Friday, June 15, 2012

सूनी हो गई ग़ज़ल की सुरीली ड्योढ़ी !





साल रहा होगा १९८७-८८.मुकाम इन्दौर.म.प्र.सरकार के प्रतिष्ठा प्रसंग लता अलंकरण समारोह के अंतर्गत आयोजित सुगम समारोह में प्रस्तुति देने तशरीफ़ लाए हैं ग़ज़ल के शहंशाह मेहदी हसन साहब. तब का इन्दौर न तो चमकीली और महंगी गाडियों से लकदक था और न ही मॉल कल्चर इसकी फ़िज़ाओं में शरीक हुआ था .मेहदी हसन का आना एक बड़ी ख़बर ज़रूर थी लेकिन आज जनता-जनार्दन में सितारा कलाकारों को लेकर जिस तरह की बेसब्री होती है या अख़बारों के चिकने पन्ने सजे होते हैं;ऐसा कुछ था नहीं.बालों में सुफैदी की आमद हो चुकी थी और ख़ाँ साहब उसे ढँकने के लिये मेहंदी रंगे हुए थे.मेहदी साहब चूड़ीदार पजामा और लख़नवी कुर्ता पहने हुए थे.उंगलियों में हर वक़्त धुँआ छोड़ती एक सिगरेट . साथ में कामरान आया था जो उनका बेटा है और बेहतरीन की-बोर्ड बजाता है. दो दिन की मेहमाननवाज़ी थी हमारे ज़िम्मे और लग रहा था कि बाज़ मौक़ों पर लटके-झटके दिखाने वाले कलाकारों की तरह ही होगा इनका बर्ताब भी.एयरपोर्ट से लेकर होटल और फिर प्रोग्राम के लिये आयोजन स्थल तक जब भी उनके साथ रहने का मौक़ा आया पर लगा ही नहीं कि हम किसी अंतरराष्ट्रीय कलाकार से रुबरू हैं. हर लम्हा मुस्कुराते और अनौपचारिक होकर बतियाते मेहदी हसन साहब को जानना इस बात से बाख़बर होना भी था कि किसी कलाकार के महान होने के लिये रियाज़,घराना,विरासत,उस्तादों के बड़े बड़े नाम से भी बड़ी बात होती है उसकी विनम्रता,इंसानी पहलू और बोल-व्यवहार.बमुश्किल आधे घंटे में वे हमसे बेतक़ल्लुफ़ हो गये थे.जब उन्हें बताया कि राजस्थानी और मालवी संस्कृति में बोली,पहनावे,खानपान और रिवाजों का आत्मीय राब्ता है तो वे बेधड़क राजस्थानी में शुरू हो गये और दोनो दिन मीठी राजस्थानी में बतियाते रहे.
दिन में उन्होंने फ़रमाइश कर दी थी कि उनके लिये पान का इंतज़ाम करना होगा.मैंने उनके लिये बनारसी पान जुगाड़ लिये जो होल्कर रियासत के पनवाड़ी सरकारी तम्बोली की दुकान से लिये गये थे. मेहदी हसन साहब पान खाकर ऐसे चहक उट्ठे जैसे मैं उनके लिये आसमान से तारे तोड़ लाया हूँ.

दोपहर के खाने के बाद मैंने कहा अब आप आराम कीजिये तो बोले आराम के लिये ज़िन्दगी पड़ी है बरख़ुरदार.आपके शहर में पहली बार गा रहे हैं और वह भी कोई ऐसा-वैसा नहीं,उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब और लता बाई का शहर.दोपहर में तक़रीबन दो घंटे मेहदी हसन साहब ने रियाज़ किया.जब मैं उनसे विदा लेने लगा तो पूछने लगे शाम को प्रोग्राम का टाइम क्या है.मैंने कहा सात बजे; कितने बजे लेने आएँ आपको.बोले हम छह बजे हॉल पर पहुँच जाना चाहते हैं.शाम को ठीक वक़्त पर उस्तादजी तैयार थे. ग्रीन रूम में उन्हें ले जाकर इत्मीनान से बैठाया तो उन्होंने कामरान और साज़िन्दों को बैलेंसिग के लिये भेज दिया.

