Sunday, June 17, 2012

आखिर मैं क्या कर पाऊंगा उनके बिना?

युवा भारत का स्वागत

- आलोक  धन्वा 

युवा नागरिकों से
भारत का अहसास
ज्यादा होता है

जिस ओर भी उठती है
मेरी निगाह
सड़कें, रेलें, बसें,
चायखाने और फुटपाथ
लड़के और लड़कियों से
भरे हुए
वे बातें करते रहते हैं
कई भाषाओं में बोलते हैं
कई तरह के संवाद

मैं सुनता हूं
मैं देखता हूं देर तक
घर से बाहर निकलने पर
पहले से अधिक अच्छा
लगता है

कितना लंबा गलियारा है
क्रूरताओं का
जिसे पार करते हुए ये युवा
पहुंच रहे हैं पढ़ाई-लिखाई के बीच

दाखिले के लिए लंबी कतारें लगी हैं
विश्वविद्यालयों में

यह कोई साधारण बात नहीं है
आज के समय में
वे जीवन को जारी रख रहे हैं
एक असंभव होते जा रहे
गणराज्य के विचार
उनसे विचलित हैं

उनकी सड़कें दुनिया भर में
घूमती हैं
वे कहीं भी बसने के लिए
तैयार हैं

यह सिर्फ लालच नहीं है
और न उन्माद
आप पुस्तकालयों में जाइए
और देखिए
इतनी भीड़ युवा पाठकों की

वहां कला होती थी
मैं डालता हूं उनकी भीड़ में
अपने को
मुझे उनसे बार-बार घिर जाना
राहत देता है

आखिर मैं क्या कर
पाऊंगा उनके बिना?

2 comments:

पारुल "पुखराज" said...

मैं डालता हूं उनकी भीड़ में
अपने को
मुझे उनसे बार-बार घिर जाना
राहत देता है…

बहुत अच्छी बात / कविता

वीरेन डंगवाल said...

aalok ki ye bahut sunder kavitayen yahan ek saath dekar barhiya kam kiya kabaadkhaana ne.varna hindi sahitya jagat ki smriti to durbal hoti ja rahi hai
viren