चार्ल्स डिकेन्स के विरोधाभास
चार्ल्स डिकेन्स की द्विशताब्दी के अवसर पर विख्यात आलोचक टेरी ईगलटन के एक्सक्लूसिव आलेख का हिन्दी अनुवाद.
चार्ल्स डिकेन्स, जिनकी जन्म-द्विशताब्दी इस साल मनाई जा रही है, आधुनिक ब्रिटेन के निर्माण के समय उपस्थित थे. जब उन्होंने लिखना शुरू किया था यातायात का सबसे आम साधन स्टेज-कोच हुआ करता था; उनके बाद के उपन्यासों से समय तक रेलवे का आगमन हो चुका था. शुरुआती डिकेन्स में पूंजीवादी चरित्र या तो विक्टोरियन समय के मेलोड्रामा से निकले विलेन हुआ करते थे या उदार दिल वाले पितृसत्तावादी; बाद के उपन्यासों में वे बेचेहरा ओहदेदार लोग हैं, वे एक ऐसे अज्ञात सिस्टम के हिस्से हैं जो उन पर भी उसी तरह शासन करते हैं जैसे खुद सिस्टम पर.
डिकेन्स का जन्म बायरन और नेपोलियन के युग में हुआ था, लेकिन वे ट्रेड-यूनियनों, संयुक्त स्टॉक कंपनियों और कोर्पोरेट पूंजीवाद को विकसित होते भी अपने ही जीवन में देख सके. उनका गल्प ओलिवर ट्विस्ट के वर्क-हाउस से से सघनतर होता हुआ हार्ड टाइम्स की फैक्ट्रियों और ब्लीक हाउस के शासकीय पूंजीवाद तक पहुँचता है.
डिकेन्स ने इस नव-औद्योगिक राष्ट्र का वर्णन करने भर से ज्यादा काम किया है. यह उनकी लेखन शैली में ही अंतर्निहित है. सच्चे मायनों में वे ब्रिटेन के पहले शहरी लेखक हैं. वे मनुष्यों को क्षण भर के लिए ही सही पर साफ़-साफ़ देखते हैं, जिस तरह आप का सामना किसी व्यस्त गली के चौराहे पर लोगों से होता है. उनके लेखन की लय शहरी जीवन की उत्तेजना और चिंताओं को पकड़ती है. वे चीज़ों को टुकड़ों में पकड़ते हैं न कि एक गोल में, वे एक ऐसे समाज को हमारे सामने लाते हैं जो एक सम्पूर्ण के तौर पर देखे जाने के लिहाज़ से बहुत अपारदर्शी और छिन्न-भिन्न हो चुकी है. पात्र एक दूसरे से अलग-थलग अपनी अपनी अकेली स्पेसेज में रहते हैं, और उनके बीच कोई जमे हुए रिश्ते नहीं होते.
औद्योगिक पूंजीवाद के मूर्त बना दिए गए इस अमूर्त संसार में लोग फर्नीचर की तरह अभेद्य होने का अहसास देते हैं, उनके भीतर कुछ ऐसे गुप्त रहस्य होते हैं जिन तक कोई आसानी से नहीं पहुंच सकता. हर कोई अटपटा और सनकी नजर आता है. मानवता को कोई सहमत मापदंड नहीं है, बस छिटकी हुई सनकों का एक समुच्चय है, जो या तो अशुभ होता है या मसखरेपन से भरा हुआ, ये सनकें बेतरतीब एक दूसरे से टकराती रहती हैं.
मध्य वर्ग की उर्जा
औद्योगिक पूंजीवाद की बुराइयों की निंदा करने के लिए डिकेन्स विख्यात रहे हैं, लेकिन उनका रंगमंचीय, ठसकेदार गद्य एक ऐसे मध्य वर्ग की ऊर्जा को भी प्रतिविम्बित करता है जो अब भी सफलता पर सवार है. एक महत्वाकांक्षी युवा उपन्यासकार के रूप में वे अपने आप को एक फैशनेबल शहरी की तरह देखना पसंद करते थे, जिसे लंदन के हरेक गली-कूचे का जानकार होने के तौर पर ख्याति प्राप्त थी. जेन ऑस्टेन ने ग्रामीण इंग्लैण्ड की भूमिधर एस्टेटों के बारे में लिखा, जो उनके समय में सामाजिक और आर्थिक शक्तियों के केन्द्र हुआ करते थे. इसके बरखिलाफ अपनी स्याही लगी उँगलियों के पोरों तक डिकेन्स पूरे मेट्रोपोलिटन हैं. उन्होंने जिस लन्दन का वर्णन किया है वह वकीलों, व्यापारियों, क्लर्कों और समृद्ध बूर्ज्वा का शहर है – संसार का सबसे बड़ा व्यापारिक और औपनिवेशिक केन्द्र जहाँ ब्रिटेन का सत्ताधारी समाज अब और-और ज्यादा दिखाई देने लगा था.
