अभी कुछ देर पहले खबर आई है कि श्रीलाल शुक्ल जी नहीं रहे । उन्हें 'कबाड़ख़ाना' की ओर से श्रद्धांजलि !पिछले दिनों ज्ञानपीठ पुरस्कार की घोषणा के साथ श्रीलाल शुक्ल जी और उनका उपन्यास ‘राग दरबारी’ एक बार फ़िर चर्चा के केंद्र में रहे हैं। इस ठिकाने पर उन्हें और उनके कालजयी रचनाकर्म को बार - बार याद किया गया है। आज २००७ में लिखी एक पोस्ट श्रद्धांजलि स्वरूप दोबारा साझा की जा रही है। नमन इस कालजयी रचनाकार को!
१९७० में साहित्य अकादेमी ( और २०११ ज्ञानपीठ ) पुरस्कार से सम्मानित श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास `राग दरबारी´ आजादी के बाद के भारतीय जनमानस के सामाजिक जीवन की बहुरंगी छवियों , परिवर्तित - परावर्तित जनाकांक्षाओं , राजनीतिक सदाचार - कदाचार के सार्वजनिक स्वीकार - अस्वीकार , सरकारी - गैर सरकारी योजनाओं - परियोजनाओ -कार्यक्रमों की नीति-अनीति-परिणति , शैक्षिक संस्थानो में फल-फूल रही दार्शनिक दरिद्रता - दकियानूसी और दुकानदारी , बुद्धजीवी तबके की निस्पृह-निस्सार निस्संगता आदि-आदि का जीवंत दस्तावेज तो है ही साथ ही यह आम जनता की उस दुर्दम्य जिजीविषा का प्रमाण भी है जिसके लिए प्रतिकूलताओं का मतलब दैनंदिन चुनौती और दैनिक जीवन -व्यापार का एक पड़ाव भर है । शायद यही वजह है कि यह उपन्यास समाज के हर तबके द्वारा सराहा गया ।
`राग दरबारी´ की कथाभूमि शिवपालगंज हैं , एक छोटा-सा कस्बा या एक बड़ा-सा गांव ।यहां की पंचायत, कोआपरेटिव सोसाइटी , कालेज की प्रबंध समिति ,सबके सब आजादी के बाद के भारतीय सामाजिक तानबाने के प्रतिनिधि हैं । इनके बीच स्वार्थ, लोभ ,लिप्सा का खेल तो है ही , इन्ही के बीच जगह-जगह मानवीय करूणा, अपननत्व,, प्रेम,पीड़ा आदर्श की वे सरितायें भी हैं जिन्हें सदानीरा बनाये रखने की जद्दोजहद को हम लोग साहित्य , संस्कृति, कला , आस्था आदि-आदि का उद्देश्य या प्रयोजन के नाम से जानते समझते -समझाते हैं । यह उपन्यास हिन्दी कथा साहित्य में तेजी से तिरोहित होते हुए उस `स्पेस´ की उपस्थिति भी है जिसे गांव या कस्बा कहते हैं । साथ इस `स्पेस´ को लेकर बनी -बनाई उस रोमानी छवि के ध्वस्तीकरण की ईमानदार कोशिश भी जो ` अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है ´ और मादल -मृदंग के `डिमिक - डिमिक ´ से आस्वाद ग्रहण कर उसी में आंख मूंदकर मुदित रहने की अभ्यस्त है ।
`राग दरबारी´ की भाषा-शैली का अपना एक अलग रंग है । लेखक के सामने इस बात की पूरी गुंजाइश थी कि वह बड़ी सरलता से इसकी भाषा को लोकल कलर या आंचलिक पुट दे सकता था लेकिन संभवत: ऐसा करने पर उसके कथानक की व्यापकता सीमाबद्ध हो जाती , वह अपनी लघुता में विराटता का रूपक प्रस्तुत करने में पिछड़ जाता , वह उतना बेधक और विध्वंसक नहीं रह पाता । कथ्य भाषा को किस तरह साधता है और भाषा कथ्य को कैसे कसती है ,यह इस उपन्यास के माध्यम से सीखा जा सकता है ।
`राग दरबारी´ निरन्तर वर्णनात्मकता में चलने वाला एक असमाप्त गद्य है । इसके पात्रों का एक अपना संसार है , वे शिवपालगंज के `गंजहे´ हैं । वैद्य जी, रूप्पन बाबू , रंगनाथ , सनीचर ,बद्री पहलवान , छोटे पहलवान, बाबू रामाधीन भीमखेड़वी, लंगड़ ,प्रिन्सिपल साहब, पं0 राधेलाल , खन्ना मास्टर ,मास्टर मोतीराम , कुसहर प्रसाद ,जोगनाथ इत्यादि पात्र अपनी दुनिया के भीतर ही एक सार्वजनिक दुनिया ( पब्लिक स्फीयर ) का खाका खीते चलते हैं । पाठक के लिए यह दुनिया नई भी है और अपनी भी । आजादी के बाद के हिन्दी उपन्यास साहित्य में `मैला आंचल´( फणीश्वर नाथ रेणु) के बाद `आधा गांव´( राही मासूम रज़ा) ,`तमस´( भीष्म साहनी) और `राग दरबारी´ की त्रयी ने काफी हलचल पैदा की थी । तीनों की कथाभूमि और कहने का अंदाज जुदा-जुदा था फिर भी तीनों ही एक साथ मिलकर भरतीय जनमानस के वृत्त को पूरा करते हैं ।
`राग दरबारी´ का आखरी हिस्से को श्रीलाल शुक्ल जी ने पलायन संगीत का नाम दिया है । तो आइए ! सुनते हैं वही संगीत । पर ध्यान रहे यह सुनना भी निहायत जरूरी है कि कहीं किसी कोने -कांतर में यह संगीत हमारे भीतर भी बज रहा है क्या ?
