Saturday, March 3, 2012

अपनों के जुलूस में बोलूँ



आज हमारे समय के सबसे बड़े रचनाकारों में से एक विनोद कुमार शुक्ल जी की कविता –


बोलने में कम से कम बोलूँ

बोलने में कम से कम बोलूँ

कभी बोलूँअधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप .



मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गयासब कह दिया गया का चुप .
पहाड़आकाशसूर्यचंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप .



ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप .



और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप .



बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप .



भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप .

3 comments:

Pratibha Katiyar said...

Bahut sundar! Shukriya Ashok ji!

दीपिका रानी said...

ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप .



और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप .
वाह! बहुत गहरी चुप

प्रवीण पाण्डेय said...

यही चुप ही तो घुप्प अँधेरों की तरह स्थायी रूप से चिपक गया है हमसे..