कल २५ जून को लखनऊ के सहारा अस्पताल में प्रो. रामकृष्ण मणि त्रिपाठी का निधन हो गया.
साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद के खिलाफ जन-आन्दोलनों की एक सशक्त बौद्धिक आवाज़ हमारे बीच अचानक खामोश हो गयी. पिछले २३ मार्च को गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में प्रतिरोध के सिनेमा पर उनका उद्बोधन सार्वजनिक कार्यक्रमों में उनकी अंतिम उपस्थिति के बतौर लोगों की स्मृति में दर्ज रह जाएगा.
२ नवम्बर, १९२९ को जन्मे प्रो. त्रिपाठी आजमगढ़ जनपद के मूल निवासी थे जहां शिबली कालेज से इंटरमीडियट तक की शिक्षा लेने के बाद वे उच्च शिक्षा के लिए इलाहाबाद आए. इलाहाबाद में वे कम्यूनिस्ट पार्टी के भूतपूर्व महासचिव पी. सी. जोशी के संपर्क में आए और स्टूडेंट फेडरेशन की सदस्यता के रास्ते होते हुए भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी के सदस्य भी हो गए. राजनीति विज्ञान के मेधावी विद्यार्थी वे थे ही जिसके चलते उन्हें सन ५२-५४ में इलाहाबाद विश्विद्यालय में अध्यापन का अवसर मिला , लेकिन उस समय सरकार की कम्यूनिस्ट -विरोधी मुहीम के चलते विश्विद्यालय में उनकी नौकरी स्थायी नहीं हो सकी. कुछ ही दिनों बाद वे सी. एम्. पी. डिग्री कालेज में स्थायी प्रवक्ता नियुक्त हुए. १९५८ में गोरखपुर विश्विद्यालय खुला जहां वे राजनीति-विज्ञान विभाग में असिस्टंट प्रोफ़ेसर के पद पर नियुक्त हुए और सेवानिवृत्ति तक वे वहीं रहे.
गोरखपुर ही उनका स्थायी आवास और बौद्धिक कर्मभूमि बना. प्रो. त्रिपाठी न केवल राजनीतिक विचारों के इतिहास के अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक थे , बल्कि छात्रों और बौद्धिकों के बीच सार्वजनिक जीवन में सकारात्मक हस्तक्षेप के रोल-माडल भी थे. वे यह मानते थे कि लोकतंत्र की हिफाज़त के लिए लगातार जनता के बुनियादी सवालों पर जन-आन्दोलन होते रहने चाहिए. गोरखपुर और पूर्वी उत्तर-प्रदेश के ऐसे बहुतेरे आन्दोलनों में वे प्रत्यक्ष भागीदारी भी करते थे, चाहे वह बन-टांगिया मज़दूरों के विस्थापन का सवाल हो या पूरे अंचल में साम्प्रदायिकता के उफान का विरोध करने का मसला हो. लम्बे समय से पूरे अंचल में मानवाधिकार, लोकतंत्र, भ्रष्टाचार-विरोध, साम्प्रदायिकता और साम्राज्यवाद- विरोध की कोई भी बौद्धिक पहलकदमी उनके बगैर शायद ही संपन्न होती रही हो. वे ऐसे हर आयोजन में अनिवार्य उपस्थिति थे. कम्युनिस्ट पार्टी की आतंरिक बहसों के कारण पार्टी सदस्यता छोड़ देने के बाद भी लगातार वामपक्षीय विचारों और जन-आन्दोलनों के साथ रहे. गांधी के लोक-संपर्क और जन-जागरण के भी वे कायल थे. दर्शन, राजनीति-शास्त्र और साहित्य के गंभीर अध्येता होने के साथ साथ वे तमाम समाज-विज्ञानों की नवीनतम शोधों के प्रति जागरूक विद्वान् थे. जीवन के आखिरी दिनों तक नौजवानों से उनकी दोस्ती, बहस-मुबाहिसे कभी ख़त्म नहीं हुए. एक सच्चे बौद्धिक की तरह वे खुले दिल-दिमाग के साथ ही आन्दोलनों और गोष्ठियों में शिरकत करते थे और अपनी बातें बगैर लाग-लपेट के लोगों के समक्ष रखते थे.
सन २००३ में जब योगी आदित्यनाथ की साम्प्रदायिक मुहीम के खिलाफ लोग बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे, उन्होंने पीपुल्स फोरम जैसी संस्था के संस्थापक अध्यक्ष बनकर योगी और उनकी साम्प्रदायिक कार्रवाइयों का सार्वजनिक विरोध किया. पिछले दिनों अन्ना आन्दोलन के समर्थन में भारी जुलूस में वे 'वाकर' के सहारे चलते हुए शामिल हुए. ये उनकी दुर्घर्ष प्रतिबद्धता का ही प्रमाण था. लेकिन वे समर्थन भी आँख मूँद कर नहीं करते थे. अन्ना आन्दोलन का समर्थन करते हुए भी उन्होंने उसके कई तौर-तरीकों और विचार-दृष्टि की आलोचना सार्वजनिक तौर पर की.
जन संस्कृति मंच की पहल पर प्रतिरोध के सिनेमा के फेस्टिवल की जो मुहीम गोरखपुर से चलकर अब कई राज्यों तक सार्थक सिनेमा की मुहीम के बतौर फ़ैल चुका है, उसके संरक्षक , प्रेरणास्रोत और मार्गदर्शक प्रो. त्रिपाठी शुरू से लेकर मृत्यु-पर्यंत बने रहे. बगैर किसी स्पांसरशिप के, जनता के सहयोग के भरोसे सिनेमा के ज़रिए प्रगतिशील मूल्यों के प्रचार के वे सूत्रधार रहे. साहित्य में प्रेमचंद और सिनेमा में चार्ली चैपलिन उनके आदर्श थे. पिछले एक दशक में उन्होंने भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माले) के कई कार्यक्रमों में शिरकत की.
आज जब वे नहीं हैं, तो उनकी कमी हमें बराबर खलेगी. इस विरले जनपक्षधर बुद्दिजीवी को जन संस्कृति मंच का सलाम. हम उनके परिजन, छात्र और ढेरों चाहने वालों के दुःख में शरीक हैं. वे हमें सदा याद रहेंगे.
( २६ जून, इलाहाबाद, प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच, द्वारा जारी)
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