Friday, February 17, 2012

माफ करना हे पिता - ५

(पिछली किस्त से आगे)


माफ करना हे पिता - ५

शंभू राणा

माँ से वह आखिरी मुलाकात थी। माँ की याद मेरे लिये कभी भी भावुक कर देने वाली नहीं रही। ऐसा शायद इसलिये कि उसका मेरा साथ काफी कम रहा। हाँ, मुझे काठ का बना एक गोल डब्बा अकसर याद आता है। धानी रंग के डब्बे में लाल-हरी फूल पत्तियाँ बनी थीं। माँ का सपना था कि कभी पैसे जुटे तो अपने लिये नथ बनावाउँगी, यह डब्बा नथ रखने के काम आयेगा। वह डब्बा मैं संभाल कर नहीं रख पाया। माँ साक्षर थी, मुझे पढ़ाया करती थी। गाँव में एक बार उसने मेरे पूछने पर पशुओं की मिसाल देकर बताया कि इंसान के बच्चे भी इसी प्रक्रिया से पैदा होते हैं। मैं हैरान होता हूँ इस बात को सोच कर। ऐसी बातें आजकल की उच्च शिक्षित माँएँ भी अपने बच्चों को बताने की जुर्रत नहीं करती। तब तो बच्चा अगर किसी बात पर ‘मजा आ गया’ कहता तो तमाचा खाता था। क्योंकि तब माँ-बाप को मजा सिर्फ एक ही चीज में आता था, जिसके नतीजे में कम से कम दर्जन भर बच्चे हर वक्त मजे को बदमजगी में बदल रहे होते, जिन्दगी अजीरन बन जाती।

सुबह का समय है, दिन जाड़ों के, धूप निकली है मगर खुद ठिठुरी हुई सी। आँगन में छोटे मामा मुझे पीट पीट कर हिन्दी पढ़ा रहे हैं। ऊपर सड़क में जो एक दुकान है, वहाँ से बीच वाले मामा को आवाज देकर बुलाया जाता है। मामा मुझे भेज देते हैं कि जाकर पूछ आऊँ कि क्या काम है। ताकि अगर कोई बबाली काम हो तो बहाना बनाया जा सके। पाले से भीगे पथरीले रास्ते पर नंगे पाँव चलता हुआ करीब आधा किमी. दूर दुकान में जाता हूँ। दुकानदार मुझे लौटा देता है कि तेरे मतलब की बात नहीं, नवीन को भेज। थोड़ी देर बाद मामा आकर बताते हैं कि अस्पताल में माँ चल बसी। तब डाक विभाग के हरकारे डाक के थैले लेकर पैदल चला करते थे। उन्हीं से पिता ने जवाब भिजवाया था। मेरे कॉपी-किताब किनारे रखवा दिये जाते हैं, मेरे लिये सीढ़ियों में बोरा बिछा दिया गया। लोग कहते हैं, देखो कैसा बड़ों की तरह रो रहा है। वो लोग दहाड़ें सुनने के आदी थे। दहाड़ें मारते हुए सर फोड़ने को आमादा आदमी को संभालने और संसार की असारता पर बोलने के सुख से अनजाने ही उन्हें वंचित कर रहा था मैं।

इसके शायद दूसरे ही दिन छोटे मामा मुझे पिता के पास गाँव छोड़ गये, जहां पिता माँ का क्रियाकर्म कर रहे थे। शायद तकनीकी मजबूरी के कारण ऐसा करना पड़ा होगा। मैं काफी छोटा था और चचा-ताऊ कोई थे नहीं। हिन्दुओं के शास्त्र भारतीय संविधान की तरह काफी लचीले हैं, जैसा बाजा बजे वैसा नाच लेते हैं। चाहें तो हर रास्ता बंद कर दें और अगर मंशा हो तो हजार शहदारियाँ खुल जाती हैं।

