Thursday, February 2, 2012

निन्यानबे पैसे सिर्फ बाटा वालों के लिए अब भी एक कीमत है

किसी धर्मस्थल के
विवाद में
तीन हज़ार लोग बम से
दो हज़ार गोली से
एक हज़ार चाकू से
और पाँच सौ
जलाकर मार डाले जाते हैं

चार सौ महिलाओं की
इज्ज़त लूटी जाती है
और तीन सौ शिशुओं को
बलि का बकरा बनाया जाता है

धर्म में
सहिष्णुता का
प्रतिशत ज्ञात कीजिए


यह मेरा पहला परिचय था अष्टभुजा शुक्ल की कविता से. कोई बीस साल पहले जनमत के एक अंक में इन पंक्तियों को पढ़ना थर्रा देने वाला अनुभव था. तब से लगातार खोज-खोज कर उन्हें पढ़ने का शौक़ बना हुआ है.

अपनी एक कविता 'साफ़-साफ़' में वे लिखते हैं -

जो रोशनी में खड़े होते हैं वे
अंधेरे में खड़े लोगों को
तो देख भी नहीं सकते

लेकिन अंधेरे के खड़े लोग
रोशनी में खड़े लोगों को
देखते रहते हैं साफ़-साफ़


आज उनकी एक प्रिय कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ-



सतयुग, कविता और एक रुपया

अष्टभुजा शुक्ल


जैसे कि एक रूपये माने चूतियापा यानि कि कुछ भी नहीं
वैसे ही एक रूपये माने बल्ले बल्ले यानि कि बहुत कुछ
और कभी कभी सब कुछ
निन्यानबे पैसे सिर्फ बाटा वालों के लिए अब भी एक कीमत है
हकीकत यह है कि एक रूपया
एक कौर या सल्फॉस की गोली से भी कम कीमत का है
एक रूपये का एक पहलू एक रूपये से भी कम है
तो दूसरा पहलू अशोक-स्तम्भ यानि कि समूचा भारत
और भारतीयता की कीमत बाटा के तलवों से भी नीचे है
उसके नीचे नंगी इच्छाएँ कफन के लिए सिसक रही हैं
आधा भारत एक रूपये से शुरू होकर सिर्फ धकधकाता है
और भिवानी की तरह सिकुड़कर एक रूपये तक सिमट जाता है
गर्मियों में इतनी ठंडी किसी कोने में रख देने की चीज है
जैसे बेइमानियाँ बहुत जतन से रखी जाती हैं
वहीं पर अब एक रूपये कबूल करने में गोल्लक मुँह बिचकाता है
और बिजली नहीं रहती तो जनरेटर से फोटो कॉपी करने वाले
एक का तीन वसूलते हैं
एक रूपये तेल का दाम बढऩे से दस मिनट लेट से निकलते हैं
लोग घर से कि इतनी तेज उडऩे लगेंगी सवारी गाडिय़ाँ
कि दुर्घटनाओं की खबरों से पटे मिलेंगे सुबह के अखबार
न एक रूपये में अगरबत्ती न नहाने धोने का सर्फ साबुन
न आत्मा की मैल छुड़ाने वाला कोई अध्यात्म
उखड़ी हुई कैची का रिपिट लगाने में भी एक रूपया नाकाफी
एक पन्ने पर एक रूपया एक रूपया लिखकर भर डालने के लिए भी
कोई एक रूपये का मेहनताना लेने के लिए तैयार नहीं होगा
बल्कि मुफ्त में वह काम करके अपमानित कर देगा
एक रूपये को जैसे इसे केन्द्र में रखकर लिखी गई
यह कविता नामक चीज जिससे पटा हुआ बाजार
ऐसी कविताएँ यदि मर जाएँ बिना किसी बीमारी के
तो दो घंटे भी ज़्यादा होंगे कुछ आलोचना को रोने के लिए
इससे सिर्फ इतना भर नुकसान होगा कि
विलुप्त हो जाएगी कवियों की नस्ल और तब खाद्यान्न का संकट
कुछ कम झेलना पड़ेगा इस महादेश की शासन व्यवस्था को
ऐसी कविताओं की एक खासियत ये आलोचनाहंता है
दूसरी यह हो सकती है कि किसी प्रकार की उम्मीद की
जुंबिश से भी ये समाज को काफी दूर रखती हैं
जैसे हमारे समय का कवि खुद को काफी दूर रखता है अपने समाज से
आने वाला समय शायद साहित्य के इतिहास को कुछ इस
तरह रेखांकित करेगा कि हमारा समय एक कविता-शून्य समय था
इसीलिए यह कविता के लिए सबसे बेचैन रहने वाले समय के रूप में
जाना जाएगा और विख्यात होगा उतना ही जितना कि
अपने तमाम अवमूल्यन के लिए कुख्यात हो चुकी है एक रूपये की मुद्रा
फिर भी अरबों की संख्या भी नहीं काट सकती एक विषम संख्या को
क्योंकि एक एक, आधारभूत विषम संख्या है
वैसे ही जब मर जाएगी एक रूपये की मुद्रा तो उसकी अन्त्येष्टि में
माचिस की एक तीली भी खर्च नहीं करनी पड़ेगी लेकिन
तबाही मचेगी वह कि रहने वाले देखेंगे तांडव
और मन ही मन मनाएंगे कि हे प्रभू, हे लोकपाल, हे पूँजीपुत्र
कि कीमतें चीजों की या कवियों की
किसी भी विधि से, अनुष्ठान से या किसी अनियम से भी
घट जाती एक रूपये तो वापस आ जाता बल्ले बल्ले
वापस आ जाती हमारी बिकी हुई कस्तूरी, केवड़ा
और जितनी भी महकने वाली चीजें, हमारी दुनिया से गायब हो चुकी हैं
वैसे ज्यादा से ज्यादा सच बोलने के इन दिनों में
झूठ क्या बोला जाय पाप बढ़ाने के लिए
क्योंकि अपराध तो वैसे ही आदतन इतना बढ़ चुका है
कि घटते घटाते कम से कम हाथी जितना बचेगा ही
इसलिए कहना पड़ता है कहकुओं को कि
एक रूपये के मर जाने से दुनिया किसी संकट में नहीं फँसेगी
क्योंकि उसके विकल्प के रूप में अब चलायी जा सकती है
हत्या, बेरोजगारी, बलात्कार और आत्महत्या में से कोई भी एक चीज़
और समाज की जगह थाना, एन.जी.ओ., कैफे साइबर, बार
या कोई राजनीतिक पार्टी इत्यादि
लेकिन उखड़ी उखड़ी बातों के झुंड से
अगर निकल आए काम की एक कोई पिद्दी-सी बात भी
तो मानना पड़ेगा कि कविता की धुकधुकी अभी चल रही है
और अगर एक रूपये कीमतें घट जाएँ किसी भी अर्थशास्त्र से
तो फिर वापस आ जाएगा सतयुग
वानर सबके कपड़े प्रेस करके आलमारियों में रख देंगे
शेर आएगा और कविता लिखते कवियों को बिना डिस्टर्ब किए
साष्टांग करके गुफा में वापस लौट जाएगा
सफाईकर्मियों को शिमला टूर पर भेजकर
राजनीति के कार्यकर्ता गलियों में झाडू लगाएँगे
पुलिस की गाड़ियां प्रेमियों को समुद्रतट पर छोड़ आएँगी
पागुर करते पशु धरती पर छोटे छोटे बताशे छानेंगे
बादल कहेंगे हे फसलों तुम्हें कितने पानी की दरकार है
और वह साला सतयुग राम नाम का जाप करने
या रामराज्य पर कविता लिखने वाले महा महाकवियों की वाणी से नहीं
बल्कि चीज़ों की कीमतें एक रूपये घट जाने से आयेगा ...

