Tuesday, February 21, 2012

माफ करना हे पिता - ९

(पिछली किस्त से आगे)


माफ करना हे पिता - ९

शंभू राणा

पाव या आधा लीटर दूध को दिन भर में चार-छः बार उबाल कर उसकी मलाई निकाली जा रही है, फिर 10-15 दिन में उससे घी बन रहा है। आने वाले को दिखाया जाता है- देखिये, हमारे हाथ का घी, मलाई से बनाते हैं हम। देखने वाला वाह करता, मेरा मन उसे तमाचा जड़ने का होता, क्योंकि वह 100 ग्राम जो घी है मैं जानता हूँ वह जैतून और बादाम के तेल से भी महंगा पड़ गया है। और उस पर तुर्रा ये कि अमूमन घी अचानक गायब हो जाता। पूछने पर पता चलता कि फलाँ को दे दिया। बेकार चीज है, खाँसी करता है।

ताश खेलना उन्हें बेहद पसंद था। उनकी नजर में यह एक महान खेल था जो कि दिमाग के लिये शंखपुष्पी और रोगने बादाम जैसी प्रचलित चीजों से ज्यादा गुणकारी था। उनके मुताबिक अगर बच्चों को अक्षर ज्ञान ताश के पत्तों के जरिये करवाया जाये तो वे जल्दी सीखेंगे और उनका दिमाग भी खुलेगा। जरा ऊँचा सुनते थे, ऐसे मौकों पर मैं चिढ़कर लुकमा देता कि वो बच्चे नौकरी रोजगार से न भी लग पाये तो जुआ खेल कर रोजी कमा ही लेंगे। सामने बैठा आदमी इस पर हँसने लगता। पिता सोचते कि वह उनकी बात पर हँस रहा है। इसलिये जोश में आकर दो-चार ऐसी बातें और कह जाते। मैंने उन्हें घंटों अकेले ताश खेलते देखा है। ताश में एक खेल होता है ‘सीप’। यह खेल उन्हें ज्यादा ही पसंद था। चाहे जितनी तबियत खराब हो, सीप का जानने वाला कोई आ जाये तो खाँसते-कराहते उठ बैठते और खेल जारी रहने तक सब दर्द तकलीफ भूल जाते। अगर दो बाजी हार जाते तो चिढ़ कर खेल बंद कर देते कि – बंद करिये हमारी तबियत ठीक नहीं। पता नहीं साला कैंसर है, न जाने क्या है। जीतने पर उनका जोश बढ़ जाता। फिर सामने वाला खिलाड़ी चाहे गणित में गोल्ड मैडलिस्ट क्यों न हो, उसे सुनना पड़ता कि गुरू आपका हिसाब बड़ा कमजोर है। कौन पत्ता फेंक दिया, कौन सा हाथ में है, इत्ता सा हिसाब नहीं रख सकते।

खिलाने पिलाने के बड़े शौकीन थे। तरह-तरह के प्रयोग खाने में अकसर होते रहते। करेले की रसेदार सब्जी मैंने उन्हीं के हाथ बनी खायी। सब्जी परोसते हुए उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि असल में करेला ऐसे नहीं बनता। इसे बारीक काट कर तवे में सूखा बनाया जाता है। जरा भी कड़वा नहीं होता। एक बार उन्होंने मेरे कुछ दोस्तों को बुलवा भेजा। आइये गुरू देखिये आज हमने आपके लिये क्या बनाया है ! उस दिन बिच्छू घास की सब्जी बनी थी। शराब मैंने पहली बार उन्हीं के साथ चखी। जब कभी पास में पैसे हों, मूड हो तो कहते वाइन लेगा, है मूड ? आज साली ठंड भी है यार। मैं चुपचाप हाथ पसार देता और जाकर पव्वा ले आता। दोनों बाप बेटे हमप्याला हम निवाला होते, कुल्ला करके सो जाते।

आखिरी दो-तीन सालों में उनका दम बेहद फूलने लगा था इसलिये धूम्रपान छोड़ कर सुर्ती फटकने लगे थे। अब उनकी नजर में सुर्ती भी एक महान चीज थी। एक बार उन्होंने मेरे एक दोस्त को सुर्ती पेश की। दोस्त ने कहा मुझे आदत नहीं है, चूने से मुँह फट जायेगा। पिता ने उसे समझाया- गुरू शादी से पहले लड़कियाँ भी इसी तरह डरती हैं…..बाद में सब ठीक हो जाता है। आपको भी आदत पड़ जायेगी। खाया कीजिये, बड़ी महान चीज है, दिमाग तेज करती है।

कई बार वो ऐसी बातें सिर्फ कहने के लिये कह जाते कि जिसकी निरर्थकता का उन्हें खुद भी अहसास होता। मसलन, गुरू कुत्ता बड़ा महान जीव होता है। उसके धार्मिक खयालात बहुत ऊँचे होते हैं। उसे अगर रास्ते में दूसरे कुत्ते काट खाने को न आयें तो वह रातोंरात हरिद्वार जाकर नहा आये। मेरा ऐतराज था कि जो कुत्ते उसका रास्ता रोकने को बैठे रहते हैं वो खुद क्यों नहीं उससे पहले हरिद्वार चले जाते ? पिता बात बदल देते या चिढ़ जाते।

किसी को अंग्रेजी शराब पीता देखते तो कहते- ये साली बड़ी बेकार चीज है, ठर्रा बड़ी महान चीज है। ठर्रे वाले को राय होती कि ये कोई अच्छी चीज थोड़ा है, आँतें गला देती है। कम लो, अच्छी चीज लो, इंगलिश पिया करो। इसी तरह उनका दिन चाय पीने और चाय की बुराइयाँ गिनवाने में बीतता।

(जारी. अगली किस्त में समाप्त.)

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