फ़िल्म का ख़ासा इंतज़ार करवाया था मीडिया ने. और जाहिर है शुरुआती रिव्यूज में इसे अतिमानवीय कारनामा बतलाते हुए निर्देशक महोदय को भूत-वर्तमान-भविष्य में देख लेने वाला बताया जा रहा था. कुछेक अभिनेताओं के काम को कालातीत बताया गया. मैंने इस फ़िल्म का ट्रेलर कुछ दिन पहले देखा था. उसमें इस कदर बेशुमार गालियाँ थीं कि इंतज़ार करने की कोई ज़रूरत ही नहीं बची थी. पिछले कुछ सालों में हिन्दी पट्टीवासियों को अपनी फ़िल्मों में माँ-बहन की गालियाँ सुनने की उत्तेजना झेलने की आदत पड़ चुकी है. बैंडिट क्वीन के समय तक यह ख़ासा एडवेंचरस लगता था कि कोई निर्देशक अपने देश की किसी अभिनेत्री को नंगा दिखा दे या उसके मुंह से पुरुषों वाली एक गाली निकलवा ले. पर इधर ऐसी अति हुई है कि गालियों पर आधारित गाने ही किसी फ़िल्म को हिट करवा दे रहे हैं. सैक्स के नाम पर ऐसी जुगुप्सा फैलाई गयी है कि हम छोटे शहरों के बाशिंदों के मुंह से न आह निकल सके न वाह न कराह. और हिंसा के ऐसे हैबतनाक चेहरे ... उफ़! क्या हिटलर का दमन-राज वर्तमान से बेहतर था जिसे कैसे-कैसे बड़े निर्देशकों ने अपनी कालजयी फिल्मों में दिखाया है?
इस तरह की फ़िल्मों का इंतज़ार आदतन नहीं रहता पर जब-तब रात-बेरात अपनी पसंद की किसी फ़िल्म को एक दफा और देखने के उपरान्त मुझे चोर दरवाजों से झाँकने की आदत से निजात अब तक नहीं मिली है. एक मित्र अंगम शाएजा ने अपनी फेसबुक दीवार पर लिखा - sad, waylaid, populist, hijacked, stretched, mixed up, confused ... poor director. जवाब में मुम्बई से एक और दोस्त जीवन गर्ब्याल ने लिखा - Overrated Director, ... makes khichdi of Quentin/Martin and tries to serve in Indian thali.... totally depends on marketing hype...( Typical Hansraj College guy and he is...) ... gets his way thru Censor board in the name of Cinematic freedom...
इसके बाद जब कल अनिल यादव ने इस फ़िल्म का रिव्यू जैसा अपनी फेसबुक दीवार पर किया तो “गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर लिखी उनकी टिप्पणी को यहाँ लगाने का लालच हुआ.
बड़ी मुश्किल से खुद को “गैंग्स आफ वासेपुर” का रिव्यू लिखने से रोक पा रहा हूं. अब औचित्य नहीं है. अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं. सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है. वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है. कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है.
मैं यह फिल्म देखने लखनऊ की एक दीवार पर लाल-काले फ्रेम की एक ‘वाल राइटिंग’ से प्रेरित होकर गया था जिसमें कहा गया था सीक्वेल का ट्रेलर देखना न भूलें, सो फिल्म खत्म होने के बाद भी बैठा रहा. लेकिन हाल तेजी से खाली होता जा रहा था, बिल्कुल खाली हो गया, जो अपने आप में एक प्रामाणिक प्रतिक्रिया थी. मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलते हुए मैने पाया, सिर में कई ओर तेज ‘सेन्सेशन’ हो रहे हैं जो कुछ देर बाद दर्द के रूप में संगठित हो जाने वाले थे.
