Saturday, June 2, 2012

फैज़ की कहानी फैज़ की जुबानी - ४


(पिछली कड़ी से आगे अंतिम किस्त)

मुझे याद है, हम मस्ती दरवाज़े के अंदर रहते थे. हमारा घर ऊंची सतह पर था. नीचे नाला बहता था. छोटा-सा एक चमन भी था. चार-तरफ़ बाग़ात थे. एक रात चांद निकला हुआ था. चांदनी नाले और इर्द-गिर्द के कूड़े-करकट के ढेर पर पड़ रही थी. चांदनी और साये, ये सब मिलकर कुछ अजब भेद-भरा-सा मंज़र बन गये थे. चांद की इनायत से उस सीन पर भद्दा पहलू छुप गया था और कुछ अजीब ही क़िस्म का हुस्न पैदा हो गया था; जिसे मैंने लिखने की कोशिश भी की है. एकाध नज़्म में यह मंज़र खेंचा है जब शहर की गलियों, मुहल्लों और कटरों में कभी दोपहर के वक़्त कुछ इसी क़िस्म का रूप आ जाता है जैसे मालूम हो कोई परिस्तान है. ‘नीम-शब’, ‘चांद’, ‘ख़ुदफ़रामोशी’, ‘बाम्-ओ-दर ख़ामुशी के बोझ से चूर’, वगै़रह उसी ज़माने से संबंध रखती हैं. एम०ए० में पहुँचे तो कभी क्लास में जाने की ज़रूरत महसूस हुई, कभी बिल्कुल जी न चाहा. दूसरी किताबें जो कोर्स में नहीं थीं, पढ़ते रहे. इसलिए इम्तिहान में कोई ख़ास पोज़ीशन हासिल नहीं की. लेकिन मुझे मालूम था कि जो लोग अव्वल-दोअम आते हैं, हम उनसे ज़ियादा जानते हैं, चाहे हमारे नंबर उनसे कम ही क्यों न हों. यह बात हमारे उस्ताद लोग भी जानते थे. जब किसी उस्ताद का, जैसे प्रोफ़ेसर डिकिन्सन या प्रोफ्ऱेसर कटपालिया थे, लेक्चर देने को जी न चाहता तो हमसे कहते हमारी बजाय तुम लेक्चर दो; एक ही बात है! अलबत्ता प्रोफ़ेसर बुख़ारी बड़े क़ायदे के प्रोफ़ेसर थे. वह ऐसा नहीं करते थे. प्रोफ़ेसर डिकिन्सन के ज़िम्मे उन्नीसवीं सदी का नस्री अदब (गद्य साहित्य) था; मगर उन्हें उससे दरअस्ल कोई दिलचस्पी नहीं थी. इसलिए हमसे कहा दो-तीन लेक्चर तैयार कर लो! दूसरे जो दो-तीन लायक़ लड़के हमारे साथ थे, उनसे भी कहा दो-दो तीन-तीन लेक्चर तुम लोग भी तैयार कर दो! किताबों वग़ैरह के बारे में कुछ पूछना हो तो आके हमसे पूछ लेना. चुनांचे, नीमउस्ताद {आधे (अधकचरे) अध्यापक (नीमहक़ीम के वज़न पर)} हम उसी ज़माने में हो गये थे. शुरू-शुरू में शायरी के दौरान में, या कॉलेज के ज़माने में हमें कोई ख़याल ही न गुज़रा कि हम शायर बनेंगे. सियासत वग़ैरह तो उस वक़्त जे़ह्न में बिल्कुल ही न थी. अगरचे उस वक़्त की तहरीकों (आंदोलनों) मसल्न कांग्रेस तहरीक, खि़लाफ़त तहरीक, या भगतसिंह की दहशतपसंद तहरीक के असर तो जे़ह्न में थे, मगर हम ख़ुद इनमें से किसी क़िस्से में शरीक नहीं थे.

शुरू में ख़याल हुआ कि हम कोई बड़े क्रिकेटर बन जायें, क्योंकि लड़कपन से क्रिकेट का शौक़ था और बहुत खेल चुके थे. फिर जी चाहा, उस्ताद बनना चाहिए; रिसर्च करने का शौक़ था. इनमें से कोई बात भी न बनी. हम क्रिकेटर बने न आलोचक; और न रिसर्च किया, अलबत्ता उस्ताद (प्राध्यापक) होकर अमृतसर चले गये.

