आज से आप को तिब्बत के युवा विद्रोही कवि तेनजिन त्सुंदे की कुछ कविताओं से परिचित करने जा रहा हूँ. २००१ का पहला आउटलुक-पिकाडोर नौन-फिक्शन अवार्ड पाने वाले तेनजिन ने मद्रास से स्नातक की डिग्री लेने के बाद तमाम जोखिम उठाते हुए पैदल हिमालयी दर्रे पार किए और अपनी मातृभूमि तिब्बत का हाल अपनी आँखों से देखा. चीन की सीमा पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर तीन माह ल्हासा की जेल में रखा. उसके बाद उन्हें वापस भारत में "धकेल दिया गया." तेनजिन के बारे में कुछ और बातें बाद में -
जब धर्मशाला में बारिश होती है
मुक्केबाजी के दस्ताने पहने बारिश की बूँदें
हज़ारों हज़ार
टूट कर गिरती हैं
और उनके थपेड़े मेरे कमरे पर.
टिन की छत के नीचे
भीतर मेरा कमरा रोया करता है
बिस्तर और कागजों को गीला करता हुआ.
कभी कभी एक चालक बारिश
मेरे कमरे के पिछवाड़े से होकर भीतर आ जाती है
धोखेबाज़ दीवारें
उठा देती हैं अपनी एड़ियाँ
और एक नन्ही बाढ़ को मेरे कमरे में आने देती हैं.
मैं बैठा होता हूँ अपने द्वीप-देश बिस्तर पर
और देखा करता हूँ अपने मुल्क को बाढ़ में,
आज़ादी पर लिखे नोट्स,
जेल के मेरे दिनों की यादें,
कॉलेज के दोस्तों के ख़त,
डबलरोटी के टुकड़े
और मैगी नूडल
भरपूर ताक़त से उभर आते हैं सतह पर
जैसे कोई भूली याद
अचानक फिर से मिल जाए.
तीन महीनों की यंत्रणा
सुई-पत्तों वाले चीड़ों में मानसून,
साफ़ धुला हुआ हिमालय
शाम के सूरज में दिपदिपाता.
जब तक बारिश शांत नहीं होती
और पीटना बंद नहीं करती मेरे कमरे को
ज़रूरी है कि मैं
ब्रिटिश राज के ज़माने से
ड्यूटी कर रही अपनी टिन की छत को सांत्वना देता रहूँ.
इस कमरे ने
कई बेघर लोगों को पनाह दी है,
फिलहाल इस पर कब्ज़ा है नेवलों,
चूहों, छिपकलियों और मकड़ियों का,
एक हिस्सा अलबत्ता मैंने किराये पर ले रखा है.
घर के नाम पर किराए का कमरा -
दीनहीन अस्तित्व भर.
अस्सी की हो चुकी
मेरी कश्मीरी मकानमालकिन अब नहीं लौट सकती घर.
हमारे दरम्यान अक्सर ख़ूबसूरती के लिए प्रतिस्पर्धा होती है -
कश्मीर या तिब्बत.
हर शाम
लौटता हूँ मैं किराए के अपने कमरे में
लेकिन मैं ऐसे ही मरने नहीं जा रहा.
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए.
मैं अपने कमरे की तरह नहीं रो सकता.
बहुत रो चूका मैं
कैदखानों में
और अवसाद के नन्हे पलों में.
यहाँ से बाहर निकलने का
कोई रास्ता ज़रूर होना चाहिए.
मैं नहीं रो सकता -
पहले से ही इस कदर गीला यह कमरा.
5 comments:
शानदार कविता, अच्छा अनुवाद। अनुवादक का नाम जानने की उत्सुकता है, क्योंकि लाहुल के कुछ अनाम कवियों ने भी त्सुंडे की इसी कविता का अनुवाद किया था। अजेय भाई ने सुनाया था। अनाम कवियों ने त्सुंडे की चार कविताओं का अनुवाद किया था जिसमें दो अजेय भाई के ब्लाग पर लग चुके हैं। लिंक डाल रहा रहा हूं।
http://ajeyklg.blogspot.com/2010/04/blog-post_15.html
सालभर पहले फेसबुक पर भी किसी ने इसका अनुवाद डाला था, जोकि इससे मिलता जुलता था।
अनुवाद मेरा ही किया हुआ है भाई! अजेय के ब्लॉग पर कवितायेँ देख चूका हूँ पहले भी. आपने लिंक दिया सो एक बार दोबारा जाना हो गया. धन्यवाद.
excellent poetry and nice translation...
पीड़ा में डूबी शब्द धारा...
ओह..
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