घर लौटकर मैं ध्यान में चला गया. जानना जरूरी था कि फिल्म की जैविक प्रतिक्रिया ऐसी नकारात्मक और तकलीफदेह क्यों है. फिल्म देखते हुए सांस कई बार उखड़ी थी, भीतर नए रसायन लीक हुए थे और दिमाग के कई हिस्से अनियंत्रित ढंग से उछल रहे थे. ऐसा उन आवाजों और कई दृश्यों के कारण था जो सीधे निर्मम जिन्दगी से अचानक आए थे. मसलन उस दाई की दयनीय आवाज जो नवजात सरदार खान को उसके बाप को सौंपते हुए एक सांस में कहती है- ...(मां का नाम भूल गया)...तो मू गई लेकिन बड़ा सुंदर लइका भयल है....कसाई टोले में लटकी भैंसों की ठठरियों के बीच एक आदमी का बोटियाया जाना जिसकी रान अधखुले दरवाजे से दिखाई दे रही है...रामाधीर सिंह का एक बच्चे को, उसी के बाप (जिसे अभी उसने कटवा दिया है) के खून का तिलक लगाते हुए कहना, तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थे. बमों के धमाके बीच एक बूढ़े का ढोलक बजाकर कराहना- ए मोमिनों दीन पर ईमान लाओ...कुएं पर बंगालिन का एक एंद्रिक एंठन में अपना मुंह बालों में छिपा लेना...अपनी मां को एक गैरमर्द के साथ अधनंगे देख लेने के बाद बच्चे फजल का गुमसुम हो जाना...सरदार खान का एक आदमी को अनौपचारिक निस्संगता से गोद कर मारना जैसे कोई गेहूं के बोरे में परखी चलाता हो... ‘बिना परमिशन’ हाथ छू लेने पर प्रेमिका द्वारा स्नब किए जाने पर फजल खान जैसे चंट गंजेड़ी का रो पड़ना आदि.
यह सब स्मृति के स्पेस में छितरा हुआ अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहा था लेकिन उन्हें आपस में पिरोने वाला धागा गायब था. धांय धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है. उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है. सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है. हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं. उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है. वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने गैंग में से ही किसी को बनाना चाहता है. उसका कैरेक्टर बैलठ (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-सवा साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं. होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता. लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है. यह बहुत बड़ा झोल है.
कहानी के साथ संगति न बैठने के कारण लगभग सारे गाने बेकार चले गए हैं. ‘बिहार के लाला’ सरदार खान के मरते वक्त बजता है. गोलियों से छलनी सरदार भ्रम, सदमे, प्रतिशोध और किसी तरह बच जाने की इच्छा के बीच मर रहा है. उस वक्त का जो म्यूजिक है वह बालगीतों सा मजाकिया है और गाने का भाव है कि बिहार के लाला नाच-गा कर लोगों का जी बहलाने के बाद अब विदा ले रहे हैं. इतने दार्शनिक भाव से एक अपराधी की मौत को देखने का जिगरा किसका है, अगर किसी का है तो वह पूरी फिल्म में कहीं दिखाई क्यों नहीं देता. ‘कह के लूंगा’ जैसे द्विअर्थी गाने की उपस्थिति इस बात का पुख्ता सबूत है कि अनुराग को माफिया जैसे पापुलर सब्जेक्ट के गुरुत्व और असर का अंदाजा कतई नहीं था. फ्लाप होने की असुरक्षा और एक दुर्निवार विकृत लालच के मारे निर्देशक फूहड़ गानों और संवादों से अच्छे सब्जेक्ट की संभावनाओं की हमेशा हत्या करते आए हैं. रचना के पब्लिक डोमेन में आने के बाद स्वतंत्र शक्ति बन जाने के नजरिए देखें तो शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं ‘कस के लेगी’ इसमें कोई दो राय नहीं है.
