Sunday, May 13, 2012

बाबा नागार्जुन का एक संस्मरण - २


(पिछली किस्त से  आगे)

सच कहता हूं, राकेश, कल बाहर नहीं निकला. आज भी नहीं निकलूंगा. आईने का पिशाच सामने मुस्तैद खड़ा है... बीच-बीच में भौंहें तानकर, होंठ भींचकर वह मुझे धमका भी रहा है-- ख़बरदार ! आत्मकथावाली घिसी-पिटी स्टाइल में कुछ का कुछ लिखकर पन्ने काले करोगे, तो तुम्हारे भी हाथ-पैर सुन्न हो जाएँगे! जीभ अकड़ जाएगी और दिल-दिमाग़ किसी काम के न रहेंगे!

तो फिर?

तो फिर, जय हो आईने के इस बैताल की!

नमस्तेऽस्तु पिशाचाय,
वैतालाय नमो नमः
नमो बुद्धाय मार्क्साय
फ्रायडाय च ते नमः.
अथ नाग-लीला--

बाहर से जैसा कुछ दिखाई देता हूं, वैसा ही नहीं हूँ न?

जीवन के अनेक-अनेक पहलुओं की सम-विषम प्रतिच्छवियाँ इस आईने में उभर रही हैं. स्टूडियो का टेकनीशियन फ़िल्म की बेतरतीब रीलों के टुकड़े क्या यों ही सेंसर बोर्ड के समक्ष पेश कर देता होगा ?

नहीं जी, वह उन्हें कतर-ब्योंत करके एक ख़ास क्रम में सजाता होगा.

मेरा जीवन सपाट मैदान है-- प्रेमचंद अपने बारे में कह गए हैं... मगर मेरा जी नहीं मानता कि किसी भी साहित्यकार का जीवन सचमुच ‘सपाट’ होता होगा. दरअसल, यह भी एक फैशन है व्यक्तित्व की छाप छोड़ने का कि हम अपनी सादगी, सिधाई, भोलापन, विनम्रता आदि का लेखा-जोखा आहिस्ता से औरों तक पहुँचा दिया करें! प्रकृति ख़ुद ही चमत्कारमयी है, वह सपाट नहीं हुआ करती. तो फिर हमारी और आपकी ज़िंदगी ही कैसे सपाट होगी, साहब?

अरे वाह! यह देखिए, सामने नागा जी का शिशु चेहरा...पीछे एक अधेड़ पुरुष की प्रौढ़ मुखाकृति. .. अगले ही क्षण चेहरे पर क्रोध का तनाव...होंठ काँप रहे हैं .

(मैं तेरा हाथ काट लूँगा ! क्यों अंट-संट लिख मारा है तूने ? बाप की बुराई कौन करता है ?)

-- शैतान. मगर मैंने झूठ थोड़े लिखा है. मेरी चाची से आपका क्या रिश्ता था ?

उस रोज, दुपहर की उमस में अंदर लेटी हुई मेरी मां का गला कुल्हाड़ी से किसने काटना चाहा था ?

समाज की दसियों औरतों से आपके लगाव थे . कोई बात नहीं . लेकिन मेरी माँ और मेरे पाँच भाई-बहनों को किसकी उपेक्षा का शिकार होकर दम तोड़ना पड़ा था ?

(चोप्! जीभ खींच लूंगा... जानता नहीं, मैं कितनों की पसलियां तोड़ चुका हूँ ? रौब के मारे गाँव के युवक मुझे ‘गुरू’ कहकर पुकारते हैं !...)

-- और पिताजी, आपकी वह गुरुअई कैसे गल गई थी मामूली काग़ज़ की तरह, जबकि मेरी विधवा चाची के गर्भ रह गया था और भ्रूण की निकासी के लिए पड़ोस वाले गाँव की उस बुढ़िया चमाइन को सौ रुपए देने पड़े थे!

अजी वाह, आप रो रहे हो? मेरा वश चलता तो उस अधेड़ उम्र में भी आप दोनों की नई शादी वैदिक विधि से करवा देता! पर मैं तो उन दिनों दस-ग्यारह साल का छोटा-सा बालक था-- मातृहीन, रोगी और डरपोक !

