सरमा के बोल
अष्टभुजा शुक्ल
हे परीक्षित के लाड़ले
राजा जनमेजय
कान खोलकर सुनो
अपने बंधु-बांधवों की करतूत
मैं देवताओं की कुतिया
सरमा बोल रही हूँ
यज्ञ-वज्ञ जो भी करो
पुण्य-पाप जो भी कमाओ
हमसे भी ज़्यादा कटकटाओ
इससे हमें कोई मतलब नहीं
श्रुतसेन, उग्रसेन, भीमसेन
सेन बिसेन जो भी हों
हमें तो यह बताओ
कि तुम्हारे उद्दण्ड भाइयों ने
हमारे निरपराध सारमेय को क्यों मारा?
न उसने तुम्हारी वेदी को छुआ
न तुम्हारी हवन सामग्री की ओर ताका
न ही उसे झूठा किया
न किसी पर भूँका
न किसी को काटा
फिर भी उन्होंने
हमारे पिल्ले को क्यों मारा?
इस जंगल में
कोई कानून नहीं
जिसका दरवाज़ा खटखटाऊँ
कोई थाना नहीं जिसमें प्राथमिकी लिखाऊँ
कोई राजा नहीं जिसे दुखड़ा सुनाऊँ
अपना पति नहीं जिसे ज़ोर-ज़ोर से भुँकवाऊँ
मार का बदला काट से नहीं ले सकती
चोट का बदला वोट से नहीं ले सकती
बदले की भावना से नहीं प्रेरित होते आर्तजन
बहुत दुखी होने पर दे सकते हैं अभिशाप
मैं तुम्हें अभिशाप देती हूँ
जाओ, तुम सब कुत्ते हो जाओ!
आओ मेरे शावक
आओ मेरे मुन्ने
रोओ मत
आओ मेरे सरमेय!
फिर कभी उधर मत जाना
याज्ञिकों के आसपास कदापि न मँडराना...
1 comment:
बाहर से मजाकिया भीतर से मार्मिक रचना. अष्टभुजा की खासियत.
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