ध्यान में जरा और गहरे धंसने पर जब प्रतिक्रिया पैदा करने वाले सारे टुकड़े विलीन हो गए तो सांसें और उन्हें महसूस करती चेतना बचे रह गए. फिर भी खाली जगह में एक बड़ा सा क्यों कुलबुला रहा था. ऐसा निर्देशक जो कई बार कान्स हो आया है, देसी है, दर्शकों से जिसका सीधा संवाद है, जिसकी रचनात्मकता का डंका बजाया जा रहा है- वह ऐसी फिल्म क्यों बनाता है जो कोल माफिया पर है लेकिन उसमें खदान की जिन्दगी नहीं है. कोलियरी मजदूरों की बस्तियां भी नहीं है जिसका जिक्र पूरबिए अपने लोकगीतों में करते आए हैं. सीपिया टोन के दो फ्रेम और अखबारी कतरनों में उसे निपटा दिया गया जिसे समीक्षक गहन रिसर्च बता रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं है कि कई देशों के सिनेतीर्थों की मिट्टी लेकर भव्य मूरत तो गढ़ ली गई लेकिन भारतीय माफिया की आत्मा ने उसमें प्रवेश करने से इनकार कर दिया.
इस ‘क्यों’ पर ज्यादा दबाव के कारण स्मृति ने कहीं देखा हुआ एक कार्टून दिखाया जिसमें एक जड़ीला संपादक एक लेखिका से कह रहा है-“We loved all the words in your manuscript but we were wondering if you could maybe put them in a completely different order.”
कैसा संयोग... किसी और शहर में ठीक वही शो कथाकार और फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत भी देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उनका एसएमएस आया- “ हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती है- कोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरण- रोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीम-जावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है.”
इस तरह की फ़िल्मों का इंतज़ार आदतन नहीं रहता पर जब-तब रात-बेरात अपनी पसंद की किसी फ़िल्म को एक दफा और देखने के उपरान्त मुझे चोर दरवाजों से झाँकने की आदत से निजात अब तक नहीं मिली है. एक मित्र अंगम शाएजा ने अपनी फेसबुक दीवार पर लिखा - sad, waylaid, populist, hijacked, stretched, mixed up, confused ... poor director. जवाब में मुम्बई से एक और दोस्त जीवन गर्ब्याल ने लिखा - Overrated Director, ... makes khichdi of Quentin/Martin and tries to serve in Indian thali.... totally depends on marketing hype...( Typical Hansraj College guy and he is...) ... gets his way thru Censor board in the name of Cinematic freedom...
इसके बाद जब कल अनिल यादव ने इस फ़िल्म का रिव्यू जैसा अपनी फेसबुक दीवार पर किया तो “गैंग्स ऑफ वासेपुर" पर लिखी उनकी टिप्पणी को यहाँ लगाने का लालच हुआ.
बड़ी मुश्किल से खुद को “गैंग्स आफ वासेपुर” का रिव्यू लिखने से रोक पा रहा हूं. अब औचित्य नहीं है. अनुराग कश्यप चलती का नाम गाड़ी हो चुके हैं. सितारेदार प्री-पेड रिव्यूज का पहाड़ लग चुका है. वे अब आराम से किसी भी दिशा में हाथ उठाकर कह सकते हैं- इतने सारे लोग बेवकूफ हैं क्या? फिर भी इतना कहूंगा कि दर्शकों को चौंकाने के चक्कर में कहानी का तियापांचा हो गया है. कहानी की खामोश ताकत से अनजान निर्देशक गालियों और गोलियों पर ही गदगद है.
मैं यह फिल्म देखने लखनऊ की एक दीवार पर लाल-काले फ्रेम की एक ‘वाल राइटिंग’ से प्रेरित होकर गया था जिसमें कहा गया था सीक्वेल का ट्रेलर देखना न भूलें, सो फिल्म खत्म होने के बाद भी बैठा रहा. लेकिन हाल तेजी से खाली होता जा रहा था, बिल्कुल खाली हो गया, जो अपने आप में एक प्रामाणिक प्रतिक्रिया थी. मल्टीप्लेक्स से बाहर निकलते हुए मैने पाया, सिर में कई ओर तेज ‘सेन्सेशन’ हो रहे हैं जो कुछ देर बाद दर्द के रूप में संगठित हो जाने वाले थे.