हमारी ज़िंदगी का शायद सबसे ख़ुशगवार ज़माना अमृतसर ही का था; और कई एतिबार से. एक तो कई इस वजह से, कि जब हमें पहली दफ़ा पढ़ाने का मौक़ा मिला तो बहुत लुत्फ़ आया. अपने विद्यार्थियों से दोस्ती का लुत्फ़; उनसे मिलने और रोज़मर्रा की रस्मो-राह का लुत्फ़; उनसे कुछ सीखने, और उन्हें पढ़ाने का लुत्फ़. उन लोगों से दोस्ती अब तक क़ायम है. दूसरे यह कि, उस ज़माने में कुछ संज़ीदगी से शेर लिखना शुरू किया. तीसरे यह कि, अमृतसर ही में पहली बार सियासत में थोड़ी-बहुत सूझ-बूझ अपने कुछ साथियों की वजह से पैदा हुई; जिनमें महमूदुज़्ज़फ़र थे, डॉक्टर रशीद जहां थीं, बाद में डॉक्टर तासीर आ गये थे. यह एक नयी दुनिया साबित हुई. मज़दूरों में काम शुरू किया. सिविल लिबर्टीज़ (जनता के मौलिक अधिकारों की स्वतंत्रता) की एक अंजुमन (संस्था) बनी, तो उसमें काम किया, तरक़्क़ीपसंद तहरीक शुरू हुई तो उसके संगठन में काम किया. इन सबसे जे़ह्नी तस्कीन (मानसिक-बौद्धिक संतोष) का एक बिल्कुल नया मैदान हाथ आया.

तरक़्क़ीपसंद अदब के बारे में बहसें शुरू हुई, और उनमें हिस्सा लिया. ‘अदबे-लतीफ़’ के संपादन की पेशकश हुई तो दो-तीन बरस उसका काम किया. उस ज़माने में लिखनेवालों के दो बड़े गिरोह थे; एक अदब-बराय-अदब (‘साहित्य साहित्य के लिए’) वाले, दूसरे तरक़्क़ी-पसंद थे. कई बरस तक इन दोनों के दरमियान बहसें चलती रहीं; जिसकी वजह से काफ़ी मसरूफ़ियत रही जो, अपनी जगह ख़ुद एक बहुत ही दिलचस्प और तस्कीनदेह तजुर्बा था. पहली बार उपमहाद्वीप में रेडियो शुरू हुआ. रेडियो में हमारे दोस्त थे. एक सैयद रशीद अहमद थे, जो रेडियो पाकिस्तान के डायरेक्टर जनरल (महानिदेशक) हुए. दूसरे, सोमनाथ चिब थे, जो आजकल (संभवतः सन् 1977 में) हिंदुस्तान में पर्यटन विभाग के अध्यक्ष हैं. दोनों बारी-बारी से लाहौर के स्टेशन डायरेक्टर मुक़र्रर हुए. हम और हमारे साथ शहर के दो-चार और अदीब (साहित्यकार) डॉक्टर तासीर, हसरत, सूफ़ी साहब और हरिचंद ‘अख़्तर’ वगै़रह रेडियो आने-जाने लगे. उस ज़माने में रेडियो का प्रोग्राम डायरेक्टर ऑफ़ प्रोग्राम्ज़ नहीं बनाता था, हम लोग मिलकर बनाया करते थे. नयी-नयी बातें सोचते थे और उनसे प्रोग्राम का ख़ाका तैयार करते थे. उन दिनों हमने ड्रामे लिखे, फ़ीचर लिखे, दो- चार कहानियां लिखीं. यह सब एक बंधा हुआ काम था. रशीद जब दिल्ली चले गये, तो हम देहली जाने लगे. वहां नये-नये लोगों से मुलाक़ात हुईं. देहली और लखनऊ के लिखनेवाले गिरोहों से जान-पहचान हुई. मजाज़, सरदार जाफ़री, जॉनिसार अख़्तर, जज़्बी और मख़दूम मरहूम से रेडियो के वास्ते से राबिता (संपर्क) पैदा हुआ; जिससे दोस्ती के अलावा समझ और सूझ-बूझ में तरह-तरह के इज़ाफ़े हुए.

वह सारा ज़माना मसरूफ़ियत (व्यस्तता) का भी था, और एक तरह से बेफ़िक्री का भी.

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