माँ के क्रियाकर्म से निपट कर पिता फिर दफ्तर जाने लगे। सुबह मेरे लिये खाना बना कर रख जाते हैं। रात को 8-9 बजे लौट कर आते हैं। टॉर्च और जरकिन लेकर एकाध किमी. दूर नौले से पानी लाते हैं। खाना बनाते हैं। उनके लौटने तक मैं दूसरों के घरों में बैठा रहता हूँ। बाद में पिता पानी का जरकिन सुबह साथ लेकर जाते हैं जिसे रास्ते में पड़ने वाले गाँव में रख जाते हैं। शाम को उसी दिशा में नौले जाने का फेरा बच जाता है। मैं दिन भर सूखे पत्ते सा यहाँ-वहाँ डोलता रहता। दूसरे के बच्चों के साथ गाय-बकरियाँ चराने जाते (अपनी कोई गाय बकरी नहीं थी)। दूसरे बच्चों की देखादेखी कीचड़नुमा पानी के तालाब में नहाता, काफल के पेड़ों में चढ़ता-गिरता। लगभग साल भर यूँ ही बीत गया। इसी दरमियान मैं स्कूल भी जाने लगा, कुछ उसी तर्ज पर जैसे गाय-बकरियाँ चराने जाता था और वह भी सीधा तीसरी क्लास में। शायद इसलिये कि मेरी हिन्दी चौथी-पाँचवी के बच्चों से अच्छी थी। मास्टर का बोला हुआ मैं कम या बिना गलती के लिख लेता। शायद इसी बात से मास्टर साहब प्रभावित हो गये हों। लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि शिक्षा की बुनियाद रखते ही हिल गयी। इस ऐतबार से मेरी गिनती घोड़े में न गधे में। बाद में दुश्मनों ने काफी समझाया-उकसाया कि भई ऊपर का माला पक्का करवा लो और दीवारों में पलस्तर भी। अब भला झुग्गी की छत भी कहीं सीमेंट और लोहे की हो सकती है।

माँ की मौत के साल बीतते-बीतते पिता जब्त नहीं कर पाये और दूसरी शादी की बातें होने लगीं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण मुझे बताया गया कि मेरी देखभाल कौन करेगा। घर, खेती-बाड़ी सब वीरान हो जायेंगे। यह सब बहाना था, बकवास था।

पिता साफ झूठ बोल रहे थे। कारण शुद्ध रूप से शारीरिक था, इतनी समझ मुझमें तब भी थी (बाकी आज भी नहीं)। पिता अपने निजी, क्षणिक सुख के लिये शादी करना चाह रहे थे। मुझे देखभाल की ऐसी कोई जरूरत नहीं थी और खेती-बाड़ी ऐसी माशाअल्लाह कि आम बो कर भी बबूल न उगे। पिता ने बड़ा ही अराजक किस्म का जीवन जिया था। अपनी जवानी का लगभग तीन चौथाई हिस्सा हरिद्वार, मुरादाबाद, बिजनौर जैसी जगहों पर किसी छुट्टा साँड सा बिताया था। बाद में उनके जीजा जी ने पकड़-धकड़ कर उनकी शादी करवायी थी। जहाँ तक मैं समझता हूँ, उनकी शादी उस समय के हिसाब से काफी देर में हुई थी। पिता मुरादाबाद में किसी भाँतू कॉलोनी का जिक्र अक्सर किया करते थे कि गुरू हम वहाँ शराब पीने जाया करते थे….। बाद में मेरे एक दोस्त ने भाँतू कॉलोनी के बारे में जो मुझे मोटा-मोटा बताया, उसे मैं यहाँ जानबूझकर नहीं कह रहा। क्योंकि हो सकता है कि बात गलत हो और भाँतू कॉलोनी का कोई शरीफजादा मुझ पर मुकदमा लेकर चढ़ बैठे। पिता कहते थे कि हमने अपना ट्रांस्फर बिजनौर या मुरादाबाद से देहरादून इसलिये करवाया ताकि हम जौनसार की ब्यूटी देख सकें। देखी या नहीं, वही जानें।

(जारी)

3 comments:

एक बोर आदमी का रोजनामचा said...

RAna ji, aapke sansmaran aashryajank roop se baandhe rahte hain,

aapke snasmarono me jo shakshee bhaav aur sthitiyon ke prati tatasthta hai,wah aam taur pe lkhkon me durlabh hee paayee jaatee hai,
agle sansmaran ka intzaar hai

mukesh ilaahaabaadee

रोहित said...

nainitaal samaachaar ko chanda-wanda jaise bhi ban pade Shambhu ji ke vyangon ka sangrah prakashit karna hi chahiye...shambhu ji is daur ke bade vyangyakaar hain...

मुनीश ( munish ) said...

यार गान्धी जी सही कैतै थे ...आधा सच कैते थे । ख। शराब शरीर का नाश करती है । आत्मा को मैंने जजाना नहीं तो क्या कहूँ ..