घर लौटकर मैं ध्यान में चला गया. जानना जरूरी था कि फिल्म की जैविक प्रतिक्रिया ऐसी नकारात्मक और तकलीफदेह क्यों है. फिल्म देखते हुए सांस कई बार उखड़ी थी, भीतर नए रसायन लीक हुए थे और दिमाग के कई हिस्से अनियंत्रित ढंग से उछल रहे थे. ऐसा उन आवाजों और कई दृश्यों के कारण था जो सीधे निर्मम जिन्दगी से अचानक आए थे. मसलन उस दाई की दयनीय आवाज जो नवजात सरदार खान को उसके बाप को सौंपते हुए एक सांस में कहती है- ...(मां का नाम भूल गया)...तो मू गई लेकिन बड़ा सुंदर लइका भयल है....कसाई टोले में लटकी भैंसों की ठठरियों के बीच एक आदमी का बोटियाया जाना जिसकी रान अधखुले दरवाजे से दिखाई दे रही है...रामाधीर सिंह का एक बच्चे को, उसी के बाप (जिसे अभी उसने कटवा दिया है) के खून का तिलक लगाते हुए कहना, तुम्हारे पिताजी बहुत बड़े आदमी थे. बमों के धमाके बीच एक बूढ़े का ढोलक बजाकर कराहना- ए मोमिनों दीन पर ईमान लाओ...कुएं पर बंगालिन का एक एंद्रिक एंठन में अपना मुंह बालों में छिपा लेना...अपनी मां को एक गैरमर्द के साथ अधनंगे देख लेने के बाद बच्चे फजल का गुमसुम हो जाना...सरदार खान का एक आदमी को अनौपचारिक निस्संगता से गोद कर मारना जैसे कोई गेहूं के बोरे में परखी चलाता हो... ‘बिना परमिशन’ हाथ छू लेने पर प्रेमिका द्वारा स्नब किए जाने पर फजल खान जैसे चंट गंजेड़ी का रो पड़ना आदि.
यह सब स्मृति के स्पेस में छितरा हुआ अलग-अलग दिशाओं में उड़ रहा था लेकिन उन्हें आपस में पिरोने वाला धागा गायब था. धांय धांय, गालियों, छिनारा, विहैवरियल डिटेल्स, लाइटिंग, एडिटिंग के उस पार देखने वालों को यह जरूर खटकेगा कि सरदार खान (लीड कैरेक्टर: मनोज बाजपेयी) की फिल्म में औकात क्या है. उसका दुश्मन रामाधीर सिंह कई कोयला खदानों का लीजहोल्डर है, बेटा विधायक है, खुद मंत्री है. सरदार खान का कुल तीन लोगों का गिरोह है. हत्या और संभोग उसके दो ही जुनून हैं. उसकी राजनीति, प्रशासन, जुडिशियरी, जेल में न कोई पैठ है न दिलचस्पी है. वह सभासद भी नहीं होना चाहता न अपने गैंग में से ही किसी को बनाना चाहता है. उसका कैरेक्टर बैलठ (मतिमंद) टाइप गुंडे से आगे नहीं विकसित हो पाया है जो यूपी बिहार में साल-सवा साल जिला हिलाते हैं फिर टपका दिए जाते हैं. होना तो यह चाहिए था कि रामाधीर सिंह उसे एक पुड़िया हिरोईन में गिरफ्तार कराता, फिर जिन्दगी भर जेल में सड़ाता. लेकिन यहां सरदार के बम, तमंचे और शिश्न के आगे सारा सिस्टम ही पनाह मांग गया है. यह बहुत बड़ा झोल है.
