(पिछली कड़ी से आगे)
सिंध का जनजीवन दूसरे प्रांतों की अपेक्षा सुखी है. कारण यह है कि वहां आबादी कम है. सिंधु नद से नहरें निकाल-निकालकर ग़ैर-आबाद और ऊसर ज़मीन को उपजाऊ बनाने की योजना अमल में बहुत कम लायी गयी है. फिर भी प्रांतीय सरकार की ओर से खेती करने के लिए बराबर लोगों का आव्हान होता रहता है. बाहर के लोग भी वहां जाकर खेती करने लगे हैं. पक्के कृषिकार तो वहां के मुसलमान ही हैं. सिंध के हिंदू व्यापारोन्मुखी जाति हैं. सिंधी सौदागर दुनिया के कोने-कोने में फैले हुए हैं. जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया, जापान, फारमूसा, चीन, मंचूरिया, कोरिया, मंगोलिया, अफ्रीका के निर्जनप्राय इलाकों में, अरब, ईरान, अफगानिस्तान, साम, सीरिया, मिस्र, यूरोप के छोटे-बड़े देशों में, अमेरिका के उत्तरी और दक्षिणी भागों में, और कहां नहीं ये सिंधी सौदागर फैले हुए हैं.
इस महासमर के युग में हज़ारों सिंधी धुरी राष्ट्रों द्वारा विजित देशों में अटके रहे. सिंधी व्यापारियों की यह जाति भाई-बंद (भाई-बंधु) कहलाती है. एक दिन किसी मित्र ने कहा - "मेरा भाई मंगोलिया की सरहद पर चार महीने रह आया है. सैकड़ों फोटो साथ लाया है. देखना हो तो साथ चलिये."
मैंने देखा तो सोवियत मंगोलिया के उद्बुद्ध जीवन के प्रतीक कई चित्र थे. उस युवक से बातें हुईं, राजनीतिक मामले में काफ़ी जागरूक निकला वह. दूर-दूर तक फैले हुए ये सिंधी सौदागर अपने देश लौटकर दान-पुण्य के खाते में काफ़ी रकम ख़र्च करते हैं. ऐसे ही एक सौदागर ने मुझे हंसकर कहा – “हम अपने देशवासियों को थोड़े लूटते हैं? बाहरवालों को मूड़ते हैं, अपनों को खिलाते-पिलाते हैं...” और, ठीक 186 ही कहा था उसने. व्यापार-क्षेत्र में सिंधियों की जो प्रसिद्धि है, वह बाहरी दुनिया को लेकर ही है. भारत के दूसरे प्रांतों में सिंधी व्यापारी बहुत कम हैं, परंतु भारत के बाहर व्यापारी बनकर रहनेवाले भारतीयों में सबसे बड़ी संख्या सिंधियों की ही है.
मारवाड़ी तो अभी बर्मा तक ही पहुंचे हैं. आगे बढ़ने में धर्म का बाह्य आडंबर उन्हें रोके हुए है. सिंधियों की स्थिति इस संबंध में प्रगतिशील है. छूत-छात का भूत उनसे हार मानता है. नानकपंथी और सूफ़ी भावना के कारण उनमें हद दर्जे की सर्व-धर्म सहिष्णुता होती है. बाहरी दुनिया से निरंतर संपर्क के कारण उनका स्वभाव युगधर्मा बन गया है. यही कारण है कि दुनिया के कोने-कोने में ये पहुंच गये हैं. मिलनसार ये इतने कि दुनिया की बर्बर से बर्बर जातियों के बीच अपनी दुकानदारी चला लेते हैं. आर्थिक उदारता के लिए तो सिंध के ये भाईबंद मशहूर हैं ही, पर धार्मिकता और सामाजिकता भी इनमें पर्याप्त होती है. वह जहां कहीं भी रहेंगे, गुरुग्रंथ और गीता साथ रहेगी; साधु-ब्राह्मण और अतिथि-अभ्यागत इनके यहां बहुत ही सम्मान पाता है - चाहे स्वदेश में, चाहे विदेश में. व्यापार ये अधिकतर मोती, जवाहरात, सिल्क-रेशम, सोना-चांदी का ही करते हैं. क़ीमती कपड़ों की बड़ी-बड़ी फर्में देश-देशांतर में सिंधी व्यापारियों के नाम से जुड़ी हुई हैं. इन भाईबंदों का शायद ही कोई परिवार होगा, जिसका कोई न कोई सदस्य समुद्र-लंघन न कर आया हो. अपने साथ वे ब्राह्मणों को भी खींच ले जाते हैं. मेरे सिंधी विद्यार्थियों में से एक आजकल कोलंबो में है, दूसरा गाइना में, तीसरा है अरब में और चौथा चीन में. यह सब मैं अपनी प्रतिष्ठा-वृद्धि के लिए नहीं लिख रहा हूं, क्योंकि आषाढ़ी पूर्णिमा में उन लोगों ने कभी गुरु-दक्षिणा नहीं भेजी. सोचा होगा, दो-चार महीने ही पढ़ा है - गुरु-शिष्य का गठबंधन ज़िंदगी-भर का तो होता नहीं! पर मैं तो नहीं छोड़ूंगा, एक आस्थावान आचार्य के शब्दों में कहूंगा –
एकाक्षर प्रदातारं
यों गुरुं नाभिमन्यते....
इस श्लोक का उत्तरार्द्ध नहीं लिखूंगा, क्योंकि उसमें शाप दिया गया है. बेचारे कहीं रहें, मस्त रहें! एक दिन अपने यजमान की ओर से एक मित्रा निमंत्राण दे गये. आपत्ति का कोई कारण नहीं था, आत्माराम वहां पहुंच गये. जीमते वक़्त पूछा तो पता लगा, मित्रा के यजमान का भतीजा शंघाई में मर गया था. तीसरे साल की बात है. उन दिनों उक्त नगर जापान के अधिकार में आ गया था. मरने की ख़बर तीन मास पर करांची पहुंची थी. उसी तरुण का श्राद्ध था. गुरुग्रंथ और गीता के अखंड सप्ताह के बाद पांच ब्राह्मणों और पांच संन्यासियों को भोजन कराया गया. यह सब बात भाई चेलाराम ढोलनमल ने मुझे स्वयं बतायी. वही परिवार के मुखिया थे. जापान का आक्रमण होने से पहले तब ख़ुद भी शंघाई और तोकियो में रह आये थे. रेशमी कपड़ों का व्यापार था. अमेरिकन ढंग की अंग्रेज़ी बोल रहे थे. अभी भी परिवार के चार सदस्य प्रशांत महासागर के विभिन्न टापुओं में अवरुद्ध थे. कहां तक गिनाऊं, सिंधियों के साथ बात करने पर जब दुनिया के छोटे-बड़े शहरों के नाम निकल आते हैं, और ऐसा बहुधा होता है, तो मेरा घुमक्कड़ मन उछलने लगता और अंत में उसी लोमड़ी की भांति बैठ जाता है, जिसने निराश होकर कहा था - अंगूर खट्टे हैं.
सिंध के सबसे अधिक प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत और सुशिक्षित लोग आमिल हैं. हिंदुओं में प्रमुख ये ही दो जातियां हैं, आमिल और भाईबंद. एक बुद्धिजीवी है तो दूसरा वाणिज्यजीवी. ब्राह्मण थोड़े ही हैं, दाल में नमक के बराबर, ‘तोयस्थं लवणं यथा.’ अमल से आमिल शब्द की व्युत्पत्ति है. ये लोग दीवान कहलाते हैं, मुस्लिम शासन-काल में बड़े-बड़े ओहदे पर रहने के कारण इस जाति का नाम ही आमिल पड़ गया. यह अपने नाम के साथ द्विवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, उपाध्याय, मिश्र आदि की भांति कृपालाणी, गिदवाणी, वासवाणी, गुलराजणी, मीरचंदाणी आदि वंशगत उपाधियां जोड़ते हैं. भेद इतना ही है कि द्विवेदी, त्रिपाठी आदि उपनाम बहुत प्राचीन हैं और ज्वलंत ब्रह्मत्व की याद दिलाते हैं; परंतु कृपालाणी और गिदवाणी आदि उपाधियां दस-पांच पुस्त पहले के अपने-अपने प्रख्यात वंशधरों की अभिधा को सूचित करते हैं - कृपाल का कृपालाणी, गिदू का गिदवाणी, वासू का वासवाणी आदि. बहुत दिमाग़ लड़ाया कि यह आणी क्या है. एकाएक ख्याल आया गार्ग्यायाणि, दांडायनि आदि. अपत्य अर्थ को बतलानेवाला गोत्रा-सूचक यह ‘आयनि’ और आमिल लोगों के उपनाम की यह ‘आणि’ आदि दोनों मिलाये जायें तो भाषा-विज्ञान के प्रेमियों को इस संबंध में निराश नहीं होना पड़ेगा. हमारे आचार्य कृपलानी (कृपालाणी कहिए) इसी आमिल जाति के कुल-दीपक हैं. आचार्य गिडवाणी (सिंधी उच्चारण गिदवाणी) भी इसी जाति के रत्न थे और साधु टी. एल. वासवाणी का नाम कौन नहीं जानता है? इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी सिधिंयों का नाम जिन्होंने उज्जवल किया है, वह सबके सब आमिल हैं.
बुद्धिजीवी होने के कारण आमिलों को भी उसी तरह बेकारी से लड़ना पड़ता है, जैसे बंगालियों को. शादी-ब्याह में कन्या-पक्षवालों को भी बंगाल की तरह ही यहां भी दिक़्क़तें उठानी पड़ती हैं. हर एक सपूत का बाप कन्यावालों को निचोड़कर सीड्ढी बना डालता है. नतीजा यह हो रहा है कि हज़ारों आमिल लड़कियां वयः प्राप्त होने पर भी बाध्यतामूलक अविवाहित जीवन बिता रही हैं, लड़कियों के विवाह की यह समस्या भाई-बंदों में नहीं है. उनके यहां न तो अति उच्च-शिक्षा प्राप्त लड़कियां हैं कि जिनके लिए अति उच्च शिक्षित लड़कों की अनिवार्य आवश्यकता हो, न वैसे लड़के हैं जिनकी कीमत पचीस-पचीस हज़ार कूती जाये. मिडिल या मैट्रिक तक की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाएं दिलवाकर वे अपने बच्चों को धंधे में लगा देते हैं; लड़कियां उनके यहां अविवाहित कदाचित् ही रहती हैं.
जनता का तीसरा वर्ग है कृषकों का. उनमें पचानवे प्रतिशत मुसलमान हैं. बड़े-बड़े जागीरदारों और गद्दीनशीन पीरों की हुकूमत के अंदर सिंध के देहाती मुसलमान बहुत ही पिछड़ी हालत में पड़े हैं. उनमें पंजाबी मुसलमानों को मैंने अधिक जागरूक पाया. अपने पीरों के प्रति उनके हृदय में गंभीर श्रद्धा है. ऐसे बीसों पीर होंगे, जिनके मुरीदों की संख्या लाखों तक पहुंचती होगी. ये धर्माचार्य भला कब चाहने लगे कि अनुयायियों में शिक्षा प्रसार हो, उनकी निरक्षरता हटे? कल-कारखाने सिंध में उतने नहीं हैं कि लाखों खेतिहर सर्वहारा की लंबी कतार में खड़े होकर ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगायें. कांग्रेस का शंखनाद वहां देहातों में पहुंचते-पहुंचते इतना धीमा पड़ जाता है कि ग्रामीणों को सुनायी नहीं पड़ता.
नव-जागरण का संदेश वहां नागरिकों तक सीमित है. साधारण जनता अभी तक पीरों और गुरुओं के मुंह से जो दो-चार पद सुनती है, उन्हीं तक उनकी अभिज्ञता की इतिश्री समझिये.
एकाक्षर प्रदातारं
यों गुरुं नाभिमन्यते....
इस श्लोक का उत्तरार्द्ध नहीं लिखूंगा, क्योंकि उसमें शाप दिया गया है. बेचारे कहीं रहें, मस्त रहें! एक दिन अपने यजमान की ओर से एक मित्रा निमंत्राण दे गये. आपत्ति का कोई कारण नहीं था, आत्माराम वहां पहुंच गये. जीमते वक़्त पूछा तो पता लगा, मित्रा के यजमान का भतीजा शंघाई में मर गया था. तीसरे साल की बात है. उन दिनों उक्त नगर जापान के अधिकार में आ गया था. मरने की ख़बर तीन मास पर करांची पहुंची थी. उसी तरुण का श्राद्ध था. गुरुग्रंथ और गीता के अखंड सप्ताह के बाद पांच ब्राह्मणों और पांच संन्यासियों को भोजन कराया गया. यह सब बात भाई चेलाराम ढोलनमल ने मुझे स्वयं बतायी. वही परिवार के मुखिया थे. जापान का आक्रमण होने से पहले तब ख़ुद भी शंघाई और तोकियो में रह आये थे. रेशमी कपड़ों का व्यापार था. अमेरिकन ढंग की अंग्रेज़ी बोल रहे थे. अभी भी परिवार के चार सदस्य प्रशांत महासागर के विभिन्न टापुओं में अवरुद्ध थे. कहां तक गिनाऊं, सिंधियों के साथ बात करने पर जब दुनिया के छोटे-बड़े शहरों के नाम निकल आते हैं, और ऐसा बहुधा होता है, तो मेरा घुमक्कड़ मन उछलने लगता और अंत में उसी लोमड़ी की भांति बैठ जाता है, जिसने निराश होकर कहा था - अंगूर खट्टे हैं.
सिंध के सबसे अधिक प्रतिष्ठित, सुसंस्कृत और सुशिक्षित लोग आमिल हैं. हिंदुओं में प्रमुख ये ही दो जातियां हैं, आमिल और भाईबंद. एक बुद्धिजीवी है तो दूसरा वाणिज्यजीवी. ब्राह्मण थोड़े ही हैं, दाल में नमक के बराबर, ‘तोयस्थं लवणं यथा.’ अमल से आमिल शब्द की व्युत्पत्ति है. ये लोग दीवान कहलाते हैं, मुस्लिम शासन-काल में बड़े-बड़े ओहदे पर रहने के कारण इस जाति का नाम ही आमिल पड़ गया. यह अपने नाम के साथ द्विवेदी, त्रिपाठी, चतुर्वेदी, उपाध्याय, मिश्र आदि की भांति कृपालाणी, गिदवाणी, वासवाणी, गुलराजणी, मीरचंदाणी आदि वंशगत उपाधियां जोड़ते हैं. भेद इतना ही है कि द्विवेदी, त्रिपाठी आदि उपनाम बहुत प्राचीन हैं और ज्वलंत ब्रह्मत्व की याद दिलाते हैं; परंतु कृपालाणी और गिदवाणी आदि उपाधियां दस-पांच पुस्त पहले के अपने-अपने प्रख्यात वंशधरों की अभिधा को सूचित करते हैं - कृपाल का कृपालाणी, गिदू का गिदवाणी, वासू का वासवाणी आदि. बहुत दिमाग़ लड़ाया कि यह आणी क्या है. एकाएक ख्याल आया गार्ग्यायाणि, दांडायनि आदि. अपत्य अर्थ को बतलानेवाला गोत्रा-सूचक यह ‘आयनि’ और आमिल लोगों के उपनाम की यह ‘आणि’ आदि दोनों मिलाये जायें तो भाषा-विज्ञान के प्रेमियों को इस संबंध में निराश नहीं होना पड़ेगा. हमारे आचार्य कृपलानी (कृपालाणी कहिए) इसी आमिल जाति के कुल-दीपक हैं. आचार्य गिडवाणी (सिंधी उच्चारण गिदवाणी) भी इसी जाति के रत्न थे और साधु टी. एल. वासवाणी का नाम कौन नहीं जानता है? इस प्रकार हम देख सकते हैं कि शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी सिधिंयों का नाम जिन्होंने उज्जवल किया है, वह सबके सब आमिल हैं.
बुद्धिजीवी होने के कारण आमिलों को भी उसी तरह बेकारी से लड़ना पड़ता है, जैसे बंगालियों को. शादी-ब्याह में कन्या-पक्षवालों को भी बंगाल की तरह ही यहां भी दिक़्क़तें उठानी पड़ती हैं. हर एक सपूत का बाप कन्यावालों को निचोड़कर सीड्ढी बना डालता है. नतीजा यह हो रहा है कि हज़ारों आमिल लड़कियां वयः प्राप्त होने पर भी बाध्यतामूलक अविवाहित जीवन बिता रही हैं, लड़कियों के विवाह की यह समस्या भाई-बंदों में नहीं है. उनके यहां न तो अति उच्च-शिक्षा प्राप्त लड़कियां हैं कि जिनके लिए अति उच्च शिक्षित लड़कों की अनिवार्य आवश्यकता हो, न वैसे लड़के हैं जिनकी कीमत पचीस-पचीस हज़ार कूती जाये. मिडिल या मैट्रिक तक की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षाएं दिलवाकर वे अपने बच्चों को धंधे में लगा देते हैं; लड़कियां उनके यहां अविवाहित कदाचित् ही रहती हैं.
जनता का तीसरा वर्ग है कृषकों का. उनमें पचानवे प्रतिशत मुसलमान हैं. बड़े-बड़े जागीरदारों और गद्दीनशीन पीरों की हुकूमत के अंदर सिंध के देहाती मुसलमान बहुत ही पिछड़ी हालत में पड़े हैं. उनमें पंजाबी मुसलमानों को मैंने अधिक जागरूक पाया. अपने पीरों के प्रति उनके हृदय में गंभीर श्रद्धा है. ऐसे बीसों पीर होंगे, जिनके मुरीदों की संख्या लाखों तक पहुंचती होगी. ये धर्माचार्य भला कब चाहने लगे कि अनुयायियों में शिक्षा प्रसार हो, उनकी निरक्षरता हटे? कल-कारखाने सिंध में उतने नहीं हैं कि लाखों खेतिहर सर्वहारा की लंबी कतार में खड़े होकर ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ का नारा लगायें. कांग्रेस का शंखनाद वहां देहातों में पहुंचते-पहुंचते इतना धीमा पड़ जाता है कि ग्रामीणों को सुनायी नहीं पड़ता.
नव-जागरण का संदेश वहां नागरिकों तक सीमित है. साधारण जनता अभी तक पीरों और गुरुओं के मुंह से जो दो-चार पद सुनती है, उन्हीं तक उनकी अभिज्ञता की इतिश्री समझिये.
(जारी)
1 comment:
चल रहे हैं हम भी बाबा की यात्रा के साथ साथ
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