अब सोचता हूँ, तो आईने के अंदर अपने होंठों को उस बाल-सुलभ खीज पर मुसकराते देखकर तसल्ली होती है . क्या कसूर था बेचारों का ? सहज नेह-छोहवाले सीधे-सादे देहाती लोग थे... मगर पिता को अंत तक खुली क्षमा कहाँ दे पाया ! आज शायद इसीलिए पिता के प्रति विगलित हूं कि स्वयं छः बच्चों का पिता हूँ. पितृ-सुलभ वात्सल्य के आवेग ही शायद अपने पिता-पितामह के प्रति हमें उदार बनाते हैं. 1943 के सितंबर में काशी की गंगा के किनारे मणिकार्णिका घाट पर उनका प्राणांत हुआ. मैं तिब्बत के पश्चिमी प्रदेशों की यात्रा पर निकल गया था. कहते हैं, अंतिम क्षणों में किसी ने मेरी याद दिलाई, तो सूखे होंठों को सिकोड़कर बोले थे-- उस आवारा का नाम ही मत लो .

न लो नाम, अपना क्या बिगड़ेगा ? मैं भी तुम्हारी चर्चा किसी के आगे न करूँगा . मेरी माँ को जिसने इतना अधिक परेशान रखा, उस व्यक्ति को खुले दिल से ‘पिता’ कहने की इच्छा भला कैसे होगी ?...

देखो भई, यह तो हिलने लगा ? ज़रूर कोई गड़बड़ हुई है, वरना आईना हिलता क्यों ?

अपू ? अपराजिता ? आओ, आओ ! अच्छा हुआ कि शीशे में तुम दिखाई पड़ीं. कमज़ोर लग रही हो, बीमार हो क्या ? मैं भी बीमार रहा इधर तो. गनीमत है कि बंबई की समुद्री आबोहवा ने अबके दमा को मेरे गिर्द फटकने तक न दिया. हाँ, सर्दी-खाँसी ने बीस-पचीस दिनों तक बेहद परेशान किया.

सोचती हूँ, पिछले कुछेक वर्षों में तुम मुझसे दूर-दूर सरकते चले गए हो. पहले कितनी चिट्ठियाँ लिखा करते थे! अब शायद मैं तुमको अच्छी नहीं लगती हूँ. है न यही बात ?

क्या बात करती हो, अपू ! तुम तो तेरी सहधर्मिणी हो-- ठेठ सनातन अर्धांगिनी श्रीमती अपराजिता देवी, 45 . हमारी अपनी देहाती जायदाद और घर-आँगन की मालकिन ! तुम तो नाहक उदास हो, रानी ! क्यों सुस्त हो? क्या बात है ?

वह चुड़ैल सपने में मुझसे झगड़ रही थी...

कौन भई, कौन ?

वही, जो उस दफ़े गर्मियों में छत पर तुम्हारे लिए इत्र के फ़ाहे फेंका करती थी...

उसके बारे में तो मैंने ख़ुद ही तुम को बतला दिया था. जो नहीं कहना चाहिए, वह बात भी कह दी थी. नहीं कही थी ?

सो तो सब कुछ बतला दिया था तुमने... मगर वह रांड सपने में मुझसे झगड़ रही थी कि अब इस उम्र में सिंदूर क्यों लगाती हूँ ! कह रही थी, ‘ऐसा कौन-सा शहर है जहाँ मेरी सौत न हो’... सो, देखना, मेरी लाज रखना !

क्या सोच रही हो, इस बुढ़ौती में कहीं दो-एक ब्याह मैं और भी रचा लूँगा ?

क्या ठिकाना है तुम लोगों का! मैं क्या पटना-इलाहाबाद नहीं रही हूँ ? जरा-मरा आन-पहचान बढ़ी, तनी-मनी नेह-छोह बढ़ा कि चट्ट शादी पर ही उतर आते हैं...

अच्छा ऽ ऽ ऽ! ! ! तो यह बात है !

मुझे ज़ोरों की हँसी आ गई और अपराजिता का चेहरा दबी-दबाई हँसी के मारे प्रफुल्ल हो उठा है . .. ओफ्फोह, महिलाएँ कितनी चतुर होती हैं ! पुरुषों को छूट भी देंगी और अपना हक़ भी नहीं छोड़ेंगी .

एक बार ऐसा हुआ कि हम आठ-दस महीने के बाद मिले थे . मैं साठ घंटे बाहर नहीं निकला . उन दिनों बच्चे दो ही थे और छोटे थे. उस प्रसंग की एक बात बतला ही दूँ...

(जारी)

1 comment:

मुनीश ( munish ) said...

सुप्पा लाइक ।