Saturday, February 18, 2012
बड़े भाई मजाज़ - ३
(पिछली किस्त से आगे)
बाहर भी हवा का रुख़ बदल रहा था. औरत की शख्सियत अंगड़ाई ले रही थी. अलीगढ़ में भी कुछ ऐसी शख्सिदयतें उभर रही थीं, जिनका नाम अदबी, सियासी व समाजी महाज़ पर नुमायां था, मसलन रशीदा आपा और इस्मत आपा.
इसरार भाई ने एम.ए. में दाखि़ला लिया ही था या शायद प्रीवियस कर चुके थे कि ऑल इंडिया रेडियो में आवाज़ की सब-एडीटरी निकली और यह जगह उनको मिल गयी. सोचा गया, आगे ऐसा हस्बे मंशा और हस्बे मज़ाक़ मौक़ा मिले न मिले. तालीम छोड़ी और दिल्ली सिधारे. अलीगढ़ के मुतरिब को दिल्ली का शराबी बनना था. कुछ ही दिनों बाद यह नौकरी रेडियो की अंदरूनी सियासत का शिकार हुई और यह कहते हुए वह दिल्ली से रुख़सत हुए-
रुख़सत ऐ दिल्ली तेरी महफि़ल से अब जाता हूँ,
नौहागर जाता हूँ मैं, नाला-बलब जाता हूँ मैं.
उस वक़्त यह अज़्म था-
फिर तेरी बज़्म में लौटकर आऊंगा मैं,
आऊंगा मैं और बअंदाजे़ दिगर आऊंगा मैं.
दिल्ली कई दफ़ा वापस हुए. हारडिंग लाइब्रेरी में कुछ दिन काम भी किया लेकिन अंदाज़े-दिगर, सोज़ में डूबे हुए साज़ का-सा था, जिसके तार संभाले न संभल रहे थे और नश्तर ज़हरआगीं बनकर रगे-जां में चुभ रहे थे. दोस्त कि़स्मत आज़माने के लिए बंबई ले गये, लेकिन उस रिंद को बंबई की फि़ल्मी दुनिया क्योंकर रास आती. कुछ ही दिनों बाद वापस हुए. दिल्ली के क़याम से इश्क़ की बिसात पर ऐसी मात खायी कि पूछिये नहीं. ऐसी चोट, जिसका मदावा किसी के बस में न था. जिस मोहरे की तरफ़ हाथ बढ़ाया, वो पहले ही किसी और के क़ब्ज़े में जा चुका था. दूर से मुस्कराहटों से नवाज़ सकता था. शायर के अशआर पर ‘वाह’ में शरीक हो सकता था. उसके दिल की आहों में शिरकत, यह मुमकिन न था. वे ख़ुद भी अपनी उस पाकीज़ा मोहब्बत के अंजाम से वाकि़फ़ थे-
वो मुझको चाहती है और मुझ तक आ नहीं सकती,
मैं उसको पूजता हूँ और उसको पा नहीं सकता.
ये मजबूरी-सी-मजबूरी, ये लाचारी-सी-लाचारी,
कि उसके गीत भी जी भरके अब मैं गा नहीं सकता.
ज़ुबां पर बेख़ुदी में नाम उसका आ ही जाता है,
अगर पूछे कोई, ये कौन है बतला नहीं सकता.
हदें वो खींच रखी हैं, हरम के पासबानों ने,
कि बिन मुजरिम बने, पैग़ाम भी पहुंचा नहीं सकता.