इन्दौर में शास्त्रीय संगीत की मह्फ़िलों का बड़ा अनुष्ठान अभिनव कला समाज और उसके दफ़्तर में बैठे हैं ग़ज़ल के शहंशाह.उस्तादजी ने कहा कि इस कमरे का दरवाज़ा बंद कर लो और कोई दस्तक भी दे तो मत खोलना.मैंने सोचा कि शायद रियाज़ करेंगे. मेहदी हसन एक तखत जिस पर गाव-तकिया लगा हुआ था; वज्रासन में बैठ गये.आँखें बंद हैं. और ख़ामोशी से ध्यान मग्न हैं..तक़रीबन दस मिनट बाद उनकी आँखों से आँसू झर रहे हैं. फिर बड़ी बड़ी भूरी आँखें खुलीं और ख़ाँ साहब ने आसमान की ओर देखा..मैंने पूछा इबादत चल रही थी ? उस्तादजी ने मुझे अपने उत्तर से एक लम्हा रोमांचित कर दिया और आज जब ये स्मृति चित्र लिख रहा हूँ तो मैं उसी ग्रीन रूम में पहुँच गया हूँ और मेरी मन:स्थिति ठीक वैसी ही है (फ़र्क़ बस इतना है कि उस दिन उनकी आँखों में आँसू थे;आज मेरी). मेहदी हसन बोले अरे नहीं भाई दर-असल मैं अपने उस्तादों को याद करने के बाद अपनी सारी ग़ज़लों के शायरों को शुक्रिया अदा कर रहा था कि उनके करिश्माई अल्फ़ाज़ों की वजह से ही तो मुझे दाद मिलती है. साथ ही मैं सभी कम्पोज़िशन को गाने के पहले एक बार रवाँ भी कर लेता हूँ इससे रागों का इंतेख़ाब भी हो जाता है .मैं सोच रहा था बरसों से ग़ज़ल को पालने-पोसने वाला यह नामचीन गुलूकार कितना विनम्र है. फिर मैंने कहा ख़ाँ साहब बताइये तो आँखों में आँसू क्यों कर आ गये.तो मेहदी हसन बोले भाई अल्लाताला का शुक्रिया अदा कर रहा था कि उन्होंने मुझे मौसीक़ी की ख़िदमत का ज़िम्मा जो सौंप रखा है. उसकी नेमतों को याद कर के थोड़ा जज़बाती हो गया था. चूँकि मैं उनका शो एंकर कर रहा था सो मैंने पूछा आज कंसर्ट की इब्तेदा कैसे करेंगे.बोले तुम बताओ क्या सुनोगे ? मैंने कहा ख़ाँ साहब आपका ताल्लुक़ राजस्थान से है और फ़िलवक़्त आप मालवा में हैं क्यों न आप आज माँड गाकर आमद लें.ख़ाँ साहब ने कहा आज ऐसा ही सही.और मालवा की वह शाम मेहदी हसन की माँड का मादक स्वर का स्पर्श पाकर 'केसरिया बालम आओ नी पधारो म्हारे देस' से गमक उठी.


मेहदी हसन की गायकी का खूँटा तक़रीबन साठ बरसों तक जमा रहा. इसमें कोई शक नहीं कि उनके पहले बरकत अली खाँ,के.एल.सहगल,बेगम अख़्तर,मास्टर मदन,तलत मेहमूद ग़ज़ल की दुनिया में अपनी पहचान मुकम्मिल कर चुके थे और ग़ज़ल को मनचाही परवाज़ मिल भी रही थी लेकिन उसे अवाम की ज़द में लाने का काम तो मेहदी हसन ने ही किया. क्लासिकल मौसीक़ी को आधार बनाकर ज़्यादातर ग़ज़लें उन्होंने हारमोनियम,तबला की संगति में गाई.इस बात को ज़्यादातर संगीतकार और संमीक्षक तस्लीम कर लें तो बेहतर होगा कि उस्ताद मेहदी हसन के बाद री-पैक हुई है बिशा शक फली-फूली भी है.

