Saturday, February 25, 2012

इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों से भी पहचान में आया

कुमार अम्बुज हमारे समय के सबसे महत्वपूर्ण और ज़रूरी कवियों में से हैं. उन के नवीनतम कविता-संग्रह ‘अमीरी रेखा’ से आपको कुछेक पसंदीदा कवितायेँ पढ़वाता हूँ सिलसिलेवार. आज इस क्रम को चालू करते हुए किताब से पहली कविता –

 


यहाँ तक आते हुए

जैसे एक दोपहर की चमक घास कपास नमक
मेरे पास अभी भी हैं इतनी नन्ही और नाज़ुक चीज़ें
जिन्हें न तो युद्ध के ज़रिये बचा सकता हूँ
और न ही शास्त्रार्थ से
शायद उन्हें ज़िद से बचाया जा सकता है या फिर आँसुओं से
छोटी-सी आज़ादी के लिए यही एक प्रस्तावना है
लेकिन सिद्ध करने के लिए मेरे पास कुछ नहीं
न ही कोई ऐसी जगह जहाँ लगाई जा सके पताका
मेरे पास केवल मेरा यह जीवन है जो जहां है जैसा है वैसा है

मैं एक अयाचित परछाईं होने के स्वप्न की
स्वप्न वह जीवन जिसे मैं जी नहीं पाया
और इस असफलता का दुःख यहीं छोड़ते हुए
एक और सपने के साथ बढ़ना चाहता हूँ आगे
जैसे मैं एक लहर हूँ, एक पत्ता और हवा की आवाज़ 
शब्दों की नमी कहती है, बारिश हो रही है पास में कहीँ

परिजनों का जीवन बचाते हुए एक दिन मेरे गले में मेरे संवाद नहीं थे
मेरी क्रियाओं में शामिल नहीं थी मेरी इच्छाएँ
और फिर इस बात ने भी रास्तों को दुर्गम बनाया
कि जिन्हें करता था प्यार उनके विचारों का नहीं कर पाया सम्मान
फिर भी यहाँ तक चले आने में
 सिर्फ मेरे ही क़दम शामिल नहीं हुए, धन्यवाद
 कि पास में ही कई लोग चलते रहे मेरी भाषा बोलते
 अँधेरे में भरते हुए आवाजों का प्रकाश

 कद्दू की बेल,कत्थई मैदान, अमावस की रात
 चींटी, एक सिसकी, एक शब्द
 और एक बच्चे ने मुझे बार-बार अपना बनाया
 इन्हीं सबके बीच मांगता रहा कुल तीन चीज़ें –
 पीने का पानी, आजादी और न्याय

 हालांकि कई कोने कई जगहें ऐसी भी रहीं
 जहां नहीं पहुंच सके मेरी कोशिशों के हाथ
 लेकिन समुद्र की आवाज़ मुझ तक पहुंचती रही
 करोड़ों मील दूर से चलकर आती रही सूर्य की किरण 
मैंने देखा एक स्त्री ने अपने तंग दिनों में एक जन को
 कहीं और नहीं पहले अपनी आत्मा में
 और फिर अपने ही गर्भ में जगह दी
 इन बातों ने मुझे बहुत आभारी बनाया
 और जीवन जीने का सलीका सिखाया

 यह ठीक है कि कई चीज़ों को मैं उ
तनी देर ठिठक कर नहीं देख सका
 जितनी देर के लिए वे एक मनुष्य से आशा करती थीं
 कई अवसरों को मैंने खो दिया
 मैं उम्मीद में गुनगुनाता आदमी था धनुर्धारी नहीं
 मेरे पास जीवन एक ही था और वह भी गलतियों
 चूकों और नाकामियों से भरा
 लेकिन उसी जीवन के भीतर से
 आती थीं कुछ करते रहने की आवाजें भी
 कितना काम करना था कह नहीँ सकता कितना कर पाया
 इतना तो ज़रूर ही हुआ कि मैं अपनी गलतियों से भी पहचान में आया.

1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

जितना सीख पाया हूँ, बहुत कुछ अपनी गलतियों का ऋणी हूँ..