Friday, February 3, 2012
कई दफे तो इल्लियां तक चकमा दे जाती हैं तितलियाँ बन कर
शिम्बोर्स्का को श्रद्धांजलि के तौर पर आशुतोष कुमार का किया उनकी एक कविता का अनुवाद प्रस्तुत है -
मृत्य पर , बिना अतिशयोक्ति
(अनुवाद - आशुतोष कुमार )
झेल नहीं सकती एक कहकहा
ढूंढ नहीं सकती कोई तारा
बुनाई , खनाई , खेती का
इसे कुछ पता नहीं
जहाज बनाने या केक पकाने
का तो सवाल ही नहीं
लेकिन कहना न होगा कि
कल की हमारी सारी तैयारियों पर
आख़िरी मुहर उसी की होती है
इसे तो कुछ उन कामों का भी शऊर नहीं
जो इसी के बिजनेस का हिस्सा है
जैसे कब्र खोदना
कफ़न बनाना और
अपने तशरीफ लाने बाद की साफ़ सफाई
जूनून में
खून भी करती है हबड़ तबड़ में
ढब नहीं, कोई ढंग नहीं ,
जैसे हम में से हर एक
पहिलौठा शिकार हो उस का
जरूर, कई निशाने अचूक होते हैं
लेकिन चूक भी जाते हैं अनगिनत
देखिये देखिये वे टेक- रीटेक
खम्भे नोचना
कई दफे तो
मक्खी तक उडाये नहीं उड़ती
इल्लियां तक चकमा दे जाती हैं
तितलियाँ बन कर
देखिये ये तमाम बिखरी हुयी घुन्डियाँ ,
फलियाँ , स्पर्शक , मछलियों के पखुड़े, खाइयां , शादियों के मौर , ऊन के रोयें ...
आधे अधूरे मन से किये गए
नाकाम कामों के निशान
हम भी आखिर कितनी मदद कर पाए हैं
अपने युद्द्धों और फौजी कब्जों इत्यादि से
नन्ही धडकनें ज़िंदा रहती हैं अण्डों में
बड़ी होती रहती हैं
बच्चों की हड्डियां
बीज कड़ी मेहनत करते हैं
और अंकुरित हो जाते हैं
जबकि जब तब गिर पड़ते हैं
विराट वृक्ष भी
कौन कहता है
मृत्यु सर्वशक्तिमान है
कहने वाला खुद एक ज़िंदा सबूत है
कि यह कितनी बेफालतू बात है
कोई जीवन ऐसा नहीं
जो अमर न हो सके
एक पल के लिए चाहे दो पल के लिए
मृत्यु
को आते हुए
हमेशा उसी पल दो पल की देर हो जाती है
व्यर्थ खटखटाती है
वह अदीठ दरवाजा
जितनी दूर आप चले आये है
वहाँ से वापसी मुमकिन नहीं
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1 comment:
कौन वहाँ से लौट सका है...श्रद्धांजलि..
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