Tuesday, July 3, 2012

अपने चिंकी तिब्बती चेहरे के अलावा मैं भारतीय ज़्यादा हूँ


तिब्बत के युवा विद्रोही कवि तेनजिन त्सुंदे की कुछेक कविताएं आप कबाड़खाने में पहले पढ़ चुके हैं. आज पेश है उनका लिखा एक लेख जिसे २००१ का आउटलुक-पिकाडोर नॉन-फिक्शन अवार्ड मिला था. निर्णायकों ने इस निबंध को “छू लेने वाली सादगी” के कारण चुना था “जिसकी मदद से लेखक ने इस संसार में तिब्बती होने की त्रासदी को समझाया था, और एक दूसरे तरीके से यह दुनिया भर में फैले शरणार्थियों के दर्द को ज़बान देने जैसा था.”

मेरी किस्म का निर्वासन

-तेनजिन त्सुंदे


                                                                                  “अपने चिंकी तिब्बती चेहरे के अलावा
                                                                                   मैं भारतीय ज़्यादा हूँ.”

आप मुझ से पूछिए कि मैं कहाँ का रहने वाला हूँ और मेरे पास कोई उत्तर नहीं होगा. मुझे लगता है मैं कहीं का नहीं हूँ, न कभी मेरा कोई घर ही रहा है. मेरा जन्म मनाली में हुआ, पर मेरे माँ-बाप कर्नाटक में रहते हैं. हिमाचल के दो स्कूलों में पढाई करनेके बाद मैं उच्च शिक्षा के लिए मद्रास, लद्दाख और बंबई गया. मेरी बहनें वाराणसी में रहती हैं जबकि भाई धर्मशाला में. मेरा रजिस्ट्रेशन प्रमाणपत्र (भारत में मेरे रहने का परमिट) बतलाता है कि मैं भारत में रह रहा एक विदेशी हूँ और मेरी नागरिकता तिब्बती है. लेकिन दुनिया के राजनैतिक मानचित्र पर तिब्बत कहीं भी नहीं है, मुझे तिब्बती बोलना अच्छा लगता है लेकिन मैं अंगरेज़ी में लिखना पसंद करता हूँ. मुझे हिन्दी गाने गाना अच्छा लगता है पर मेरी लय और उच्चारण बुरी तरह खराब होते हैं. जब-तब कोई आकर मुझसे पूछता है कि मैं कहाँ से आया हूँ. ... मेरे जिद्दी उत्तर “तिब्बत” से सिर्फ भवें ही नहीं उठा करतीं ... मुझ पर सवालों, वक्तव्यों और संदेहों और सहानुभूतियों की बाढ़ उमड़ आती है. लेकिन उनमें से एक भी इस सादा वास्तविकता को दिल से नहीं समझ सकता कि दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं जिसे मैं अपना घर कह सकूं और यह कि इस संसार में मैं हमेशा सिर्फ एक “राजनैतिक शरणार्थी” रहूँगा.

जब हम हिमाचल प्रदेश के एक तिब्बती स्कूल में पढते थे हमारे अध्यापक हमें तिब्बत पर हो रहे अत्याचारों की कहानियाँ सुनाया करते थे. हमें अक्सर बताया जाता था कि हम सारे शरणार्थी थे और हमारे माथों पर एक बड़ा “R” खुदा हुआ था. वह सब हमारी समझ में नहीं आता था और हम यह चाहते थे कि अध्यापक अपनी बात पूरी करे और हमारे तेल चुपड़े बालों समेत हमें धूप में खड़ा न रखे. खासे लंबे समय तक मैं यकीन करता रहा कि हम खास तरह के लोग हैं जिनके माथों पर “R” खुदा हुआ है. अपने स्कूल परिसर के पास रह रहे बाकी भारतीय परिवारों से हम लोग अलग नज़र आते थे; वह बूचड़ परिवार जो हर सुबह इक्कीस बकरियां काटा करता था (अधकटी गर्दन वाली बकरियां जब बां-बां करती थीं हम टिन की उनकी छत पर पत्थर मारा करते थे.) वहाँ पड़ोस में पांच परिवार और थे; उनके पास सेबों के बगीचे थे और ऐसा लगता था वे अलग सिर्फ अलग तरीकों के सेब ही खाया करते थे. स्कूल में हमने अपने सिवाय ज़्यादा लोग नहीं देखे सिवाय कुछ इन्जियों (अंग्रेजों) के जो जब-तब आया करते थे. स्कूल में शायद जो पहली बात हमने सीखी वह ये थी कि हम लोग शरणार्थी थे और यह हमारा देश न था.

