(पिछली किस्त से जारी)
मेरी उम्र 17-18 साल के आस-पास थी और जैसा कि होता है मैं बचपन से ही साथ खेलने वाली एक अफ़ग़ान लड़की की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गया. वह बचपन में तो सियालकोट में थी लेकिन बाद में उसका ख़ानदान आज के फैसलाबाद के समीप एक गांव में आबाद हो गया था. मेरी एक बहन की उसी गांव में शादी हुई थी. जब मैं अपनी बहन के पास गया तो उसके घर भी गया, वह लड़की तब पर्दा करने लगी थी. एक सुबह मैंने उसे तोते को कुछ खिलाते हुए देखा. वह बहुत ख़ूबसूरत लग रही थी. हम दोनों ने एक दूसरे को देखा और एक दूसरे की मुहब्बत में गिरफ़्तार हो गये. हम छुप-छुप के मिलते रहे और एक दिन जैसा कि होता है उसकी कहीं शादी हो गयी और जुदाई का यह अनुभव छः-सात बरस तक मुझे उदास करता रहा. इस अवधि में मेरी शिक्षा भी जारी रही और शायरी भी. स्थानीय मुशायरे में तीसरी बार जब मुझे भाग लेने का अवसर मिला तो मेरी शायरी को काफ़ी सराहा गया और इस तरह लाहौर जैसे शहर की बड़ी साहित्यिक हस्तियां मेरी शायरी से परिचित हुईं और सबने मुझे अपना आशीर्वाद देना चाहा. मैं अब अच्छा ख़ासा शायर बन चुका था.
यही वह दौर था जब उपमहाद्वीप में उग्रपंथ के पहले आंदोलन का आरंभ हुआ. उस आंदोलन के प्रभाव हमारे कॉलेज के अंदर भी पहुंच रहे थे और मेरा एक अभिन्न मित्रा जिसे बाद में एक प्रसिद्ध संगीतकार ख़्वाजा ख़ुर्शीद अनवर के रूप में जाना गया, उस आंदोलन का सक्रिय कार्यकर्त्ता था. वह बम बनाने के लिए कॉलेज की प्रयोगशाला से तेज़ाब चुराने के अपराध में गिरफ़्तार कर लिया गया. उसे तीन साल की सज़ा भी सुनायी गयी. वह कुछ समय तक ज़रूर जेल में रहा था लेकिन बाद में वह अपने प्रभावशाली पिता के रसूख के कारण छूट गया. मेरी बहुत सी जानकारियों का माध्यम वही था. वह अक्सर अपने आंदोलन का साहित्य मेरे कमरे में छोड़ जाता और जब कभी मैं उसे पढ़ता तो मेरे ऊपर जुनून सा छा जाता था, क्योंकि मेरे पिता अंग्रेज़ों के वफ़ादार और उपाधि प्राप्त थे लेकिन इतना ज़रूर हुआ कि मैं उग्रपंथियों के आंदोलन और उसके बहुत से राजनीतिक समूहों से परिचित हो गया. मेरे ऊपर उसका कोई गहरा प्रभाव नहीं पड़ा लेकिन वह सब कुछ मेर लिए महत्वहीन नहीं था.
तीन चार साल बाद मैंने पहले अंग्रेज़ी में और फिर अरबी में एम०ए० कर लिया और फिर मैंने शिक्षण का कार्य अपना लिया. उससे मुझे काफ़ी सहारा मिला और खानदान को आर्थिक संकटों से उबारने में सहायता भी . इस अवधि में मेरे कॉलेज के ज़माने के दो साथी आक्सफ़ोर्ड से मार्क्सिस्ट होकर लौटे थे . उनके अलावा उच्च घरानों के कुछ और लड़के भी इंग्लैंड की यूनवर्सिर्टियों से कम्युनिस्ट विचार लेकर लौटे थे. उनमें से कुछ तो राजनीतिक दृष्टिकोण से व्यस्त हो गये, कुछ ने नौकरी के चक्कर में इस तरह के विचार को छोड़ दिया. लेकिन इसी टोली के नेतृत्व में साहित्य के प्रगतिशील आंदोलन का आंरभ हुआ. यह साहित्यिक आंदोलन, कम्युनिस्ट या मार्क्सिस्ट आंदोलन नहीं था. वैसे उसमें सक्रिय भाग लेने वालों में कुछ कम्युनिस्ट भी थे और मार्क्सिस्ट भी. असल में प्रगतिशील आंदोलन साहित्य में सामाजिक यथार्थ को बढ़ावा देने से संबंध रखता था और रूढ़िबद्ध होकर कविता करने को बुरा समझता था. भाषा की कलाबाज़ी भी इस आंदोलन के लिए व्यर्थ थी. इस आंदोलन के प्रभावस्वरूप यथार्थवादी और राजनीतिक गीतों के चलन को बढ़ावा मिला. इस प्रकार का साहित्यिक चलन यूरोप और अमेरिका में भी फ़ासीवाद विरोधी साहित्यिक प्रवृत्ति के रूप में उभरा, जिसके परिणामस्वरूप राजनीतिक सरोकार वाले साहित्य का जन्म हुआ .