ग़ालिब,फ़ैज़,फराज़,हफ़ीज़ जलंधरी,से लेकर क़तील शिफ़ाई तक तमाम शायरों के अशआर उनकी सुनहरी आवाज़ से झरे.पाकिस्तानी फ़िल्मों में भी उनकी सक्रियता बनी रही. लेकिन उनका ख़ास इलाक़ा तो ग़ज़ल ही था. ख़ुद बेजोड बाजा बजाते हुए उनका स्वर षडज लगता तो शाएरों के क़लम का रुतबा बढ़ जाता. 'रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिये आ' को उन्होंने ख़ुसूसी अंदाज़ में यमन में बांधा और परिणाम यह हुआ कि यह एक ग्लोबल गज़ल बन गई.यक़ीनम अहमद फराज की अपार लोकप्रियता का श्रेय काफी हद तक मेहदी हसन साहब की गई इस ग़ज़ल को भी दिया जाना चाहिये. ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं ,मोहब्बत करने वाले कम न होंगे,मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो,गुलों में रंग भरे बादे नौबहार चले,चराग़े तूर जलाओ बड़ा अंधेरा है,अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबो में मिले,दिल की बात लबों तक लाकर,गुलशन गुलशन शोला ए गुल की,पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है; ऐसी रचानाएँ हैं जो आम आदमी में इसलिये लोकप्रिय हुईं क्योंकि उसे मेहदी हसन जैसा अमृत-स्वर मिला.उन्होंने रागदारी का दामन कभी न छोड़ा और अपने उस्तादों की तालीम का तेवर क़ायम रखा.इत्मीनाम और तसल्ली से विस्तार पाती उनकी पेशकश में ठुमरी का रंग नुमाया होता तो कभी लगता आलाप,तान और मुरकियाँ अपना तिलिस्म बता रहीं हैं.यहाँ यह कहना भी प्रासंगिक होगा कि रेडियो(भारत-पाकिस्तान दोनो) का जो सुगम-संगीत था उसे निखारने और सँवारने में उस्ताद मेहदी हसन का योगदान कभी भुलाया न जा सकेगा.इस विधा ने बहुतेरे गायक दिये,लेकिन ये सिलसिला अब थम सा गया है.


बहरहाल, मेहंदी हसन के पहले भी थी और बाद में भी जारी रहेगी लेकिन उसे बरतने का जो सलीक़ा इस फ़नक़ार ने दिया वह उसी के साथ रुख़सत हो गया है. यूँ बीते दस-बारह वर्षों से मेहदी हसन बीमार थे लेकिन ये तकनीक का ही कमाल है कि वह हमारे घर-आँगन का लाड़ला स्वर बने रहे. नई आवाज़ों के लिये आज भी मेहदी हसन ग़ज़ल का विद्यापीठ बने रहेंगे. पाकिस्तान में उनके चाहने वालों की कमीं नहीं लेकिन बिला शक हिन्दुस्तान के संगीतप्रेमी उनकी महफ़िलों के लिये हमेशा बेसब्र रहे.यह उनकी गायकी का जादू ही है कि सुकंठी लता मंगेशकर तनहाई में सिर्फ़ मेहदी हसन को सुनना पसंद करती हैं.इसे भी तो एक महान कलाकार का दूसरे के लिये आदरभाव ही माना जाना चाहिये. हम सब की ज़िन्दगी यथावत चलती रहेगी लेकिन मेहेदी हसन के जाने से ग़ज़ल की ड्योढ़ी तो सूनी हो गई है. समय बेरुख़ी से संगीत को बेसुरा बनाने पर आमादा है लेकिन जब कभी इंसान की रूह को सुरीलेपन की तलाश होगी,मेहदी हसन की आवाज़ ही उसे आसरा देगी.

5 comments:

Ashok Pande said...

आप से रश्क होता है संजय भाई! उस्ताद की यादों को इतने अंतरंग तरीके से यहाँ साझा करने का शुक्रिया!

खान साहेब को नमन!

kumar siddharth said...

sanjay bhai
Mehadi Hasanji k baarey me padhakar esa lag raha tha ki
hum bhi aap ki yaadgar
samaritiyo k humsafer the.
Pura ghatnakarm aakho me
ghumraha hai.
Esay Namra aziz vaktitav
ko salam.

Kumar Siddharth

eSwami said...

दुर्भाग्य से मैं उस कार्यक्रम में जा नही पाया था इसका बहुत मलाल उस दिन से रहा है और हमेशा रहेगा.

Unknown said...

अफ़सोस, सख्त अफ़सोस...
आपसे इर्ष्या रहेगी!

शायदा said...

bahut achhe sanjay bhai..is yaad ko share karne ka shukria.