डिकेन्स का जन्म तमाम सामाजिक समूहों में सबसे अधिक विरोधाभासी यानी निम्न मध्यवर्ग में हुआ था. यही बात उन्नीसवीं सदी के महानतम उपन्यासकारों – ब्रोंटे बहनों, जॉर्ज इलियट और टॉमस हार्डी पर भी लागू होती है. निम्न मध्यवर्ग आमजन के दुखों को समझ पाने के लिए उनके पर्याप्त नजदीक होता है लेकिन यही वर्ग धन, पद और शिक्षा पाने की चाहत भी रखता है – इस प्रकार यह वर्ग सामाजिक हायरार्की में अपनी निगाहें ऊपर और नीचे दोनों दिशाओं में डाल सकता है. एक कलाकार के तौर पर सामाजिक प्रणाली को एक सम्पूर्ण के तौर पर देखने के लिहाज़ से इस वर्ग का व्यक्ति विशिष्ट रूप से लाभ की स्थिति में होता है साथ ही वह चीजों के वर्तमान और वांछनीय स्थितियों के दरम्यान के दर्दनाक संघर्ष का अनुभव भी कर सकता है.
गरीबों और वंचितों के प्रति डिकेन्स की सहानुभूति अब कहावतों का हिस्सा बन चुकी है. ब्लीक हाउस के एक अचंभित कर देने वाले क्षण में वे महारानी विक्टोरिया को उनकी समूची सत्ताधारी मंडली समेत अनाथों और सड़क पर रहने वाले बच्चों की शर्मनाक तरीके से अनदेखी करने को लेकर फटकार सुनाते हैं. लेकिन वे भीख मांग रही एक महिला को पुलिस को सौंपने का काम भी करते हैं. वे अंग्रेज़ी के उपन्यासकारों में सबसे अधिक लोकप्रिय थे, जन-संस्कृति के मसीहा और अतीव प्रतिभावान एंटरटेनर. लेकिन उन्हें एक उच्च वर्गीय उपन्यासकार के तौर पर सामाजिक ढांचे में अपनी ख्याति और स्थिति का भी ध्यान रहता था. अंग्रेज़ी का कोई भी और लेखक “उच्च” और लोकप्रिय संस्कृतियों को इस बेहतरीन तरीके से नहीं मिला सका कि उसकी अपील मजदूर आंदोलनों में भी महसूस होती है और अकादमिक हलकों में भी.
अपनी कला के माध्यम से जिस भीड़ से अपने को उन्होंने अलग किया था उसी में घसीट लिए जाने के टिपिकल निम्न-मध्यवर्गीय भय से डिकेन्स ताजिन्दगी बाहर नहीं निकल सके. उन्होंने अपने बेटों को पढ़ने के लिए ईटन भेजा. ग्रेट एक्सपेक्टेशंस के उराया हीप सरीखे सोशल क्लाइम्बर से वे उसी तरह नफरत करते हैं जैसे एक सोशल क्लाइम्बर ही कर सकता है. उनके भीतर एक राजसी लिटल इंग्लैण्डर का हल्का सा तडका भी था. हार्ड टाइम्स में वे ट्रेड यूनियनवाद का बहुत दुष्ट खाका खींचते हैं और वेस्ट इंडीज़ के एक क्रूर गवर्नर के पक्ष में बोलते हैं.
हो सकता है वे विक्टोरियाई इंग्लैण्ड का एक अभिशाप रहे हों पर विशिष्ट मध्यवर्गीय आलस्य के साथ उन्हें यकीन था कि जिस युग में वे रहे थे, उसमें मानव इतिहास के किसी भी दौर से ज्यादा सुधार हुआ था. विक्टोरियाई मध्य वर्ग जिसका वे हिस्सा थे, अपने आप को सामाजिक विकास की किसी गाड़ी में सवार के तौर पर देखता था. वह साथ ही क्रान्ति की आहटों से भी चिंतित रहा करता था. इस बंटे हुए विज़न को डिकेन्स के लेखन में पाए जाने वाले कॉमेडी और ट्रेजेडी, आंसू और हंसी, भड़कीलेपन और संवेदनशीलता के मिश्रण में हर जगह देखा जा सकता है. बहुत कम लेखक हुए हैं जो मानवीय भावनाओं में इतने भीतर तक पहुँच सके, और बहुत कम लेखकों के पास इस कदर विनाशवान तरीके से विचारहीन दिमाग था. अगर वे निर्मम रूप से यथार्थवादी हो सकते हैं तो एब्सर्ड तरीके से रूमानी भी.