1932-35 के मध्य का यही वह समय था जब उस साहित्यिक, राजनीतिक आंदोलन से मेरा जुड़ाव शुरू हुआ. मज़दूरों, श्रमजीवियों और किसानों के आंदोलनधर्मी गीत और राजनीतिक अभिव्यक्ति और नई-पुरानी काव्य-पद्धति के मिश्रण को लोगों ने सराहा और उन्हें पसंद भी किया. जब 1941 में मेरा पहला संग्रह प्रकाशित हुआ तो वह तेज़ी से बिक गया. फिर द्वितीय विश्व युद्ध की लहर आई लेकिन हम लोगों ने उसका ज़्यादा नोटिस नहीं लिया. हमारे विचार में उस युद्ध से ब्रिटेन और जर्मनी का सरोकार था मगर 1941 में जापान भी उस युद्ध में शामिल हो गया तो हमें कुछ आभास हुआ. क्योंकि उस समय अगर एक ओर जापानी भारत की सीमा तक आ गए थे तो दूसरी ओर नाज़ियों और फासिस्टों के क़द़म मास्को और लेनिनग्राद तक पहुंच गये थे और तभी हमने महसूस किया कि युद्ध से हमारा संबद्ध होना आवश्यक है. इसलिए हम फ़ौज में शामिल हो गये. मुझे याद है पहले दिन जनसंपर्क विभाग के निरीक्षक एक ब्रिगेडियर के सामने मेरी पेशी हुई. वह आपैचारिक रूप से फ़ौजी नहीं था, वह बहुत ज़िंदादिल आइरिश था और लंदन टाइम्स से संबंध रखने वाला एक पत्राकार था. मुझे देखकर उसने कहा तुम्हारे बारे में पुलिस की खुफ़िया रिपोर्ट कहती है कि तुम एक पक्के कम्युनिस्ट हो, बताओ हो या नहीं. मैंने कहा मुझे नहीं पता कि पक्का कम्युनिस्ट कौन होता है. मेरा यह उत्तर सुनकर उसने कहा मुझे इससे कोई मतलब नहीं, चाहे तुम फ़ासीवादी विचार ही क्यों न रखते हो, जब तक तुम हमें कोई धोखा नहीं देते; मैं समझता हूं तुम धोखा नहीं दोगे. मैंने समर्थन में सिर हिला दिया.
यही वह ज़माना था जब ब्रिटेन और मित्रा देशों के बीच संबंध बहुत अच्छे नहीं थे. उधर महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन आरंभ कर दिया था, जो पूरे देश में आग की तरह फैल गया था. ब्रिटेन के सामने दो संकट थे. एक तो फ़ौज़ में लोगों की भर्ती और दूसरे सरकार के विरुद्ध ज़ोर पकड़ता हुआ जन आंदोलन. ब्रिटेन की फ़ौज के ब्रिगेडियर ने मुझसे इस आंदोलन के विषय में विचार-विमर्श करते हुए पूछा तो मैंने कहा कि ब्रिटेन अपने अस्तित्व के लिए भाग ले रहा है, जापान ब्रिटेन के लिए एक बड़ा ख़तरा है और अगर जापान तथा जर्मनी विजयी होते हैं तो ब्रिटेन को सौ-दो सौ साल तक गु़लाम रहने का दंश झेलना होगा, और इसका मतलब यह है कि हमें अपने देश को इस कष्ट से सुरक्षित रखने के लिए ब्रिटेन की फ़ौज का हिस्सा बनकर लड़ना चाहिए. अंग्रेज़ अपने लिए नहीं लड़ रहा है वह भारत के लिए लड़ रहा है. मेरे इस तर्क को सुनकर उसने कहा तुम जो कुछ कह रहे हो ये तो सब राजनीति है मगर इस तर्क को फ़ौज के लिए स्वीकार्य कैसे बनाया जाये? मैंने कहा कि इस विचार को फ़ौज के लिए स्वीकार्य बनाने का तरीक़ा वही होना चाहिए जो कम्युनिस्टों का है. उसने चौंककर पूछा क्या मतलब? मेरा जवाब था, हम कम्युनिस्ट एक छोटी टोली बनाते हैं. फ़ौज के हर यूनिट में इस तरह की एक विशेष टोली बनाने के बाद हम अफ़सरों को यह बताते हैं कि फ़ासिज़्म क्या है और उन्हें यह भी समझाते हैं कि जापान और इटली वालों के इरादे क्या हैं. इसके बाद उन अफ़सरों से कहा जाता है कि वे उक्त टोली में बतायी जाने वाली बातों को अपने यूनिटों के सिपाहियों को जाकर समझायें और बतायें.
इस तरह हम इस रणनीति के तहत पहले फ़ौजी अफ़सरों को मानसिक रूप से सुदृढ़ करते थे और फिर उनके माध्यम से आशिक्षित सिपाहियों को भी एक दिशा देते थे. इस पद्धति का विरोध भी बहुत हुआ. बात वायसराय, कमांडर-इन-चीफ़ और फिर इंडिया आफ़िस तक पहुंची. मुझसे कहा गया कि मैं अपनी योजना को लिखित रूप में प्रस्तुत करूं. अंततः इस योजना को मंज़ूरी मिल गयी और हमने फिर ‘जोश ग्रुप’ बनाये जो बहुत सफल रहा और इसके परिणामस्वरूप मैं ब्रिटेन द्वारा सम्मानित किया गया और तीन सालों में कर्नल बना दिया गया. उस ज़माने में ब्रितानी फ़ौज में एक भारतीय के लिए इससे ऊंचा फ़ौजी पद कोई और नहीं था. उस ज़माने में मुझे फ़ौज की कार्य पद्धति और ब्रितानी सरकार को जानने का अवसर मिला. मुझे पत्राकारिता का अनुभव भी उसी ज़माने में हुआ, क्योंकि सभी मोर्चे पर भारतीय फ़ौज के प्रचार का काम मेरे ही जिम्मे था और मैं बहुत हद तक भारतीय फ़ौज के लिए राजनीतिक अधिकारी (पॉलीटिकल कमिश्नर) का काम करने लगा. युद्ध की समाप्ति पर मैं फ़ौज से अलग हो गया.
(जारी)
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