आहों पर पाबंदी और नग़मों पर बंदिशें. अपनी महरूमी की घुटन, महबूबा की बदनामी का अंदेशा- अंदर ही अंदर आग सुलगती रही. धुएं में दम घुटता रहा. शराबनोशी की आदत बढ़ती गयी. भला यह आग शराब के छींटों से बुझनेवाली थी, वक़्ती तस्कीन भले हो जाती हो. क़रीब से देखनेवाले देख रहे थे कि उनका पूरा वजूद सुलग रहा है और सुलगते-सुलगते आखि़र को १९४५ ई. में यह आतिशफि़शां फूट ही निकला. यह नर्वस ब्रेक-डाउन का पहला हमला था. इलाज मुआलिजा हुआ. चार-छह महीने बाद बड़ी बहन के साथ नैनीताल भेज दिये गये और ख़ुदा-ख़ुदा करके तंदुरुस्त व तवाना होकर वापस हुए और फिर नार्मल जिंदगी गुज़ारने के लिए इधर-उधर हाथ-पैर मारने लगे. कुछ दिन बंबई इनफ़ारमेशन डिपार्टमेंट में काम भी किया. वहाँ भी गाड़ी न खिंच पायी. बाप के मश्विरे के सामने सिर झुकाकर लखनऊ में एल.एल.बी. में दाखि़ला भी लिया और साथ ही साथ ‘नये अदब’ और ‘परचम’ की सदारत भी करते रहे. फिर दिल्ली वापस गये और हारडिंग लाइब्रेरी में काम संभाला. सफि़या आपा की क़रीबी दोस्तों में से एक को दिलचस्पी और हमदर्दी पैदा हुई. सफि़या आपा की तहरीक पर, उन्होंने इसरार भाई को अपनाने पर हामी भर ली. शरीफ़-सी ख़ातून, शक्ल से न हसीनों में, न बदसूरतों में. पढ़ी-लिखी बरसरे रोज़़गार. लेकिन तबीयत घरेलू किस्म की. बहन के तवस्सुत से चंद मुलाक़ातें हुई थीं. दिल के सौदे का तो सवाल न था. वह तो पहले ही हार चुके थे. सोचा, बुज़ुर्गों के मश्विरे पर ही अमल करके कुछ सुकून मिल सके. सिपुर्दगी में निजात हो और जिंदगी के मुंतजि़र तार यकजा हो सकें. बहरहाल, इस रिश्ते पर राज़ी हुए और बर दिखव्वे के लिए निकले, लाख सिर पर तिरछी टोपी रखकर और इस्तरीशुदा शेरवानी पहनकर जाजि़बे-नज़र बनने की कोशिश की, लेकिन लड़की के सरपरस्त हज़ार-डेढ़ हज़ार कमानेवाले कॉलेज के प्रिंसिपल के लिए दो सौ कमानेवाले असिस्टेंट लाइब्रेरियन में क्या कशिश होती. टरख़ा दे गये. औरत को आंचल का परचम बनाने का पयाम बहुत भाया था. पर उस पर अमल बड़े दिल-गुरदे का काम था. शायर ने दिल की आवाज़ पर क़दम बढ़ाये और मुँह के बल गिर गया. इस दफ़ा अक़्ल का दामन पकड़ा. रुक-रुककर, थम-थमकर, एहतियात के साथ अपना हाथ बढ़ाया, फिर भी ठोकर खा गया. और खिसियाकर रो पड़ा. शायरों के नाम की फ़ेहरिस्त तैयार करते. ‘ग़ालिब’ व ‘इक़बाल’ के नाम के बाद अपना नाम लिखकर शिजरा ख़त्म करते. डॉक्टरों की कोशिश और जांतोड़ तीमारदारी और दिलदारी से किसी तरह क़ाबू में आ ही गये. लेकिन जिंदगी का ढर्रा तो वही रहा- बेकारी और तनहाई. अपनों की नसीहत, गै़रों की फ़ज़ीहत… जिंदगी में तलखि़याँ बढ़ती रहीं और वो उन तलखि़यों को ग़र्के-मयेनाब करते रहे.