पलायन संगीत
तुम मंझोली हैसियत के मनुष्य हो और मनुष्यता के कीचड़ में फंस गए हो । तुम्हारे चारों ओर कीचड़ ही कीचड़ है। कीचड़ की चापलूसी मत करो । इस मुगालते में न रहो कि कीचड़ से कमल पैदा होता है । कीचड़ में कीचड़ ही पनपता है । वही फैलता है वही उछलता है ।
कीचड़ से बचो । यह जगह छोड़ो ।यहां से पलायन करो।
वहां ,जहां की रंगीन तस्वीरें तुमने `लुक´ और `लाइफ´ में खोजकर देखी हैं ( जहां के फूलों के मुकुट, गिटार और लड़कियां तुम्हारी आत्मा को हमेशा नए अन्वेषणों के लिए ललकारती हैं (जहां की हवा सूक्ष्म से भी सूक्ष्मतर है, जहां रविशंकर - छाप संगीत और महर्षि-योगी छाप अध्यात्म की चिरंतन स्विप्नलता है । जाकर कहीं छिप जाओ। यहां से पलायन करो । यह जगह छोड़ो.
नौजवान डाक्टरों की तरह ,इंजीनियरों ,वैज्ञानिकों , अंतरराष्ट्रीय ख्याति के लिए हुड़कने वाले मनीषियों की तरह ,जिनका चौबीस घंटे यही रोना है कि सबने यहां मिलकर उन्हे सुखी नहीं बनाया , पलायन करो, यहां के झंझटों में मत पड़ो।
अगर तुम्हारी किस्मत ही फूटी हो ,और तुम्हें यहीं रहना पड़े तो अलग से अपनी एक हवाई दुनिया बना लो । उस दुनिया में रहो जिसमें बहुत -से बुद्धिजीवी आंख मूंदकर पड़े हैं होटलों और क्लबों में ।शराबखानों और कहवाघरों में, चण्डीगढ़ - भोपाल - बंगलौर के नवनिर्मित भवनों में ,पहाड़ी आरामगाहों में ,जहां कभी न खत्म होने वाले सेमिनार चल रहे हैं। विदेशी मदद से बने हुए नए-नए शोध - संस्थानों में , जिनमें भारतीय प्रतिभा का निर्माण हो रहा है। चुरूट के धुयें ,चमकीली जैकेट वाली किताब और गलत , किन्तु अनिवार्य अंग्रेजी की धुन्ध वाले विश्वविद्यालयों में । वहीं जाकर जम जाओ ,फिर वहीं जमे रहो।
यह न कर सको तो तो अतीत में जाकर छिप जाओ । कणाद, पतंजलि, गौतम में , अजन्ता, ऐलोरा ,एलिफेंटा में , कोणार्क और खजुराहो में ,शाल -भंजिका -सुर -सुंदरी-अलसकन्या के स्तनों में, जप-तप-मंत्र में ,सन्त -समागम -ज्योतिष -सामुद्रिक में- जहां भी जगह मिले , जाकर छिप रहो।
भागो, भागो, भागो । यथार्थ तुम्हरा पीछा कर रहा है ।
17 comments:
हार्दिक श्रद्धांजलि!
विनम्र श्रद्धांजलि,
अभी तो मैं भी पलायन कर गए लोगों की श्रेणी में खुद को पाता हूँ, लेकिन लौटना है.. उसी शिवपालगंज में जिसमें हम कभी रहते थे.. जिसमे ज्यादातर भारतीय रहते हैं..
भारतीय जनमानस के चितेरे को नमन।
श्रद्धांजलि
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
सच मे काल जयी !
देख्नें,ईश्वर अब किसे चुनते हैं .......भारतीय हुचके की डोर को सुलझा कर शब्दों में सरल करने के लिए !!!!
उनका गद्य हिंदी का महानतम् गद्य है । वो एक मैचलैस शख्सियत थे और किसी में वो बात कहाँ । वो अपना बैस्ट काफी पहले दे चुके थे लेकिन उनका जाना तो दुःखद है ही । मेरी श्रद्दांजली ।
श्रद्धांजलि!
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