अगर आपने आज गूगल सर्च खोला होगा तो उसके लोगो में तीव्र गतिमान नीली, लाल, पीली और हरी विद्युतीय लहरें देखकर थोडा हैरत की होगी. जर्मनी के वैज्ञानिक हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज की १५५वीं जयन्ती मनाने का गूगल का यह तरीका मुझे तो बहुत पसंद आया. आज ही के दिन यानी २२ फ़रवरी १८५७ को जन्मे हर्ट्ज ने रेडियो तरंगों के प्रसारण के क्षेत्र में क्रांतिकारी खोजें की थीं कालान्तर में इन्हीं खोजों ने बीसवीं-इक्कीसवीं शताब्दियों में रेडियो-टीवी के विस्तार और विकास की नींव डाली.
तरंगों की आवृत्ति की इकाई का नामकरण भी इन्हीं जनाब के नाम पर किया गया यानी एक हर्ट्ज का मतलब हुआ एक आवृत्ति प्रति सेकेण्ड.
हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज कुल छत्तीस साल की जिंदगी जी सके. १ जनवरी १८९४ को ब्लड-पौइजनिंग से उनकी मौत हुई.
क्या आप यकीन कर सकते हैं कि अपनी ईजाद को लेकर उनके मन में ज़रा भी उत्साह या ऐतबार नहीं था. अपनी खोज के बारे में उनका कहना था – “मुझे नहीं लगता मेरे द्वारा खोजी गयी बेतार तरंगों को किसी भी व्यावहारिक उपयोग में लाया जा सकेगा.”
हर्ट्ज प्रकृति के मूलभूत तत्वों को समझने की हिमायत करते थे. इंजीनियरिंग की अपनी शैक्षिक जड़ों के बाजजूद और एक इंजीनियरिंग स्कूल में तकनीकी वैद्युती पढ़ाते हुए अपनी सबसे महत्वपूर्ण खोजें करने के बावजूद हर्ट्ज विद्युतीय तरंगों की व्यावहारिक जटिलता को लेकर एक तरह से बेपरवाह रहे. बाकी वैज्ञानिकों में उनकी खोज को लेकर पर्याप्त सम्मान का भाव था और एक युवा वैज्ञानिक मारकोनी ने १८९० के दशक में ही इटैलियन इलैक्ट्रिकल जर्नल में हर्ट्ज का एक लेख पढ़ने के बाद बेतार तरंगों की मदद से संचार की सम्भावना के बारे में सोचना शुरू किया. हर्ट्ज का काम ऐसे ही प्रयासों से भौतिकविज्ञान की किताबों से बाहर आकर तकनीकी के क्षेत्र में इतनी बड़ी क्रान्ति लेकर आया जिसकी पूरी थाह अभी हमें मिलना बाकी है.
भौतिक विज्ञान के मेरे एक अध्यापक स्वर्गीय श्री अतुल कुमार पाण्डे के पास हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज की एक मोटी सी जीवनी थी, जिस में से उन्होंने एकाध बातें कभी मुझे पढकर सुनाईं थीं. गूगल सर्च का पन्ना खुलते ही हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज का नाम सामने आने पर अपने गुरुजी की याद आना स्वाभाविक था. सो यह पोस्ट उन्हीं की स्मृति को नज्र.
तरंगों की आवृत्ति की इकाई का नामकरण भी इन्हीं जनाब के नाम पर किया गया यानी एक हर्ट्ज का मतलब हुआ एक आवृत्ति प्रति सेकेण्ड.
हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज कुल छत्तीस साल की जिंदगी जी सके. १ जनवरी १८९४ को ब्लड-पौइजनिंग से उनकी मौत हुई.
क्या आप यकीन कर सकते हैं कि अपनी ईजाद को लेकर उनके मन में ज़रा भी उत्साह या ऐतबार नहीं था. अपनी खोज के बारे में उनका कहना था – “मुझे नहीं लगता मेरे द्वारा खोजी गयी बेतार तरंगों को किसी भी व्यावहारिक उपयोग में लाया जा सकेगा.”
हर्ट्ज प्रकृति के मूलभूत तत्वों को समझने की हिमायत करते थे. इंजीनियरिंग की अपनी शैक्षिक जड़ों के बाजजूद और एक इंजीनियरिंग स्कूल में तकनीकी वैद्युती पढ़ाते हुए अपनी सबसे महत्वपूर्ण खोजें करने के बावजूद हर्ट्ज विद्युतीय तरंगों की व्यावहारिक जटिलता को लेकर एक तरह से बेपरवाह रहे. बाकी वैज्ञानिकों में उनकी खोज को लेकर पर्याप्त सम्मान का भाव था और एक युवा वैज्ञानिक मारकोनी ने १८९० के दशक में ही इटैलियन इलैक्ट्रिकल जर्नल में हर्ट्ज का एक लेख पढ़ने के बाद बेतार तरंगों की मदद से संचार की सम्भावना के बारे में सोचना शुरू किया. हर्ट्ज का काम ऐसे ही प्रयासों से भौतिकविज्ञान की किताबों से बाहर आकर तकनीकी के क्षेत्र में इतनी बड़ी क्रान्ति लेकर आया जिसकी पूरी थाह अभी हमें मिलना बाकी है.
भौतिक विज्ञान के मेरे एक अध्यापक स्वर्गीय श्री अतुल कुमार पाण्डे के पास हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज की एक मोटी सी जीवनी थी, जिस में से उन्होंने एकाध बातें कभी मुझे पढकर सुनाईं थीं. गूगल सर्च का पन्ना खुलते ही हाइनरिख रूडोल्फ हर्ट्ज का नाम सामने आने पर अपने गुरुजी की याद आना स्वाभाविक था. सो यह पोस्ट उन्हीं की स्मृति को नज्र.
1 comment:
तरंगों सा बहता हमारा भी जीवन..
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