लोगों ने कहा मजाज़ का इलाज शादी है, लेकिन इलाज होता तो क्योंकर? मजाज़ की जेबें तो ख़ाली थीं. वही मजाज़ जो मैदान में आरज़ुओं का मरकज़ था, कूड़ा-करकट बनकर रह गया. जहाँ भी माँ-बहनें हाथ फैलातीं, ख़ाली हाथ वापस कर दी जातीं. एक तरफ़ मुँहतोड़ जवाब का डर, दूसरी तरफ़ जग्गन भैया की रज़ामंदी हासिल करने का मसला, वे भी आखि़र को हिम्मत हार गयीं. जिंसी भूख ख़्वाह कितनी ही शदीद क्यों न रही हो, औरत की परख उनमें ख़त्म न हुई थी. माँ के एक भतीजे या तो अपने खुलूसो यगानत की बिना पर या फिर उनकी क़द्र पहचानकर अपनी बेटी का रिश्ता करने पर राज़ी हो गये. जग्गन भैया काफ़ी अरसे तक टालते रहे, अपने दिल को टटोलते रहे और माँ से कह ही दिया, ‘आप इस लड़की की क्यों किस्मत फोड़ रही हैं, मेरे लिए इसमें कोई कशिश नहीं.’ एक दफ़ा सन् 38 ई. में एक तेज़-तर्रार, आज़ाद-ख़याल कॉलेज की लड़की के लिए, जो उनका दामन थामने के लिए मुसिर थी, सफि़या आपा को जवाब दिया था, ‘सफि़या, मुझे काग़ज़ी फूलों से दिलचस्पी नहीं.’ नफ़्से-मज़मून दोनों जवाबों का एक है. लेकिन जिन हालात में जवाब दिये गये, उनमें ज़मीनो-आसमान का फ़र्क़ था. उनका पहला जवाब उस ज़माने का था, जब उनके सामने मक़बूलियत और शोहरत का दामन फैला हुआ था. उसे गुरूर और तकब्बुर की दलील समझा जा सकता है. दूसरा जवाब उस वक़्त का है, जब वह दर-दर से ठुकराये जा चुके थे, जिंसी तिशनगी के शिकार थे. उस हालत में भी, उन्हें अपना औरत का तसव्वुर ही अज़ीज़ रहा. उस जवाब में ईसार है, शऊर है, किरदार की बुलंदी है. ग़रज़ कि मेरे भाई को एक साथी न मिल सका, जो उनको सहारा दे सकता. उन्हें रिफ़ाक़त नसीब हुई जो शराब की अंधेरी रात के मुसाफि़र की मंजिल ख़ुदफ़रामोशी के धुंधलके में ओझल-सी हो गयी. उनके चेहरे की ताबानी पर धीरे-धीरे बेबसी का परदा गहरा होता गया. आँखों की ताबानी की जगह अथाह गहराई ने ले ली. जिसमें उम्मीदें, आरज़ूएं दफ़्न हों और जहाँ से यासो-महरूमी झाँक रही हो. ग़रज़ कि सहम-सुकड़कर, बक़ौल इस्मत आपा के, महज़ निखट्टू रह गये. निखट्टू भी ऐसे जो शराबी हों, शराबी भी ऐसा जिसको पीते वक़्त इसका भी होश न रहता हो कि कितना पी रहा है और किसकी पी रहा है. अक्सर जी चाहा कि उनसे मिन्नत करूँ, इल्तजा करूँ कि वह अपने को संभाल लें. लेकिन जब भी इरादा किया, अपने को बेबस महसूस किया. जिस वक़्त माँ उनको समझातीं, घर की बिगड़ी हालत का अहसास दिलातीं, अपनी मोहब्बत और बाप की इज़्ज़त का वास्ता देतीं, उनके चेहरे के तास्सुरात बताते कि माँ का हर आँसू उनके हस्सास दिल पर नश्तर की तरह लग रहा है. फिर भी, जाने किस उलझावे में थे कि निकल न पाते. ऐसा लगता, जैसे अदमो-वजूद सब बराबर हो. हम में होते हुए भी हमारी पहुँच से बाहर हों. पता ही न चला कि दिल की गहराइयों में कैसे-कैसे ज़ख़्म पोशीदा हैं.
