Monday, June 25, 2012

लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं


मरहूम मेहदी हसन खान की गई मिर्ज़ा ग़ालिब की ग़ज़ल -

 

दायम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
ख़ाक ऐसी ज़िन्दगी पे कि पत्थर नहीं हूँ मैं

क्यों गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न जाये दिल?
इन्सान हूँ, प्याला-ओ-साग़र नहीं हूँ मैं

या रब! ज़माना मुझ को मिटाता है किस लिये
लौह-ए-जहां पे हर्फ़-ए-मुक़र्रर नहीं हूँ मैं

हद चाहिये सज़ा में उक़ूबत के वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ, काफ़िर नहीं हूँ मैं

(दायम - हमेशा, गर्दिश-ए-मुदाम - हमेशा की गर्दिश, लौह-ए-जहां - संसार का कागज़, हर्फ़-ए-मुक़र्रर - बार बार लिखी गयी इबारत, उक़ूबत - तकलीफ) 

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