Tuesday, February 21, 2012

अश्लीलता के प्रश्न पर एक विचार


अश्लीलता के प्रश्न पर एक विचार

विस्वावा शिम्बोर्स्का

सोचने से ज़्यादा अनैतिक कुछ नहीं होता
इस तरह की आवारागर्दी हर जगह पसर जाती है
जिस तरह हवा की उड़ाईं झाडियाँ
डेज़ी के फूलों के लिए तय की गयी ज़मीन पर फैलती है.

सोचने वालों के लिए कुछ भी पवित्र नहीं होता.
चीज़ों को उद्दंडता के साथ नाम ले कर पुकारना,
काम और वासना से प्रभावित व्याख्याएं-समीक्षाएँ,
नंगी हकीकत की तरफ पागलों की तरह चपलता के साथ भागना,
संवेदनशील विषयों को गंदी मंशा के साथ छेड़ना,
गर्मी में बहस करना - उनके कानों के लिए यह संगीत होता है.

दिन के उजाले में या रात के खोल के नीचे
वे वृत्त, त्रिकोण और जोड़े बनाया करते हैं .
जोड़ीदार की उम्र या लिंग मायने नहीं रखते.
उनकी आँखें दमकती हैं, उनके गालों पर लाली है.
दोस्त ले जाते हैं दोस्तों को गलत राहों पर.
भ्रष्ट पुत्रियां भ्रष्ट करती हैं अपने पिताओं को.
एक भाई अपनी छोटी बहन की दलाली करता है.

चिकनी पत्रिकाओं में पाए जाने वाले गुलाबी नितंबों के बदले
वे प्राथमिकता देते हैं
ज्ञान के प्रतिबंधित पेड़ के फलों को -
वह सारा सीधा-सादा कूड़ा कचरा.
उन्हें बिना चित्रों वाली किताबों में स्वाद मिलता है.
उनमें जो भी भिन्नता होती है वह कुछ खास वाक्यांशों में पाई जाती है
जिन्हें रेखांकित किया गया होता है
किसी क्रेयौन से.

चौंका देने वाली होती हैं वे मुद्राएं
वह बिना जांची-परखी सादगी जिस के साथ
एक दिमाग दूसरे के भीतर बीज रोपने की योजना बनाता है!
खुद 'कामसूत्र' को ऐसी मुद्राओं के बारे में कुछ नहीं मालूम.

इनके इन प्रयासों के दौरान उबलती हुई एकमात्र चीज़ चाय होती है
लोग कुर्सियों पर बैठे होते हैं और अपने होंठ हिलाते हैं
हर कोई अपनी टांग पर टांग रखता है
ताकि एक पैर फर्श पर टिका रहे
और दूसरा लटका हो हवा में.
बस कभी कभार कोई खड़ा होता है
और खिडकी से लगकर
पर्दों के बीच की दरार से
बाहर गली में डालता है छिपी हुई निगाह.

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