Wednesday, September 26, 2012

पुकार रही हूँ तुम्हें चातक की तरह नहीं अपनी तरह


अजन्ता देव की एक कविता आप ने कल पढी थी. आज उसी क्रम में एक और कविता -

अर्द्धसमाप्त जीवन

क्या यही मृत्यु है
जबकि सब-कुछ रह गया पहले सा
मैं भी मेरा जीवन भी
रह गया लोकस्मृति में

आशा रह गई पुनर्जन्म की
खीज रह गई कुछ नहीं पाने की
शरीर गया पर रह गया अशरीर
पृथ्वी रह गई विहंगम कोण से दिखती हुई
रह गई पिपासा जो नहीं मिटेगी जल से

क्षुधा स्वयं को खा रही है
निद्रा घेर रही है चेतना को
महास्वप्न में दिख रहा है तुम्हारा चेहरा
मेघ में आकृति की तरह
अनहद के पार से
पुकार रही हूँ तुम्हें
चातक की तरह नहीं
अपनी तरह

मृत्यु भी पूर्ण नहीं कर सकी
एक अर्द्धसमाप्त जीवन 

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