कहानी के साथ संगति न बैठने के कारण लगभग सारे गाने बेकार चले गए हैं. ‘बिहार के लाला’ सरदार खान के मरते वक्त बजता है. गोलियों से छलनी सरदार भ्रम, सदमे, प्रतिशोध और किसी तरह बच जाने की इच्छा के बीच मर रहा है. उस वक्त का जो म्यूजिक है वह बालगीतों सा मजाकिया है और गाने का भाव है कि बिहार के लाला नाच-गा कर लोगों का जी बहलाने के बाद अब विदा ले रहे हैं. इतने दार्शनिक भाव से एक अपराधी की मौत को देखने का जिगरा किसका है, अगर किसी का है तो वह पूरी फिल्म में कहीं दिखाई क्यों नहीं देता. ‘कह के लूंगा’ जैसे द्विअर्थी गाने की उपस्थिति इस बात का पुख्ता सबूत है कि अनुराग को माफिया जैसे पापुलर सब्जेक्ट के गुरुत्व और असर का अंदाजा कतई नहीं था. फ्लाप होने की असुरक्षा और एक दुर्निवार विकृत लालच के मारे निर्देशक फूहड़ गानों और संवादों से अच्छे सब्जेक्ट की संभावनाओं की हमेशा हत्या करते आए हैं. रचना के पब्लिक डोमेन में आने के बाद स्वतंत्र शक्ति बन जाने के नजरिए देखें तो शुरूआती गुबार थमने के बाद यह फिल्म अपने निर्देशक की कह के नहीं ‘कस के लेगी’ इसमें कोई दो राय नहीं है.
ध्यान में जरा और गहरे धंसने पर जब प्रतिक्रिया पैदा करने वाले सारे टुकड़े विलीन हो गए तो सांसें और उन्हें महसूस करती चेतना बचे रह गए. फिर भी खाली जगह में एक बड़ा सा क्यों कुलबुला रहा था. ऐसा निर्देशक जो कई बार कान्स हो आया है, देसी है, दर्शकों से जिसका सीधा संवाद है, जिसकी रचनात्मकता का डंका बजाया जा रहा है- वह ऐसी फिल्म क्यों बनाता है जो कोल माफिया पर है लेकिन उसमें खदान की जिन्दगी नहीं है. कोलियरी मजदूरों की बस्तियां भी नहीं है जिसका जिक्र पूरबिए अपने लोकगीतों में करते आए हैं. सीपिया टोन के दो फ्रेम और अखबारी कतरनों में उसे निपटा दिया गया जिसे समीक्षक गहन रिसर्च बता रहे हैं. कहीं ऐसा तो नहीं है कि कई देशों के सिनेतीर्थों की मिट्टी लेकर भव्य मूरत तो गढ़ ली गई लेकिन भारतीय माफिया की आत्मा ने उसमें प्रवेश करने से इनकार कर दिया.
इस ‘क्यों’ पर ज्यादा दबाव के कारण स्मृति ने कहीं देखा हुआ एक कार्टून दिखाया जिसमें एक जड़ीला संपादक एक लेखिका से कह रहा है-“We loved all the words in your manuscript but we were wondering if you could maybe put them in a completely different order.”
कैसा संयोग... किसी और शहर में ठीक वही शो कथाकार और फिल्म समीक्षक दिनेश श्रीनेत भी देख रहे थे. थोड़ी देर बाद उनका एसएमएस आया- “ हर बेहतर फिल्म निजी जिंदगियों की कहानी कहती है और इस तरह से विस्तार लेती है कि वह कहानी निजी न होकर सार्वभौमिक हो जाती है- कोई बड़ा सत्य उद्घाटित करती है (उदाहरण- रोमान पोलांस्की की पियानिस्ट, स्पाइडरमैन, बैटमैन सिरीज़ या फिर सलीम-जावेद की लिखी अमिताभ की फिल्में) यहां उल्टा है, इतिहास से चलती हुई कहानी अंत तक पहुंचते-पहुंचते एक व्यक्ति की निजी जिंदगी के फंदे में झूल जाती है.”
2 comments:
prejudiced of being gr8 !
Its no less than a criminal offense in creative field.
मेरा भी यही कहना है जो एबीसीडी कह रहे हैं. यह तो दृश्य कला के सृजन-संसार में क्रिमिनल ऑफ़ेंस की तरह ही है.
अनुराग कश्यप क्या, कोई भी निर्देशक यदि रक्तरंजित बोटियाँ स्क्रीन पर दिखाएगा, तो वासेपुर जैसा इफ़ेक्ट हर कहीं पैदा कर लेगा.
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