Saturday, June 30, 2012

सिंध में सत्रह महीने - अंतिम किस्त


(पिछली कड़ी से आगे)


करांची के एक मित्र ने अपने प्रांत की विशेषता बताते हुए बड़े अभिमान से कहा – ‘सिंधी भिखमंगे नहीं होते, मजूर, मोची, तेली-तमोली, सुनार-दर्जी सिंधी नहीं होते; वेश्याएं भी सिंधी नहीं होतीं.” “तो आखि़र ये आये कहां से?” मैंने उलटकर पूछा तो जवाब मिला “कच्छ, राजपूताना, पंजाब से; और घरेलू नौकर हमें आपके युक्त प्रांत से बहुत सस्ते मिलते हैं.”

सिंधी मित्र की उस मुस्कान ने मुझे चिढ़ाया नहीं, गंभीर बना दिया. गोरखपुर, बस्ती, फैजाबाद, गोंडा आदि के हज़ारों ग्रामीण सिंध में भरे पड़े हैं. इन्हें यहां वाले भैया कहकर पुकारते हैं. भर, बोन, अहीर, राजपूत, कुर्मी, ब्राह्मण सभी जाति के हैं और सब काम करते हैं. निरक्षरता और सफ़ाई का अभाव इन्हें स्थानीय लोगों से छांटकर अलग कर देता है. फिर शिक्षित से शिक्षित बिहारी और युक्त प्रांतीय बर्मा में जैसे ‘दरबान’ कहकर पुकारा जाता है, उसी तरह वह सिंध में ‘भैया’ कहकर बुलाया जाता है. इससे मैं स्वयं कई बार तिलमिला उठा हूं, और बाद में ठंडे दिमाग़ से कई बार सोचा है. दोष उनका नहीं, हमारा ही है. हज़ारों और लाखों की तादाद में होते हुए भी गुजरात, महाराष्ट्र और सिंध में ‘भैया’ अपमान और बुद्धू का प्रतीक बना हुआ है. जाहिल, चपाट और उजड्ड! कम से कम पैसा लेकर अधिक से अधिक काम कर देना, निरक्षर भट्टाचार्य होने के नाते जीवन-भर अंगूठा निशान करते रहना, परिवार को साथ नहीं रखना, फिर भी आजन्म प्रवास, ये हमें औरों की निगाह में हल्के बनाये रखता है. धोती पहनकर, कंधे पर चादर डालकर आचार्य कृपलानी करांची में एक बार भाषण कर रहे थे. श्रोताओं में सिंधियों की ही तादाद ज़्यादा थी. सभा जब विसर्जित हुई तो कइयों के मुंह से सुना गया, ‘असां जो कृपालाणी भैया भी व्यो आहे (हमारा कृपलानी भैया बन गया)!"

बच्चों की देख-भाल, रसोई-पानी, घर-बाग की रखवाली, पूजा-पाठ आदि कई दृष्टियों से सिंधी हिंदू भैया को ही पसंद करते हैं. परिवारों में बिखरे होने के कारण यों भी इनका संगठन मेढ़कों को तराजू में तोलने की तरह मुश्किल है. तिस पर शिक्षा की कमी, झूठ-मूठ का आत्मसंतोष इनको पिछड़ी हुई स्थिति में रखे हुए है. अब छोटी-मोटी दूकान भी ये लोग करने लगे हैं. फेरी लगाकर दही-बड़ा और पकोड़ा भी बेचना शुरू किया है. इक्के-दुक्के अपने लड़कों को पढ़ाने भी लग गये हैं.

सिंध के अधिवासी शांतिप्रिय, आतिथ्य परायण, सहिष्णु होते हैं. भिन्न-भिन्न प्रांतों से गये हुए लोगों की संख्या सिंध को सर्वादेशिक बना रही है. पंजाबी, बलोची, मारवाड़ी, गुजराती, कच्छी, काठियावाड़ी और भैया सब मिलाकर इतना हो गये हैं कि सिंधी इनकी तुलना में थोड़े लगते हैं. भोजन में भात और रोटी दोनों ही लोकप्रिय हैं. मांस-मछली न खाते हों, ऐसे सिंधी बहुत कम मिलेंगे. पापड़ खाने का काफ़ी रिवाज है. खटाई और मिर्चे का इस्तेमाल खूब करते हैं. कलामूलक वस्तुओं में कपड़ों की छपायी मुझे बहुत पसंद आयी. इस्लामी तूलिका से विचित्रा बेल-बूटों, मेहराब की तरह छपी हुई किनारीवाले कपड़े आपको बहुत ही आकर्षक लगेंगे. मिट्टी और सीमेंट के योग से तैयार किये हुए खपड़े और ईंटें भी सिंध के स्थापत्य कला-प्रेमियों की निगाह में विशेष स्थान दिलाती हैं. लकड़ी की वस्तुओं पर सिंधी कारीगर इतना बढ़िया वार्निश करते हैं कि देखते ही बनता है. जवाहरात के लिए तो सिंधी जौहरी मशहूर हैं ही.

सिंधुनद सिंध पहुंचते-पहुंचते ‘सप्तसिंधु’ कहलाने लगता है, क्योंकि वह अपने साथ कपिशा नदी और पंजाब की पांचों नदियों को साथ लिये इस भूमि में प्रवेश करता है. यहां और कई बातों की चर्चा आवश्यक थी, परंतु लेख बहुत लंबा हो गया है, अब मैं इसे यहीं समाप्त करता हूं. सिंध के इतिहास और पुरातत्व का, प्राकृतिक दृश्यों का अधिक वर्णन करने के लिए हिंदी में एक पुस्तक की आवश्यकता है.

(समाप्त)

3 comments:

abcd said...

हो सकता है "समाप्त" गलती से छप गया हो.....

Please recheck,We can't afford a misprint here.

अजित वडनेरकर said...

मनभावन और मनपसंद यात्रावृत्त रहा ये ।
अशोक भाई, आपका नम्बर मुझसे खो गया है । बात करने की बहुत दिनों से इच्छा है । मेहरबानी करें, नम्बर बताएँ या sms करें ।
07507777230
जै जै

विम्मी सदारंगानी said...

बहुत शुक्रिया अशोक जी..