झुम्पा लाहिड़ी की “इंटरप्रेटर ऑफ मैलेडीज़” अभी मैंने पढ़ना बाकी है. जब एक पत्रिका में उन्होंने अपनी किताब के बारे में बताया तो कहा कि उनका निर्वासन उनके साथ बड़ा हुआ. और यही मुझे अपनी कहानी भी लगती है. हाल की तमाम हिन्दी फिल्मों में से मैंने एक फिल्म का बहुत इंतज़ार किया – जे. पी. दत्ता की “रिफ्यूजी”. फिल्म में एक दृश्य था जो हमारे दुःख को कितने अच्छे तरीके से व्यक्त करता है – सीमा के उस पार से एक पिता अपने परिवार को पड़ोसी मुल्क में लेकर आया हुआ है. उनका जीवन किसी भी तरह की सुविधाओं से वंचित है. वे किसी तरह अपने को बचाए हैं. एक के बाद एक घटनाएं घटती हैं और आखिरकार अधिकारीगण उसे कैद कर लेते हैं और उसकी पहचान के बारे में सवाल करते हैं. वह आंसुओं में टूट पड़ता है – “वहाँ हमारा जीना मुश्किल हो गया था, इसलिए हम यहाँ आए, अब यहाँ भी ... क्या रिफ्यूजी होना गुनाह है?” सेना का अधिकारी हक्का-बक्का रह जाता है.

कुछ महीने पहले न्यूयॉर्क में तिब्बतियों का एक समूह संकट में पड़ गया था. समूह में ज़्यादातर नौजवान थे. एक तिब्बती युवा की मौत हो गयी थी और अंतिम संस्कार करना किसी को नहीं आता था. हर कोई एक दूसरे को देख रहा था. अचानक उन्हें लगा कि वे घर से कितनी दूर हैं – 

                                                                                             “ ... और जहां इतने सालों से
                                                           हमारे न दफनाए गए मृतक हमारे साथ  भोजन करते हैं
                                                           पीछा करते हैं हमारे शयनकक्षों के दरवाजों से.”


                                                                                                                         - अबेना पी. ए. बूसिया


एशिया से पश्चिम जाने वाले किन्हीं और आप्रवासियों की तरह जीवनयापन के लिए तिब्बती शरणार्थी भी वहाँ के बेहद मशीनी और प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में कड़ी मेहनत करते हैं. एक बूढा आदमी नौकरी मिलने पर सिर्फ इस बात से खुश हुआ कि अब वह अपने परिवार के सीमित संसाधनों पर बोझ नहीं बनेगा. उसका काम था बीप की आवाज़ आने पर एक बटन दबाना. दिन भर ऐसा छोटा सा काम करना उसे बड़ा मनोरंजक लगा. हौले हौले अपनी प्रार्थना दोहराते हुए हाथों में पूजा की माला लिए वह दिन भर वहीं बैठा रहता. हाँ बीप बजते ही वह बटन दबा दिया करता. (उसे माफ करें, उसे नहीं पता था वह क्या कर रहा था.) कुछ दिन बाद उत्सुकतावश उसने अपने सहकर्मी से उस बटन के बारे में पूछा. उसे बताया गया कि जब भी वह बटन दबाता था एक मुर्गी की गर्दन काट दी जाती थी. उसने तुरंत वह नौकरी छोड़ दी.

