अभिनव कुमार मेरे अन्तरंग मित्र हैं. खूब पढ़ते-लिखते हैं और अपनी बेबाकी के लिए खासे विख्यात. फिलहाल देहरादून में डी आई जी के पद पर हैं.
कुछ अरसा पहले उनके लिखे एक लेख को लेकर ख़ासा विवाद हुआ था और हमने उसे कबाड़खाने में छापा था. हालिया रश्दी विवाद के बाद आज सुबह उनका एक लेख छपा था. मैंने उनसे उसका अनुवाद करने की अनुमति माँगी जो उन्होंने सहर्ष दे दी. पढ़िए एक साहसी आई पी एस अफसर कैसे प्रतिक्रिया देने की हिम्मत रख सकता है. शुक्रिया अभिनव!
प्रतिक्रियावादियों और स्वतन्त्र अभिव्यक्ति के शत्रुओं के पक्ष में बार-बार खड़ी होकर भारत की पुलिस ने निर्भयता और तटस्थता के साथ कानून को बनाए रखने के अपने क़ौल के साथ धोख़ेबाज़ी की है.
एम. एफ़. हुसैन, तसलीमा नसरीन और अब सलमान रश्दी. कानून की रखवाली न कर सकने और मनुष्य की अस्मिता को बचा न पाने के भारतीय पुलिस क्र इतिहास में एक और शानदार अध्याय जुड़ गया है. यह लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होती. चाहे मुम्बई की सड़कें हों, बंगलौर के शराबख़ाने हों, दिल्ली की रातों के अड्डे हों, गोवा के समुद्रतट हों, वैलेन्टाइन-डे का उत्सव हो, हत्यारी खाप पंचायतें हों या मनचाहे तरीके से खा, पी और कपड़े पहन सकने वाले हमारे आधे नागरिकों के व्यापक अधिकार हों, भारत की पुलिस ने, अन्यथा बेहद महत्वपूर्ण उत्तर-दक्षिण और शहरी-ग्रामीण विभाजन के आरपार, चाहे कोई भी राजनैतिक दल सत्ता में हो, लगातार धार्मिक प्रतिक्रियावाद और सांस्कृतिक कट्टरपंथी शक्तियों का ही पक्ष लिया है. ऐसा करते हुए उसने ऐसे नीतिगत आदर्श का समर्थन किया है जो लगातार एक ऐसी नैतिक संहिता का पक्षधर है जिसे सीधे-सीधे खुमैनी के ईरान और मुल्ला उमर के अफ़गानिस्तान से उठाया गया होता है. जैसा की इस घटना ने दिखाया है, हम सत्ताधारी राजनैतिक ठगों से बेहतर नहीं हैं. कानून से बंधकर रहने वाली जनता के लिए हम विघ्नसंतोषी और कायर हैं.
दुनिया में बहुत कम लोकतंत्र हैं जिनमें पुलिस को आज इतनी सारी शक्तियां मिली हुई हैं खासतौर पर किसी भी घटना के घटने से पहले उस पर लगाम कसने कीं. हमारे वर्तमान अधिनियमों के चलते पुलिस अधिकारियों को सार्वजनिक-व्यवहार पर काबू करने के लिए काफी अधिक आज़ादी मिली हुई है जिनके तहत वह सुरक्षात्मक गिरफ्तारियों से लेकर क़ानून द्वारा स्वीकृत घातक ताकत का अतीव इस्तेमाल तक कर सकती है. हमारे औपनेविशिक इतिहास और आज़ादी के बाद की आन्तरिक सुरक्षा सम्बंधित चुनौतियों ने इस बात को सुनिश्चित किया है भारत में पुलिस को मिले इस संवैधानिक अधिकार को उल्लेखनीय रूप से व्यापक स्तरों पर जनता की सोच का लगातार समर्थन मिलता रहे.
तब ऐसी कौन सी वजहें हैं की हमारा पुलिस बल उतने ही उल्लेखनीय तरीके से लगातार कायरपन का प्रदर्शन करता आया है? कुछ अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि रश्दी के जयपुर साहित्य महोत्सव में आ सकने के लिए इतना भर किया जाना था कि जयपुर के किसी एक वरिष्ठ पुलिस अफसर ने आयोजकों और रश्दी को अपने सहयोग का आश्वासन देकर हिंसा की धमकी देने वालों को सख्त चेतावनी देते हुए आवश्यक उपाय करने थे. इसके स्थान पर हमें बताया गया है की स्थानीय पुलिस ने आयोजकों से कह दिया कि वे रश्दी से समारोह से दूर रहने को कहें. यह भी आरोप लगाया गया है कि उसने इन अफवाहों को बढ़ावा दिया की मुंबई से पेशेवर हत्यारे बुलाए जा रहे हैं, जिस से मुंबई पुलिस ने इन्कार किया. इसमें कोई शक नहीं कि राजस्थान पुलिस के आला अफसरों ने खामोश रहने को तरजीह दी और कट्टरपंथी और रुढ़िवादी ताकतों की ऐश आ गयी.
आप किसी भी उच्च पुलिस अफसर से पूछेंगे तो रटारटाया उत्तर मिलता है - "हमारी प्राथमिकता होती है क़ानून और व्यवस्था बनाये रखना." चाहे इसका मतलब हो कि आप गुंडों की गैंग के अवैध व्यवहार के आँखें फेर लें जो राजनैतिक धाराओं के दक्षिणी और वाम के दोनों धडों के सी अतिवादी सिद्धांत की पैरवी करते हों या नस्ली गौरव और धार्मिक घृणा के किसी कट्टर स्वप्न फैलाने का काम करते हों.