बच्चों की छवियां
बच्चों के साथ डिकेन्स का सतत जुड़ाव इनमें से कुछ संशयों को सामने लाता है. एक लिहाज़ से दमन के शिकार किसी बच्चे की छवि समाज की बेदिली का सबसे शक्तिशाली विम्ब बन सकती है. ओलिवर ट्विस्ट और पौल डोम्बी से लिटल डोरिट और पिप तक – डिकेन्स के उपन्यासों के बच्चे उस यातना की नंगी तस्वीरें है जिसके पात्र वे हरगिज़ नहीं थे.
डिकेन्स की निगाहों में विक्टोरियाई इंग्लैण्ड एक ऐसा समाज है जहाँ हर कोई अनाथ हो चुका है और जिसके उच्च वर्ग ने कमजोर वर्ग के प्रति अपनी जिम्मेदारी से आँखें मोड ली हैं. इसके बावजूद अपनी हालत के कारणों को समझने में कोई भी बच्चा असमर्थ होता है क्योंकि वह बच्चा है. बच्चे को अपने दर्द से तुरंत राहत चाहिए होती है. उसे सामाजिक प्रक्रियाओं की कोई समझ नहीं होती. वैसे भी दमित बच्चे की छवि क्रांति नहीं सुधारवाद की तरफ इशारा करती है. और डिकेन्स कोई क्रान्तिकारी नहीं थे जैसा कि अ टेल ऑफ टू सिटीज़ में उनके द्वारा सनसनी की तरह चित्रित की गयी फ्रांसीसी क्रान्ति वाले हिस्सों से पता चलता है.
तब भी, जैसा कि महान मार्क्सवादी साहित्य-आलोचक जॉर्ज लूकाच ने जोर दिया है, किसी लेखक की कल्पना उसकी आइडियोलोजी से ज्यादा रेडिकल हो सकती है. किसी भी सामाँजिक क्रान्ति से डिकेन्स उतने ही भयभीत थे जितना कि कोई भी और विक्टोरियाई बूर्ज्वा लेकिन जिस सिस्टम का चित्रण उन्होंने अपने उपन्यासों में किया है, उस के भीतर क्रांति से कम किसी भी चीज़ से बदलाव आना असंभव है - चाहे वह ब्लीक हाउस में हो, लिटल डोरिट में हो, अवर म्यूचुअल फ्रेंड में हो या ग्रेट एक्सपेक्टेशंस में हो.
पिकविक पेपर्स के मसखरीभरे संसार और अपनी शुरुआती किताबों के परीकथाओं सरीखे अंतों से काफी दूर तक चले आए हैं डिकेन्स. हम एक ऐसे संसार में हैं जिसमें मध्य वर्ग के स्त्री-पुरुष खोखले भ्रम हैं जबकि चीज़ें एक विचित्र तरीके से जीवित नज़र आती हैं. बाज़ार के पूंजीवाद और एक दमनकारी सत्ता ने अपनी खुद की एक कुटिल जिंदगी निर्मित कर ली है. सामाजिक जीवन खोखला और अवास्तविक है और सच्ची वास्तविकताएँ केवल अपराध, मजदूरी, बीमारी और मशक्कत में बची हैं. जिन परिवारों का एक युवतर डिकेन्स ने उत्सव मनाया था, वे बाद में बीमारी और दमन से भरे रोगग्रस्त स्थानों में तब्दील हो चुके हैं. नए जीवन का उत्थान केवल मृत्यु, आत्म-बलिदान और विसर्जन से ही संभव है.
डिनर पार्टियों में डिकेन्स को बहुत महत्त्व देने वालों ने ऐसा सुनने की मंशा नहीं की होगी. लेकिन उन का जोर इस से उन्हें रू-ब-रू कराने पर था. और उसके जन्म के दो शताब्दियों बाद हमें डिकेन्स को उनके इस साहस के लिए इज्ज़त बख्शनी चाहिए.
(स्केच- मार्टिन राव्सन)
2 comments:
डिकेन्स का एक उपन्यास हमारे पाठ्यक्रम में था और हमारे टीचर भी शानदार थे। इसी नाते डिकेन्स दिल-दिमाग में अटके रहते हैं। उन पर यह पोस्ट पढ़ना शानदार अनुभव रहा। शुक्रिया।
इस आलेख के लिये शुक्रिया - शरद कोकास , दुर्ग
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