अक्टूबर २००० में सारा संसार सिडनी ओलिम्पिक से जुड़ा हुआ था. हॉस्टल में हम सारे टीवी से निगाहें गडाए ओपनिंग सेरेमनी शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे. आधा समय बीतने के बाद मुझे अनुभव हुआ कि मैं कुछ भी साफ़ नहीं देख पा रहा था और मेरा चेहरा गीला था. न, न, ऐसा नहीं था कि मुझे उस समय सिडनी में होने की इच्छा हो रही थी या माहौल ऐसा था या खेलों का जज्बा. मैंने अपने आस पास को दोस्तों को समझाने की भरपुर कोशिश की. लेकिन वे समझ ही नहीं सके. समझना शुरू तक नहीं कर सके ... कर भी ऐसे सकते थे? वे एक देश के नागरिक थे. उन्हें अपने देश के छूट जाने का विचार तक नहीं करना पड़ा. उन्हें कभी नहीं रोना पड़ा अपने देश के लिए. उनके पास अपनी एक जगह थी जहां के वे थे – वह जगह न सिर्क दुनिया के नक़्शे में थी, ओलिम्पिक खेलों में भी थी. उनके देशवासी गर्व के साथ परेड कर सकते थे, अपनी नागरिकता के प्रति विश्वस्त, अपनी राष्ट्रीय पोशाकों में और ऊंचे ऊंचे उनके झंडे. मैं उनके वास्ते कितना खुश था.

                                                                               “रात आती है, पर तुम्हारे सितारे कहाँ होते हैं”

जब मैं खामोश था, डूबा हुआ आंसुओं में, नेरुदा बोले मेरे बदले. बाकी कार्यक्रम को शान्ति से देखता हुआ मैं उसांसा और भारी महसूस कर रहा था. वहाँ सीमाहीनता की बात हो रही थी और खेलों के जज्बे की मदद से भाईचारा बढाने की. अपने घर के आराम में से वे एक मानवता के नज़दीक आने और सीमाओं को नकारने की बातें कर रहे थे. मैं, एक शरणार्थी, वापस घर जाने के सिवा किस बारे में बात कर सकता हूँ?

मेरे लिए घर एक वास्तविकता है. वह वहाँ पर है और मैं उस से बहुत दूर हूँ. यह वो घर है जिसे मेरे दादा-दादी और पिता पीछे तिब्बत में छोड़ आये थे. यह वो घाटी है जहां मेरे पोपो-ला और मोमो-ला के खेत थे और बहुत से याक, जहां मेरे माँ-पिता अपने बचपन में खेला करते थे. अब मेरे माँ-पिता कर्नाटक के एक रिफ्यूजी कैम्प में रहते हैं. उन्हें एक मकान और जोतने को खेत मिला हुआ है. वे अपनी सालाना फसल मकई उगाते हैं. कुछ दिनों की छुट्टियों में मैं उन्हें मिलने हर साल दो बार जाया करता हूँ. उनके साथ रहते हुए मैं अक्सर उनसे तिब्बत के अपने घर की बाबत सवालात करता हूँ. वे मुझे उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन के बारे में बताते हैं जब वे चंग्थांग के हरे चरागाहों में, अपने याकों और भेड़ों को चराते हुए खेल रहे थे, जब उन्हें सब छोड़ छाड कर गाँव से भागना पड़ा था. हर कोई गाँव छोड़ कर भाग रहा था और लोग कह रहे थे कि चीनी लोग रास्ते में पड़ने वाले हर किसी का कत्लकर दे रहे हैं. मठों पर बम फेंके जा रहे थे, लूटपाट और अफरातफरी का माहौल था. सुदूर गाँवों में धुंआ देखा जा सकता था और पहाड़ों पर लोगों की चीखें थीं. जब उन्होंने वास्तव में अपना गाँव छोड़ा उन्हें हिमालय से होकर भारत में घुसना पड़ा – और वे तब बच्चे ही थे. अनुभव उत्तेजनापूर्ण था पर भयभीत करने वाला भी.

