Sunday, February 19, 2012

सोचो ... अगर संभव हो - दिनेश कुमार शुक्ल की कविता


दिनेश कुमार शुक्ल जी की कविता "बन्दर चढ़ा है पेड़ पर" इस ब्लॉग के साइडबार में स्थाई रूप से विराजमान है. आज उनकी कुछ और कवितायेँ पढ़िए -

विचार

लेकिन कैसे
निकलता है पत्थर से जल
और काँटों से फूल

और
सौ करोड़ लोगों के मौन से
कैसे पैदा होती है भाषा

शब्दों के
ढाई घर वाले गाँव में ही
बार-बार क्यों हुआ कविता का जन्म

सोचो ...
अगर संभव हो अब भी सोच पाना

साधो, खुद को साधो

साधो ! खुद को साधो
जीवन को तब खोल सकोगे
जब अपने को बाँधो
खुद को उस विचार से बाँधो सब बन्धन जो तोड़े
भूख-रोग-बेकारी से लड़ती दुनिया से जोड़े
बाँधो खुद को उस धारा से समय-धार जो मोड़े
बन प्रवाह उद्दाम बहे जड़ता के परबत तोड़े
आज बँधी है कविता इसको केवल वह खोलेगा
भूखे-प्यासे सपनों की बोली में जो बोलेगा
जा कर जो पकड़े लगाम साधे सूरज के घोड़े
लड़े न्याय के लिए बेधड़क अपना सरबस छोड़े
चले मुक्ति की राह अडिग चाहे कितने हों रोड़े
गहे सत्य का पक्ष भले अपने साथी हों थोड़े
अपना सब दे कर समाज को स्वयम् दिशायें ओढ़े
कला-शिल्प का मोह त्याग लो पियो हलाहल-प्याला
जीवन तब गह पाओगे जब भीतर जगे निराला
वह बलिदानी टेक साध कर, कवि अपने को नाधो
साधो ! खुद को साधो

घटा के रंग

नीले पीले लाल सुनहरे
गहरे-गहरे रंग
घटा में उभर रहे हैं

शायद कोई पृथ्वी
नभ के अन्तरतम में
जन्म ले रही

हो सकता है
बादल के परदों के पीछे
रंगमंच हो
किसी दूसरी ही दुनिया का

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

शोचनीय प्रश्न...

Ek ziddi dhun said...

बंदर की टिली लिली सुनने में मजा आया। कविताएं भी अच्छी लगीं।