Sunday, February 12, 2012

जो पीता है सुदूर नदियों का पानी और बादल नहीं बन जाता!


महाकवि महमूद दरवेश की "प्रार्थना" श्रृंखला की चौथी कविता-

मैं छोड़ आया अपना चेहरा अपनी मां के रूमाल में
पहाड़ों को घसीटा अपनी स्मृति में
और दूर चला गया.
शहर ने नष्ट कर दिए अपने द्वार
और उन्हें धर दिया एक के ऊपर एक जहाज़ की छत पर
जिस तरह हरा धरा जाता है
कम हो रहे खेतों में.

मैं हवा पर टिकता हूं
अटूट काठी!
मुझे दुविधा क्यों होती है
जब तुम हो मेरी चट्टान?

थपेड़े मारती है मुझे दूरी
जिस तरह ताज़ा मौत थपेड़े मारती है प्रेमियों के चेहरों पर
और जितना नज़दीक जाता हूं मैं प्रार्थनाओं के
उतना ही पड़ता हूं कमज़ोर.

गलियारे ठुंसे हुए ख़ालीपन से!
मैं कब पहुंचा? ...

आशीष मिला है उसे जो पहने है अपनी त्वचा!
आशीष मिला है उसे जो बग़ैर ग़लती किए बोल पाता है अपना सच्चा नाम!

आशीष मिला है उसे जो एक सेब खाता है
और पेड़ नहीं बन जाता.

जो पीता है सुदूर नदियों का पानी
और बादल नहीं बन जाता!

आशीष मिला है उस चट्टान को जो अपने बन्धन की पूजा करती है
और ईर्ष्या नहीं करती हवा की स्वाधीनता से!

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