जनाब हरजिंदर सिंह उर्फ लाल्टू हिन्दी के उन प्रतिबद्ध रचनाकारों में हैं जो हिन्दी की साहित्यिक तिकडमों से सदा दूर रहे हैं और लगातार-लगातार रचनारत रहे हैं. मेरे जिन-जिन मित्रों की उनसे मुलाक़ात है वे उन्हें एक बेहद सादा आदमी बताते हैं और बहुत मीठा भी. इधर हमारे बीच दो-चार बार जी मेल पर कुछ आदान-प्रदान शुरू हुआ है. आज उनकी एक कविता पेश है. यह कविता आज ही उन्होंने मुझे मेल की है. उनका धन्यवाद. जल्द ही उनकी एक छोटी कहानी और ढेर सारी कवितायेँ आपको इस ठिकाने पर पढ़ने को मिलेंगी.
मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी
मेरे सामने चलता हुआ वह आदमी
बड़बड़ाता हुआ किसी से कुछ कह रहा है
अपनी बड़बड़ाहट और कान में बँधी तार में से आती कोई और आवाज के बीच
मेरे पैरों की आवाज सुनकर चौंक गया है और उसने झट से पीछे मुड़कर देखा है
मुझे देख कर वह आश्वस्त हुआ है
और वापस मुड़कर अपनी बड़बड़ाहट में व्यस्त हो गया है।
मैं मान रहा हूँ कि उसने मुझे सभ्य या निहायत ही कोई अदना घोषित किया है खुद से
जब मैं सोच रहा हूँ कि रात के तकरीबन ग्यारह बजे उसकी बड़बड़ाहट में नहीं है कोई होना चाहिए प्रेमालाप
और है नहीं होना चाहिए बातचीत इम्तहानों गाइड बुकों के बारे में
उसकी रंगीन निकर की ओर मेरी नज़र जाती है
मैं सोचता हूँ उसकी निकर गंदी सी होती तो उसके कान में तार से न बँधी होती बड़बड़ाहट
और उसकी आवाज होती बुदबुदाहट कोई गाली सही पर प्यार होने की संभावना प्रबल थी
शाम का वह आदमी सुबह के एक ऐक्सीडेंट हो चुके आदमी में बदल गया है
और इस वक्त आधुनिक वाकर टाइप की बैसाखी साइड में रख दीवार के सामने खड़ा हो पेशाब कर रहा है.
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