(रेडियो में बैठे कई लोगों का मानना है कि क्रिकेट की लोकप्रियता के हमारे यहाँ सर चढ कर बोलने का कारण असल में रेडियो पर भाषाई और खासकर हिंदी की कमेंटरी ही है.इस पर किसी तरह की चर्चा यहाँ नहीं की जा रही सिर्फ इतना ही कि पुराने दौर की रेडियो की हिंदी कमेंटरी का ज़िक्र छिड़ते ही जो कई नाम ज़ेहन में आते हैं उनमे एक नाम मुरली मनोहर मंजुल का भी अवश्य होता है. मंजुल साहब रेडियो की अपनी दीर्घ यात्रा पूरी कर अब सेवानिवृत हैं. आपकी लिखी किताब ‘आकाशवाणी की अंतर्कथा’ के एक अध्याय ‘क्रिकेट कॉमेंटरी’ को साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ.अध्याय लगभग तीनेक कड़ियों तक जाने की सम्भावना है.)
क्रिकेट कॉमेंटरी- मुरली मनोहर मंजुल
मेरे लंबे कार्यकाल में एक उपलब्धि ऐसी रही है जिस पर मैं सच्चे दिल से गर्व कर सकता हूँ.वह है हिंदी में क्रिकेट का आँखों देखा हाल.१९६६ में जब मैं पटना से ट्रान्सफर होकर जयपुर आया तो खेल कवरेज का जिम्मा मुझे दिया गया.क्रिकेट तब धीरे धीरे लोकप्रियता की सीढी चढ़ रही थी. रणजी ट्राफी की रेडियो पर अनदेखी थी.तत्कालीन स्टेशन डिरेक्टर के सामने आने वाली एक रणजी मैच की रनिंग कमेंटरी करने का प्रस्ताव मैंने रखा. मुझ पर उनका अटूट विश्वास था.उन्होंने तुरंत स्वीकृति दे दी.शायद वह राजस्थान और विदर्भ के बीच का मैच था जो चौगान स्टेडियम की मैटिंग विकेट पर खेला गया.सारी व्यवस्थाएं मैंने मुकम्मिल कर लीं थीं.और दिल्ली से एक अंग्रेजी और एक हिंदी कमेंटेटर बुलवा लिया.उन तीन दिनों में मैंने देखा कि हिंदी कमेंटेटर के सामने क्रिकेट फील्ड के दो चार्ट रखें है- पहला दाएँ हाथ की बल्लेबाजी और दूसरा बाएँ हाथ की बल्लेबाजी का.उसी से मुझे पता चल गया कि जनाब क्रिकेट में एकदम कोरे हैं.उनकी कमेंटरी भी इस सच्चाई की ताईद कर रही थी.गेंद घुमा दी, खेल दिया और सुरक्षा के साथ रोक लिया के आलावा उन्हें कुछ आता जाता नहीं था.खेल का तकनीकी पक्ष- गेंद की टर्न, स्विंग, गुड लेंग्थ,ओवर पिच, शोर्ट ऑफ लेंग्थ तथा हुक,पुल,ड्राइव या कट जैसे शॉट उनके शब्द कोष में नहीं थे.
उनके इस अंदाज़ ने मेरी आँखें खोल दी.जिस कमेंटरी को मैं अब तक हौवा समझे बैठा था, मुझे लगा यह काम तो मैं खुद बेहतर कर सकता हूँ. स्कूली स्तर पर मैं अपने जन्म स्थान जोधपुर के गाँधी मैदान पर चलने वाले मारवाड़ क्रिकेट क्लब का सदस्य रह चुका था. फिर बीबीसी से जॉन आर्लेट की कमेंटरी बहुत गौर से सुन चुका था. क्रिकेट का बेसिक ज्ञान और उसकी बारीकियों से मैं पूरी तौर पर वाकिफ था.इसी आत्मविश्वास ने मुझे नमूने की रिकॉर्ड की गयी अपनी क्रिकेट कमेंटरी स्क्रीनिंग कमिटी को भेजने को प्रेरित किया. कमिटी में एक नुमाइंदा आकाशवाणी महानिदेशालय का होता था और दो भूतपूर्व खिलाड़ी. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब कुछ ही महीनों में मेरे नाम को स्क्रीनिंग कमिटी ने पास कर दिया. इस तरह १९७२ में बाकायदा मैं क्रिकेट कमेंटरी के राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पैनल में आ गया.१९६६ से १९७२ के बीच रणजी ट्राफी मैचों का आँखों देखा हाल सुनाता रहा.बेशक वह अनुभव मेरे बहुत काम आया.उस समय तक क्रिकेट पैनल पर रेडियो का नियमित सरकारी कर्मचारी कोई नहीं था.सिर्फ स्टाफ आर्टिस्ट के तौर पर जसदेव सिंह थे. मुझे यह स्वीकारने में कोई हिचक नहीं कि क्रिकेट कॉमेंटेटर पैनल तक ले जाने में मेरा वह मित्र मददगार रहा.
हम दोनों के अलावा क्रिकेट कमेंटरी से अंग्रेजी वर्चस्व को हटाने के लिए इंदौर के सुशील दोषी ने भी बीड़ा उठाया.उससे पहले जोगा राव ज़रूर थे लेकिन विशुद्ध रूप से वे हिंदी भाषायी नहीं थे.किसी खेल को किसी भाषा विशेष के साथ बाँधा नहीं जा सकता.फिर हिंदी पर अक्षमता की अंगुली हमें गवारा नहीं थी. क्रिकेट के पारिभाषिक शब्दों को हमने नहीं छेड़ा,अभिव्यक्ति को मौलिक बनाया.खेल के तकनीकी पक्ष पर पकड़ रखी.क्रिकेट के असंख्य प्रेमियों की नब्ज़ को पहचाना.अपनी कमेंटरी को रवानी दी.यहाँ वहाँ कल्पना के हलके ब्रश चलाये.परिणाम वही हुआ.दो-तीन वर्षों में आकाशवाणी से प्रसारित हिंदी क्रिकेट कमेंटरी ने अपनी अंग्रेजी बड़ी बहन को पीछे छोड़ दिया. कुछ नए स्वर आकर जुड़ गए.इस सतत प्रयास की बदौलत घर-घर हिंदी कमेंटरी का प्रवेश हो गया.तब तक ट्रांसिस्टर का आगमन हो चुका था.अतिशयोक्ति नहीं, हिंदी की क्रिकेट कमेंटरी किचन से कमोड तक मार करने लगी.आज टेलीविज़न जिस तरह बढ़-चढ कर क्रिकेट कमेंटरी का ब्याज खा रहा है, कौन नहीं जानता, उसके पीछे रेडियो के गहन परिश्रम का मूलधन लगा हुआ है.(जारी)
2 comments:
सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें .
अच्छा लगा।
धन्यवाद।
Post a Comment