भारत में उन्होंने मासुमारी, बीर, कुल्लू और मनाली में पहाड़ी सड़क-मजदूरों की तरह काम किया. मनाली से लद्दाख जाने वाली सैकड़ों किलोमीटर लंबी, दुनिया की सबसे ऊंचाई पर स्थित कोलतार की सड़क का निर्माण तिब्बतियों ने किया था. मेरे माँ-पिता बताते हैं कि उन शुरुआती महीनों में भारत आए तिब्बतियों में से सैकड़ों मर गए थे. गर्मी उनसे बर्दाश्त नहीं होती थी और जब मानसून आया उनका स्वास्थ्य कमज़ोर था. लेकिन सड़क किनारे कैम्प लगा रहा – उसकी कई पालियां चला करती थीं. यात्रा के दौरान सड़क किनारे एक जुगाड़ तम्बू के भीतर मेरा जन्म हुआ. “बच्चे के जन्म को दर्ज करने का वक्त किसके पास था जब हर कोई भूखा और थका हुआ था” – मैं जब भी अपनी माँ से अपना जन्मदिन पूछता हूँ वह यही जवाब देती है. जब मेरा स्कूल केन दाखिला हुआ तब मुझे एक जन्मदिन प्राप्त हुआ. तीन अलग अलग दफ्तरों में तीन अलग अलग दस्तावेज़ बनाए गए. अब मेरे पास जन्म की तीन तारीखें हैं. मैंने आज तक अपना जन्मदिन नहीं मनाया

हमारे खेत में मान्सून का स्वागत होता है पर हमारे मकान में नहीं. चालीस साल पुरानी खपरैल की छत झुकती जाती है और अपने मकान में हम बाल्टियाँ, बर्तन, चम्मच और गिलासों के लेकर काम में जुट जाते हैं और बारिश के देवताओं की भेजी कृपा इकठ्ठा करते हैं, जबी कि पा-ला छत पर चढ़कर उसकी मरम्मत में जुट जाते हैं. अच्छी एस्बेस्टस की चादरों की मदद से पा-ला कभी भी छत की तरीके से मरम्मत करने की नहीं सोचते. वे कहते हैं – “हम जल्द ही तिब्बत लौटेंगे. वहाँ हमारा अपना घर है.” हमारी गौशाला में कुछ मरम्मत ज़रूर हुई है, फूंस को हर साल बदला जाता है. और कीड़ों के खाए हुए लकड़ी के खम्भे बदले जाते हैं.

जब तिब्बती लोग कर्नाटक में सबसे पहले बसे, उन्होंने फैसला किया था कि वे सिर्फ पपीते और सब्जियां उगाएंगे. उन्होंने कहा कि महान दलाई लामा के आशीर्वाद से वे हद से हद दस सालों में वापस घर पहुँच जाएंगे. लेकिन अब तो अमरुद के पेड़ भी सूख गए हैं. पिछवाड़े के बरामदे में दबाए गए आम के बीज अब फल देने लगे हैं. खजूर के पेड़ हमारे निर्वासन के घरों के कंधों से कंधे मिलाने लग चुके हैं. बूढ़े लोग धूप सेकते, मक्खन वाली चाय (छंग) पीते, पूजा वाला खोर हिलाते हुए हुए पुराने दिनों की याद किया करते हैं जबकि जवान लोग दुनिया भर में बिखरे हुए हैं – अध्ययनरत या काम करते हुए. यह इंतज़ार जैसे अनंतता को पुनर्परिभाषित करता है –

                                                                                  छत पर घास
                                                                                 फलियों में कल्ले फूटे
                                                                                 और बेलें दीवारों पर चढ़ने लगीं,
                                                                                 खिड़की से होकर रेंगते आने लगे मनीप्लांट,
                                                                                 ऐसा लगता है हमारे घरों की जड़ें उग आयी हों.

                                                                                 बाड़ें अब बदल चुकी हैं जंगल में.
                                                                                  अब मैं कैसे बताऊँ अपने बच्चों को
                                                                                  कि कहाँ से आये थे हम?


