Thursday, May 31, 2012

फैज़ की कहानी फैज़ की जुबानी - २


(पिछली कड़ी से आगे)

एक और याद ताज़ा हुई. हमारे घर से मिली हुई एक दुकान थी, जहां किताबें किराये पर मिलती थीं. एक किताब का किराया दो पैसे होता. वहां एक साहब हुआ करते थे जिन्हें सब ‘भाई साहब’ कहते थे. भाई साहब की दुकान में उर्दू साहित्य का बहुत बड़ा भंडार था. हमारी छठी-सातवीं जमात के विद्यार्थी-युग में जिन किताबों का रिवाज था, वह आजकल क़रीब-क़रीब नापैद हो चुकी हैं, जैसे तिलिस्मे-होशरुबा, फ़सानए-आज़ाद, अब्दुल हलीम शरर के नॉवेल, वग़ैरह. ये सब किताबें पढ़ डालीं इसके बाद शायरों का कलाम पढ़ना शुरू किया. दाग़ का कलाम पढ़ा. मीर का कलाम पढ़ा. ग़ालिब तो उस वक़्त बहुत ज़ियादा हमारी समझ में नहीं आया. दूसरों का कलाम भी आधा समझ में आता था, और आधा नहीं आता था. लेकिन उनका दिल पर असर कुछ अजब क़िस्म का होता था. यों, शेर से लगाव पैदा हुआ, और साहित्य में दिलचस्पी होने लगी.

हमारे अब्बा के मुंशी घर के एक तरह के मैनेजर भी थे. हमारा उनसे किसी बात पर मतभेद हो गया तो उन्होंने कहा ‘अच्छा, आज हम तुम्हारी शिकायत करेंगे कि तुम नॉवेल पढ़ते हो; स्कूल की किताबें पढ़ने की बजाय छुपकर अंट-शंट किताबें पढ़ते हो.’ हमें इस बात से बहुत डर लगा, और हमने उनकी बहुत मिन्नत की कि शिकायत न करें; मगर वह न माने और अब्बा से शिकायत कर ही दी. अब्बा ने हमें बुलाया और कहा ‘मैंने सुना है, तुम नॉवेल पढ़ते हो.’ मैंने कहा ‘जी हां.’ कहने लगे ‘नॉवेल ही पढ़ना है तो अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ो, उर्दू के नॉवेल अच्छे नहीं होते. शहर के क़िले में जो लायब्रेरी है, वहां से नॉवेल लाकर पढ़ा करो.’

हमने अंग्रेज़ी नॉवेल पढ़ना शुरू किये. डिकेंस, हार्डी, और न जाने क्या-क्या पढ़ डाला. वह भी आधा समझ में आता था और आधा पल्ले न पड़ता था. मगर इस पढ़ने की वजह से हमारी अंग्रेज़ी बेहतर हो गयी. दसवीं जमात में पहुंचने तक महसूस हुआ कि बाज़ उस्ताद पढ़ाने में ग़लतियां कर जाते हैं. हम उनकी अंग्रेज़ी दुरुस्त करने लगे. इस पर हमारी पिटाई तो न हुई; अलबत्ता वो उस्ताद कभी ख़फ़ा हो जाते और कहते ‘अगर तुम्हें हमसे अच्छी अंग्रेज़ी आती है तो फिर तुम ही पढ़ाया करो, हमसे क्यों पढ़ते हो!’

उस ज़माने में कभी-कभी मुझ पर एक ख़ास क़िस्म का भाव छा जाता था. जैसे, यकायक आस्मान का रंग बदल गया है बाज़ चीज़ें कहीं दूर चली गयी हैं.... धूप का रंग अचानक मेंहदी का-सा हो गया है... पहले जो देखने में आता था, उसकी सूरत बिल्कुल बदल गयी है. दुनिया एक तरह की पर्दए-तस्वीर के क़िस्म की चीज़ महसूस होने लगती थी. इस कैफ़ीयत (भावना) का बाद में भी कभी-कभी एहसास हुआ है, मगर अब नहीं होता.

मुशायरे भी हुआ करते थे. हमारे घर से मिली हुई एक हवेली थी जहां सर्दियों के ज़माने में मुशायरे किये जाते थे.

सियालकोट में पंडित राजनारायन ‘अरमान’ हुआ करते थे, जो इन मुशायरों के इंतिज़ामात किया करते थे. एक बुज़ुर्ग मुंशी सिराजदीन मरहूम थे अल्लामा इक़बाल के दोस्त, श्रीनगर में महाराजा कश्मीर के मीर मुंशी, वह सदारत किया करते थे. जब दसवीं जमात में पहुंचे तो हमने भी तुकबंदी शुरू कर दी, और एक-दो मुशायरों में शेर पढ़ दिये. मुंशी सिराजदीन ने हमसे कहा ‘मियां, ठीक है, तुम बहुत तलाश से (परिश्रम से) शेर कहते हो, मगर यह काम छोड़ दो. अभी तो तुम पढ़ो-लिखो, और जब तुम्हारे दिलो-दिमाग़ में पुख़्तगी आ जाये तब यह काम करना. इस वक़्त यह महज़ वक़्त की बर्बादी है.’ हमने शेर कहना बंद कर दिया.

(जारी)

No comments: