Friday, February 17, 2012

बड़े भाई मजाज़ - २


(पिछली किस्त से आगे)

क्या ऐसा नहीं महसूस होता कि अलीगढ़ से बेतहाशा मोहब्बत रखने वाले शायर की रूह तड़प-तड़पकर और चीख़-चीख़कर पूछ रही है कि इस सोये हुए आलम को जगाने वाले नौजवान, तुम कब तक ख़्वाबे-ग़फ़लत में रहोगे. कब तक उस राह पर चलते रहोगे, जो तुम्हारे लिए तबाही और ज़वाल की है. होश में आ जाओ, कभी ऐसा न हो कि हालात क़ाबू से बाहर हो जायें. दुनिया आस पर क़ायम है. वक़्त इसरार भाई के ख़्वाबों की ताबीर का मुंतजि़र है.

इससे इनकार नहीं कि इसरार भाई की शख्सियत में एक हद तक सहलपसंदी थी. वे लाल झंडा लेकर जुलूसों में शिरकत के क़ायल न थे. रातों की नींद हराम करके मार्क्स और लेनिन की किताबों की वर्क़गरदानी अपना ईमान नहीं समझते थे. उन्होंने कै़पों की रिहायश और अंडरग्राउंड हो जाने की सख्तिं‍याँ नहीं उठाईं. लेकिन इससे भी इनकार नहीं कि उनके दिल में सरमायादाराना निज़ाम और उसकी ज़्यादतियों व नाइंसाफि़यों के खि़लाफ़ शदीद नफ़रत थी और इस निज़ाम को बदलने की शदीद ख़्वाहिश जो उनको बेचैन और मुज़्तरिब करती रहती थी. उनकी नज़्म इंक़िलाब व सरमायादारी में अहसासात की जो शिद्दत और सोच की जो गहराई मिलती है, वो किसी किताब की वर्क़गरदानी की देन नहीं. वे उनकी अंदरूनी कैफि़यत और इज्तिा‍राब की पुकार है-

कलेजा फुँक रहा है और ज़बां जुबान कहने से आरी है,
बताऊँ क्या तुम्हें क्या चीज़ ये सरमायादारी है.
ये वो आंधी है, जिसकी रौ मैं मुफ़लिस का नशेमन है,
ये वो बिजली है, जिसकी ज़द में हर दहक़ां का खि़रमन है.
हमेशा ख़ून पीकर हड्डियों के साथ चलती है,
ज़माना चीख़ उठता है, ये जब पहलू बदलती है.
गरजती-गूँजती ये आज भी मैदां में आती है,
मगर मदमस्त है, हर-हर क़दम पर लड़खड़ाती है.
मुबारक दोस्तो, लबरेज है अब इसका पैमाना!
उठाओ आंधियां, कमज़ोर है बुनियादे-काशाना.


यक़ीनन पैमाना लबरेज़ है. तअस्सुब का पैमाना, ख़ुदग़रज़ी का पैमाना, ज़मीरफ़रोशी का पैमाना. लेकिन उन आंधियों में ज़ोर लानेवाले नौजवान, जो इन पैमानों को उठाकर दूर फेंक दें, कहाँ हैं? दूर, शायद बहुत दूर!

मेरे इस भाई ने अपनी जिंदगी के खुशगवार दिन जिस घर में गुज़ारे, वो अब भी अलीगढ़ में मैरिस रोड पर- ‘जि़या-मंजि़ल’ के नाम से मौजूद है. काश, उसके दरो-दीवारों के पास जुबान होती और वे बता सकते कि उस घर के अंदर ‘मजाज़’ की माँ और बहनों ने उनके मुस्तक़बिल के कैसे-कैसे सुनहरे ख़्वाब देखे. बेटा ऊँचे ओहदे पर मुलाजि़म होगा, चाँद-सी बहू आयेगी, आंगन पोते-पोतियों की खिलखिलाहट से जगमगा उठेगा. किसे मालूम था कि ये ख़्वाब कभी शर्मिंद-ए-ताबीर न होंगे. ऐसे बिखरेंगे कि उनके तार भी ढूँढे से न मिलेंगे. उस वक्त इसरार भाई की हैसियत उस शम्आि की सी थी, जिस पर गर्ल्सस कॉलेज की दीवारों के पीछे मुक़ैयद हज़ारों परवाने न्यौछावर होने के लिए बेताब हों. लड़कियाँ तकिये के नीचे उनकी तस्वीर छुपाकर रखती थीं, उनके नाम की परचियाँ निकलती थीं. दीवारें गिर गयीं, पाबंदियाँ हट गयीं, परवाने दूर-ही-दूर से तमाशाई बने रहे. शम्आ कतरा-कतरा पिघलती रही, घुलती गयी, आखि़र को बुझ गयी. क्या कमी थी मेरे उस भाई में- छरहरा बदन, लंबा कद, सुतवां नाक, पतले होठ, छोटा दहन, चमकदार आँखें, सुनहरा रंग, तबीयत में कनाअतो-शराफ़त, लहज़े में ठहराव और धीमापन, गुफ़्तगू में मिठास और एक ऐसी बज़ला-संजी*, जिसकी मिसाल मुश्किल. बरताव में खुलूसो-मोहब्बत, लेकिन शायरी के साथ शराब की आदत हो और जेब ख़ाली हो… ऐसे में किस परवाने की हिम्मत थी क़रीब आकर रिफ़ाक़त का हाथ बढ़ाने की. हिम्मत की भी तो राह में उसके बहीख़्वाहों के मशविरे हाइल हुए. ग़रज़ कि दर-दर से माँ-बहनों के साथ ख़ाली ही वापस हुए और मेरे भाई की जि़दंगी तनहा ही गुज़री. औरत का एक अछूता और ख़ूबसूरत तसव्वुर उनके अशआर ही तक महदूद रहा, उनके लिए असलियत का रूप न ढाल सका-