2 comments:

iqbal abhimanyu said...

क्या बात है ! आजकल कबाड़ख़ाने पर बहुत उम्दा माल आ रहा है. कविताओं और कवियों वाला अंश खासकर टीसता है.. और इस कविता का टीसना ही इसकी कीमत 'बढ़ा' देता है.

चंदन कुमार मिश्र said...

पहले तो यह

जो रोशनी में खड़े होते हैं वे
अंधेरे में खड़े लोगों को
तो देख भी नहीं सकते

लेकिन अंधेरे के खड़े लोग
रोशनी में खड़े लोगों को
देखते रहते हैं साफ़-साफ़
... ... ... ही


फिर... ...

जैसे हमारे समय का कवि खुद को काफी दूर रखता है अपने समाज से
आने वाला समय शायद साहित्य के इतिहास को कुछ इस
तरह रेखांकित करेगा कि हमारा समय एक कविता-शून्य समय था
इसीलिए यह कविता के लिए सबसे बेचैन रहने वाले समय के रूप में
जाना जाएगा और विख्यात होगा उतना ही जितना कि
अपने तमाम अवमूल्यन के लिए कुख्यात हो चुकी है एक रूपये की मुद्रा

... ... ... ... ... ... ... ... ... ... रोशनी और अंधकार वाली कविता बहुत आसान, सहज है... ... लेकिन बहुत अलग!
कुछ ही सेकंड पहले · पसंद