ऐसे क़ानून और व्यवस्था को बनाये रखने का क्या मतलब है? इस उदासीनता को उस उत्साह के बरअक्स देखिये जिसका प्रदर्शन पुलिस तब करती है जब कोई नारे लगाने की कोशिश करता है या किसी बड़े नेता की रैली में काले झंडे दिखने की. इसे "सुरक्षा में गंभीर सेंध" और संगीन खामी मानते हुए ऐसा करने वाले को तुरतफुरत दबोच लिया जाता है और उसे कानून की पूरी ताक़त महसूस करा दी जाती है. ऐसा कई दफा तब भी किया जाता है जब की ड्यूटी पर तैनात पुलिस अफसर को कर्तव्य की उपेक्षा करने के कारण अनुशासनात्मक कारवाई से रू-ब-रु होना पड़ सकता है.
देश के वर्तमान नीतिगत प्रतिमान निम्नलिखित पारंपरिक बुद्धिमत्ता से निर्देशित लगती है - सुरक्षा कारणों से साधारण नागरिक जनप्रतिधियों के खिलाफ न तो नारे लगा सकते हैं न काले झंडे दिखा सकते हैं, भड़काऊ कपडे पहनने वाली स्त्रियाँ अपने को बलात्कार के लिए पेश करती हैं, अपनी जाति और धर्म के बाहर प्रेम और विवाह करने वाले जोड़ों को कानून से किसी तरह की सुरक्षा की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए, सार्वजनिक जगहों पर अंतरंगता का प्रदर्शन यौन-अपमान और हिंसा का न्यायसंगत कारण हो सकता है, और इस घटना के परिप्रेक्ष्य में किसी सम्प्रदाय के किसी भी स्वयंभू रक्षक की धार्मिक भावनाएं किसी मूल अधिकार से ऊपर हो जाती हैं. और अंततः सत्ताधारी दल की राजनैतिक मजबूरियां क़ानून के ऊपर कभी भी और हमेशा ही वरीयताएँ पाती रही हैं.
पुलिस की आलाकमान, जिसका मैं भी हिस्सा हूँ, अक्सर राजनेताओं को बाधा पहुँचाने, आई ए एस अफसरों पर अवरोधवाद, मीडिया को पक्षपातपूर्ण कवरेज और न्यायपालिका को व्यावहारिक सीमाओं को पहचानने की कमी का आरोप लगाते हैं. यह पूरी तरह से छल है. हमारी राजनैतिक ताकतों को सिद्धान्तपूर्ण नेतृत्व मुहैया न करा पाने की पुलिस की साफ़ असफलता को यह लंगोटी अब और नहीं छिपा सकती.
आई पी एस का गठन सरदार पटेल और नेहरू ने ज़ाती उम्मीदों से किया था कि वे शासन करने की सीमित अर्थों भर में ही सेवा नहीं करेगी बल्कि संविधान द्वारा रक्षित पहरुवों की तरह राष्ट्रीय अखंडता और सुरक्षा के साथ साथ स्वयं संविधान और क़ानून की रक्षा करेगी. नेहरू के परपोते को अपने पुरखे के आदर्शों के बारे में बात करने की इच्छा शायद न हो, लेकिन अखिल भारतीय सेवा में कार्यरत हम सब भी उतने ही नेहरू की सन्ततियां हैं और जब हमारी थाती को इस तरह लगातार बेख़ौफ़ अपवित्र किया जा रहा हो, हमें आगे आकर बोलना चाहिए.
हालिया घटनाओं ने मुझे हैरत करने पर विवश किया है की क्या मैंने इन्डियन पुलिस सर्विस जौइन की थी या इन्डियन अयातुल्लाह सर्विस? कहीं किसी छिपी हुई इबारत को पढने में मुझसे चूक हो गयी होगी. सिर्फ अमीरों और ताकतवर लोगों के लिए साधारण 'स्टॉर्म ट्रूपर' (स्टॉर्म ट्रूपर - नाज़ी सेना के सदस्य जिन्हें अपनी हिंसा और पाशविकता के कारण बहुत कुख्याति मिली थी) बनने भर के लिए और उस समय चुप रहने के लिए जब क़ानून और समानता के मूलभूत सिद्धांतों को ऐसे भयहीन तरीके से उपहास बनाया जा रहा हो, मैंने ऐसा नहीं किया था. ऐसा पुलिस बल जो सही काम करने के लिए कुछ नहीं करता, जो सत्ता के सामने सच बोलने की हिम्मत न रखता हो, जो एक पगलाई भीड़ के भौंकने के समक्ष मनुष्य के स्वाभिमान की बलि दे देता हो, को न तो जनता के सम्मान का अधिकार है न कानूनी ताक़त का. हम आई पी एस अगर इन मूलभूत सच्चाइयों को याद रखें तो हमारे लिए बेहतर होगा.
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इन लेखों को भी देखें -
क्या देश के आम नागरिक को वास्तविकता के बारे में बताना अपराध है
सच्चाई गले नहीं उतरती हमारे आला अफ़सरान के
4 comments:
सर्वजन में सुरक्षा का भाव ही सच्चा लोकतन्त्र निर्माण करेगा।
विवेक और विचार का संग साथ है। इससे उम्मीद बनी रहती है।
तन्त्र के खिलाफ भीतर से उठती आवाजें भरोसा दिलाती हैं.रश्दी प्रकरण सिर्फ पुलिस की भूमिका तक ही सीमित नहीं है. यह अभिव्यक्ति,सहिष्णुता और संवेदनशीलता की जटिल अवधारणाओं के घटाटोप में छुपा है.अभिनव का लेख उम्मीद की एक किरण की दिखायी दे रहा है.
पुलिस का काम राजनेताओं की सुरक्षा से कुछ अधिक नहीं रह गया है.... बहुत हिम्मत से बाते कह रहे हैं आप...
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