धर्मशाला में हाल ही में मेरी मुलाक़ात एक दोस्त, दावा से हुई. चीन की जेल से छूटकर वह कोई दो साल पहले भारत आया था. उसने मुझे अपने जेल-अनुभव बतलाए. उसका भाई जो एक महंत था, “तिब्बत को आज़ाद करो” के पोस्टर लगाने के जुर्म में गिरफ्तार कर लिया गया था. पुलिस द्वारा यातना दी जाने पर उसने दावा का नाम ले लिया. दावा को बिना मुक़दमा चलाए चार सौ बाईस दिन टक जेल में रखा गया. तब वह कुल छब्बीस साल का था. उसे कम उम्र में ही तिब्बत से बीजिंग ले जाया गया जहां उसकी औपचारिक शिक्षा होनी थी. वह अब भी चीनियों के उन प्रयासों की मजाक बनाया करता है जिनके माध्यम से वे तिब्बतियों पर साम्यवादी विचार लादने के प्रयास किया करते हैं. शुक्र है उसके मामले में चीनियों के प्रयास नाकाम रहे.

दो साल पहले, मेरे एक नज़दीकी स्कूली मित्र को एक ऐसा पत्र मिला जिसने उसके सामने जीवन की सबसे मुश्किल स्थिति पैदा कर डाली. पत्र उसके चाचा का था. पत्र के अनुसार उसके माँ-पिता को, जो तिब्बत में रह रहे थे, नेपाल में दो माह की तीर्थयात्रा करने की अनुमति मिल गयी है. धर्मशाला से अपने भाई को लेकर ताशी नेपाल अपने माता-पिता से मिलने चल दिया, बीस साल पहले भागकर भारत आने के बाद से वे अपने माँ-पिता से नहीं मिले थे. जाने से पहले ताशी ने मुझे लिखा – “त्सुंदे, मुझे नहीं पता कि मैं खुश होऊं किमैं अपने माँ-पिता से मिलने जा रहा हूँ या दुखी होऊं कि मुझे याद ही नहीं वे कैसे दीखते थे ... जब मुझे मेरे चाचा के साथ भारत भेजा गया तब मैं बच्चा था, अब बीस साल बीत चुके हैं.” हाल ही में उसे नेपाल में अपने चाचा से एक और चिठ्ठी मिली. चिठ्ठी के मुताबिक़ एक महीबे पहले तिब्बत में उसकी माँ का देहांत हो गया था.

मैंने देखा था किस तरह दीवार टूटने पर पूर्वी और पश्चिमी जर्मन लोग एक दूसरे के गले लग कर रो रहे थे. उत्तर और दक्षिण में विभाजित करने वाली सीमा के हट जाने पर कोरियाई लोग किस कदर खुश नज़र आ रहे थे. मुझे भय है तिब्बत के बिछड़े परिवार कभी नहीं मिलेंगे. मेरे दादा-दादी के भाई-बहन तिब्बत में ही छूट गए थे. मेरे पोपो-ला की मृत्यु कुछ साल पहले हुई थी. क्या मेरी मोमो-ला कभी भी अपने बहन-भाइयों को देख सकेंगी? क्या हम कभी साथ हो सकेंगे जब वह मुझे हमारा घर और हमारे खेत दिखा सके?

4 comments:

मुकेश पाण्डेय चन्दन said...

बहुत ही मार्मिक लेख .........तिब्बतियों की व्यथा से आँख भर आई

Satish Saxena said...

मुझे लगता है हमें इनके बारे में सोंचना शुरू करना चाहिए ...
ये हमारे हैं और इस देश को अंगीकार कर चुके हैं , ये चिंकी नहीं बल्कि जन्मजात भारतीय हैं !

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

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उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार


प्रवरसेन की नगरी
प्रवरपुर की कथा



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♥शुभकामनाएं♥

ब्लॉ.ललित शर्मा
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vandana gupta said...

सच मे विचारणीय और गंभीर आलेख