कभी भी तो किसी की शिकायत या शिकवा करते न सुना. तलखि़याँ सहते रहे और मिज़ाज को तलख़ी से महफूज़ रखा. अंदर ही अंदर सहने का नतीजा यह हुआ कि तीसरा और आखि़री नर्वस ब्रेकडाउन का दौरा पड़ा. ऐसा शदीद, ऐसी इज़तराबी कैफ़ीयत कि ख़ुदा की पनाह. दिल्ली के गली-कूचों में ख़ाक छानते फिरते थे. घरवाले हर लम्हा इस ख़बर के मुन्तजि़र थे कि मजाज़ मोटर से कुचल गया. ठिठुरा हुआ सड़क पर पाया गया. अंजाम यही होना था, पर कुछ ठहरकर और महबूबा की गलियों से दूर. जोश साहब का मश्विरा हुआ कि मजाज़ को आगरा पहुँचा दिया जाये. मजाज़ के घरवालों के हलक से यह न उतरा. माँ-बाप और बहनों ने अपनी बचत की आखि़री पाई तक उनके इलाज पर लगा दी. वह सेहतमंद होकर राँची से वापस हुए. चंद महीनों के अंदर ही सफि़या आपा का इंतक़ाल हो गया. ऐसा लगता था कि उन्होंने अपनी पूरी क़ूवत अपने को समेटने में लगा दी. जैसे उनमें जि़म्मेदारियों का अहसास चमक उठा हो. जादू, अवेस की दिलदारी में पूरी तरह से लग गये. रात को नींद भर सोते. दिन में बच्चों के साथ हँसते-खेलते.
शराब से क़तई परहेज़. ऐसा लगता था कि जादू, अवेस, अश्शू, उरफ़ी के बचपन में अपना बचपन दोहराया जा रहा हो और मेरा भाई बीस-पच्चीस साल पहलेवाला जगन भैया बन गया हो. बुनियादें खोखली हो चुकी थीं. जिंदगी का नया ढाँचा क्योंकर खड़ा रहता. काश उस वक़्त किसी ने उनका हाथ थाम लिया होता. पर ऐसा क्यों होता. उनकी मौत को उनकी जि़ंदगी को नुकतए-उरूज बनता. उन्हें तो यह दिखाना था कि जीते जी मरना किसे कहते हैं और मरकर भी कैसे जिया जा सकता है. नादान अदबनवाज़ों ने फिर उन्हें शराब की तरफ़ रज़ूअ किया. एक दफ़ा क़दम बढ़ा तो बढ़ता ही चला गया. किस तरह गिरते-संभलते, जिंसे-मोहब्बत तलबगार इंसान और फि़तना अक़्ल से बेज़ार शायर की जिंदगी गुज़रती रही. जैसे अंदर कोई चीज टूटकर पारा-पारा हो गयी हो, जिसे समेटने की कोशिश करते हों, लेकिन हार जाते हों. आखि़र जाड़े की एक कड़कड़ाती रात दिमाग की नसें फट ही गयीं और सड़क पर बेहोशो-हवास गिर गये. किसी अनजाने राहगीर ने बलरामपुर अस्पताल पहुँचाया. सुबह घरवालों और दोस्तों को ख़बर हुई. होश में लाने की हर मुमकिन कोशिशें हुईं. लेकिन सब रायगां गयीं. और ५ दिसंबर, १९५५ ई. को मेरा अज़ीम भाई, जिस तरह बेशिकवा-शिकायत जिंदगी गुज़ार रहा था, उसी तरह ख़ामोशी से इस दुनिया से रुख़सत हो गया. अलबत्ता, उसके लबों पर आज़ुर्दा-सी मानीखे़ज़ मुस्कराहट थी.
(समाप्त)
Labels:
नया पथ,
मजाज़,
संस्मरण,
हमीदा सालिम
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
मजाज पर यह लंबा संस्मरण ब्लॉग पर लाना मेहनत का काम था। इसे पहले पत्रिका में पढ़ चुका था पर फिर पढ़ना भी इतना ही प्यारा अनुभव रहा। होंगे पर अब वैसे लोग, वैसा जमाना क्यूंकर होगा, अशोक भाई?
Post a Comment