Sunday, February 26, 2012

चीज़ें आख़िर ख़ुद को उठा तो नहीं सकतीं


अन्त और आरम्भ

विस्वावा शिम्बोर्स्का

हर युद्ध के बाद
किसी न किसी ने चीज़ों को तरतीबवार लगाना होता है.
चीज़ें आख़िर
ख़ुद को उठा तो नहीं सकतीं.

किसी न किसी ने
मलबे को किनारे लगाना होता है
ताकि लाशों से भरी गाड़ियों के लिए
रास्ता बन सके.

किसी न किसी ने गुज़रना ही होगा
गंदगी और राख़,
सोफ़ों के स्प्रिंग,
कांच के टुकड़ों
और ख़ून सने चीथड़ों से हो कर.

किसी न किसी ने लादना होंगे खंभे
दीवार खड़ी करने के वास्ते
किसी ने साफ़ करना होगा खिड़की को
और चौखट में जमाना होगा दरवाज़ों को.

न कोई ध्वनियां, न फ़ोटो खिंचाने के मौके
और यह करने में सालों लग जाने होते हैं
सारे कैमरे जा चुके
दूसरे युद्धों की तरफ़.

पुलों को दोबारा बनाया जाना है
रेलवे स्टेशनों को भी.
आस्तीनें मोड़ी जाएंगी
तार-तार हो जाने तलक.

हाथ में झाड़ू थामे एक कोई
अब भी याद करने लगता है कि यह कैसा था.
एक कोई सुनता है, हिलाता हुआ
अपनी खोपड़ी, जो फूटने से बच गई.
लेकिन आसपास कोलाहल मचा रहे लोगों को
यह सब
तनिक उबाऊ लगेगा.

समय समय पर किसी एक ने
खोद निकालना होगा एक ज़ंग-लगा तर्क
किसी झाड़ी के नीचे से
और उछाल फेंकना होगा उसे मलबे की तरफ़.

उन्होंने
जो इस को तफ़सील से जानते हैं,
रास्ता बनाना होगा उनके लिए
जिन्हें बहुत कम मालूम है.
या उससे भी कम.
और अन्ततः कुछ नहीं से भी कुछ कम.

किसी न किसी को लेटना होगा यहां
घास पर
जो ढंके हुए है
कारणों और परिणामों को
मक्के के पत्ते से छांटा गया तिनका दांतों में दबाए
किसी मूर्ख की तरह बादलों को ताकते हुए.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

चीजें न सही, आदमी ही स्वयं को उठा लें...