कविता अन्न में बदल गई
और खेतों में  जाकर  करने लगी इंतज़ार
कि प्रकट हो कोई हल
और उसके ऊपर बिछा दे
नई बारिश से आर्द्र भुरभुरी कुंवारी मिट्टी की सोंधी पर्त।

4 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

कविता बीज रूप होती है, न जाने कितना अन्न उपजा देती है।

S.N SHUKLA said...

बहुत सुन्दर प्रेरक तथा सार्थक रचना , आभार

Anonymous said...

'क्या तुमने कभी सूत काता है ?
क्या कभी खींचा है मैला ढोने वाले की गाड़ी को ?
क्या कभी सुबह- सुबह रसोई के धुएं में खड़ी रही हो देर तक?
क्या तुम रही हो कभी भूखे पेट?'

बेहतर...

शरद कोकास said...

बहुत अच्छी कविता और अनुवाद भी ।