बताऊं क्या तुझे ऐ हमनशीं किससे मोहब्बत है,
मैं जिस दुनिया में रहता हूँ, वो उस दुनिया की औरत है,
सरापा रंगो-बू है, पैकरे हुस्नो-लताफ़त है,
बहिश्त-अगोश होती हैं, गुहर अफशानियां उसकी.
मेरे चेहरे पे जब भी फि़क्र के आसार पाये हैं,
मुझे तस्कीन दी है, मेरे अंदेशे मिटाये हैं,
मेरे शाने पे सिर तक रख दिया है, गीत गाये हैं,
मेरी दुनिया बदल देती हैं खुशुलहानियां उसकी.
लबे लालीं पे लाखा है, न रुख़सारों पे ग़ाज़ा है
जबीने-नूर-अफ़शां पर न झूमर है, न टीका है,
जवानी है सुहाग उसका, तबस्सुम उसका गहना है,
नहीं आलूद-ए-जुलमत सेहर दामानियां उसकी.
कोई मेरे सिवा उसका निशां पा ही नहीं सकता,
कोई उस बारगाहे-नूर तक जा ही नहीं सकता,
कोई उसके जुनूं का ज़मजमां गा ही नहीं सकता,
छलकती हैं मेरे अशआर में जौलानियां उसकी.


उनके लिए औरत एक परी चेहरा, नाज़ुक-अंदाम महबूबा ही नहीं थी, वह ‘अख़्तर शीरानी’ की सलमा और अज़रा की तरह आसमानी ख़्वाब नहीं थी. वह इस दुनिया की एक औरत थी, जिसकी अपनी पहचान थी, अपनी शिनाख़्त थी. जिसमें सीता की निसाइयत, मरियम की मासूमियत के साथ-साथ रानी झाँसी का अज़्म और रजि़या सुलताना की दिलेरी थी, और जिसमें मर्द के शाना-बशाना चलने व जिंदगी की जद्दोजहद में शरीक होने की हिम्मत और अनथक हौसला था-

सनानें खींच ली हैं सिर-फिरे बाग़ी जवानों ने,
तू सामाने-जराहत गर उठा लेती तो अच्छा था.
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही ख़ूब है लेकिन,
तू इस आंचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था.


उनके जे़हन में औरत का यह रूप कुछ घर के उस माहौल की देन था, जिसमें उन्होंने आँख खोली. हम जैसे घरानों में हमेशा यह कहा गया कि औरत घर की मलिका है. लेकिन सच पूछिए तो उसकी यह महदूद मिल्कियत भी मर्द के इशारों की मोहताज रहती है. हर लम्हा उस ग़रीब की निगाहें शौहर के तेवर पर होती हैं. कभी कोई बात मर्जी के खि़लाफ़ न हो जाये. औरत को क्या चाहिए- ज़ेवर, कपड़ा, नौकर-चाकर, मसरूफ़ रहने के लिए बच्चे. शौहर ने ये सब कुछ मुहैया कर दिया. औरत की जि़ंदगी मुकम्मल हो गयी. बीवी को गुडि़या बनाकर सोने-मोती से सजा दिया. रेशम व कमख़्वाब पहनाकर मसनद पर बिठा दिया- इससे ज़्यादा और क्या चाहिए. यही था खाते-पीते, खुशहाल घरानों में सोच का तरीक़ा. खुशकि़स्मती से हमारे घर का माहौल जुदा था. हमारे माँ-बाप की शख्सि ‍यतें मुख़तलिफ़, लेकिन उनमें एक बुनियादी हम-आहंगी थी. हमारे बाप ख़ामोश, मरंजांमरंज कि़स्म के इंसान थे. जियो और जीने दो के क़ायल! हमारी अम्मां अनपढ़ मगर तेज़ और दुनियादारी के मसाइल से निबटने का पूरा सलीक़ा रखती थीं. ख़्वाह घर के अंदर के मसाइल हों या ज़मींदारी के पैचोख़म- इन सबसे उलझना अम्मां के सुपुर्द था. अब्बा उनकी राय क़बूल करने में कोई सुबकी महसूस नहीं करते. मियाँ तो अपनी मेहनत की कमाई उनके सुपुर्द कर देते. ऑफि़स से शाम को आकर अपनी दिलचस्पी की किताबें पढ़ते. हम लोगों से हालचाल पूछने में वक़्त गुज़ारते. बीवी स्याह-सफ़ेद की मालिक थीं और असल मानों में घर की मलिका!

(बज़ला-संजी- वि‍नोदप्रि‍यता)

(अगली किस्त में समाप्य)

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