Wednesday, September 26, 2012

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती पर स्मृति - समकालीन समस्याओं पर साक्षात्कार - पहला भाग

एक बार पुनः श्री करन सिंह चौहान के ब्लॉग से साभार -


हिंदी के महान आलोचक शुक्ल जी की जयंती (१९८४) के अवसर पर बहुत जगह उनपर कार्यक्रम आयोजित हो रहे थे. उसी क्रम में विजय बहादुर सिंह द्वारा विदिशा स्थित अपने कालेज में शुक्ल जी पर एक सेमिनार आयोजित किया गया. शुक्ल जैसे सर्वविदित पर कोई क्या नई बात कहे. और पुरानी बातों को ही फिर से कहे तो क्यों कहे. और कुछ नहीं तो कहने का अंदाज ही नया हो. इसी सोच से इस अवसर के लिए यह काल्पनिक साक्षात्कार लिखा गया और वहां पढ़ा गया. साक्षात्कार में जिन दो लोगों – रामविलास शर्मा और कृष्णशंकर शुक्ल – ने मदद की वे उस समय जीवित थे. शुक्ल जी तो अमर थे ही.

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जयंती पर स्मृति - समकालीन समस्याओं पर साक्षात्कार - पहला भाग

इधर समकालीन साहित्य से उठने वाली समस्याओं को लेकर काफी वाद-विवाद हुए हैं और हो रहे हैं. ऐसे में यह इच्छा स्वाभाविक थी कि उनको लेकर किसी ऐसे विद्वान आलोचक से मिला जाय और उनके संबंध में उसकी राय पूछी जाय जिसकी बात अधिकांश हिंदी के लेखकों,पाठकों को ग्राह्य हो सके. हिंदी आलोचना पर दृष्टि डालने के क्रम में सबसे पहले डॉ. रामविलास शर्मा का नाम ध्यान में आया,जो मार्क्सवादी आलोचक होने के बावजूद व्यापक हिंदी लेखकों-पाठकों के बीच काफी प्रतिष्ठित हैं.

उनसे मिले तो उन्होंने बताया कि पिछले कुछ वर्षों से वे क्योंकि साहित्येतर मसलों के अध्ययन-विवेचन में उलझे हुए हैं और साहित्य के लिए समय नहीं निकाल पाए हैं इसलिए इन समस्याओं के लिए आवश्यक मानसिकता बना पाना फिलहाल संभव नहीं. वैसे भी एशियाई समाजों पर काम करने के बाद अब भारतीय द्वंद्ववाद की रूपरेखा उनके दिमाग में घूम रही है. लेकिन हमारी परेशानी समझकर उन्होंने सुझाव दिया कि इस सबके लिए हिंदी के प्रथम साहित्यिक आलोचक आ. रामचंद्र शुक्ल से बेहतर आदमी नहीं मिलेगा. समस्याओं के स्वरूप को देखकर उन्होंने कहा कि आ.शुक्ल ने लगातार इन पर विचार किया है,इसलिए उनकी राय को हम नए रूप मेंजानें तो बहुत-सा गड़बड़झाला दूर हो सकता है.

समस्या हुई कि उनसे मिला कैसे जाए? इधर पिछले पचास वर्षों से उनका न तो कोई समाचार ही मिला,न कुछ नया लिखा ही कहीं देखा. कहते हैं 1941 में जब वे विश्वविद्यालय की नौकरी छोड़ परलोक यात्रा पर गए तो उनकी प्रतिभा के आतंक में दबे-घुटे विश्वविद्यालयों के प्रोफैसर विद्वानों ने मौका पाकर यह अफवाह उड़ा दी कि शुक्ल जी गए तो बस गए. इसे विधिवत बनाने के लिए उन्होंने शोक - सभाएं और श्रद्धांजलियाँ अर्पित करचैन की सांस ली. क्या आदमी था कि साहित्य की बुनियाद ही हिला दी,हिंदी विभागों के साम्राज्य को ध्वंश के कगार पर ला खड़ा किया. न साहित्यशास्त्र की परिपाटी को मानता था,न आनंदवाद और अलौकिकत्व की धारणाओं को,भाषा के पांडित्य का रुआब ही खत्म कर दिया पट्ठे ने. अरे बाबा,तुम पर लोकमंगल की सनक सवार है तो जाते चलाते कहीं आंदोलन-फांदोलन,हमारी रोजी-रोटी पर क्यों लात मार रहे हो? यहाँ तो शास्त्र-विदित प्रशस्त पथ है,भावों,रसों के वर्गीकरण की जानी-बूझी समस्याएँ हैं,साहित्यिक शास्त्रार्थ का शाश्वत सहचार है. इससे हटे तो फिर साहित्य के आंदोलनकारी रचनाकारों का डंका बजेगा हिंदी के अपने सुरक्षित साम्राज्य में. सो, शुक्ल जी के लंबी यात्रा पर जाने की खबर ने इन हल्कों में खुशी की लहर दौड़ा दी.

सुना कुछ हिंदी के रचनाकार भी इन श्रद्धांजलि-समारोहों में शामिल हुए. ऐसे रचनाकार शुक्ल जी से अधिक उनकी लोकमंगल वाली भावना से कुपित थे जिसकी वजह से उन्होंने अपने इतिहास में उनका नोटिस तक नहीं लिया. एक से रहा नहीं गया तो बिल्कुल साफ ही बोल गए-‘‘शरम की बात कह दूं कि उनका इतिहास मैंने यह टटोलने की इच्छा से खोला था कि वहाँ मैं हूँ तो कहाँ और कैसे हूँ.’’(जैनैंद्र कुमार) शुक्ल जी की आलोचना में झलकते पौरुष से चिढ़े हुए साहित्य में कोमलता और स्त्रैणता के बेहद हिमायती एक शांति प्रिय सज्जन बोले-‘‘सब मिलाकर कोमल और कठिन रसों के संचय में उनका झुकाव पुरुष-वृत्ति की ओर ही है,कोमल वृत्ति की ओर नहीं. वात्सल्य,करुणा और श्रृंगार में उनके मन का वही अंश है जिसमें पुरुष का अनुग्रह या अहम है,नारी की सहृदयता नहीं. ‘अर्द्धनारीश्वर’ से उन्होंने ईश्वर-रूप ही लिया है,नारी रूप परिशिष्ट रह गया है.’’(शांति प्रिय द्विवेदी)

कहने का अर्थ यही कि शुक्ल जी के आगमन ने हिंदी आलोचना के संपूर्ण परिदृश्य को विषाक्त बना दिया था,सभ्य-सुसंस्कृत शास्त्र-विहित मार्ग पर चलने वाले विद्वत समाज में अनपढ़,गँवारों की ओर से उठकर आया यह अंधड़ था,जिसके निकल जाने पर बेहदसुकून मिला है और विदग्ध गोष्ठियों की गरिमा फिर कायम हो सकी है।

खैर. हम इन अफवाहों के चक्कर में न आकर सीधे उनके परम शिष्य पंडित कृष्णशंकर जी से वाराणसी मेंदशाश्वमेध पर स्थित उनके मकान पर मिले. उनके माध्यम से ही मेरा भी शुक्लजी से एक निकट रिश्ता बनता है. जैसे वे शुक्ल जी के परमप्रिय शिष्य हैं,वैसे मैं उनका परमप्रिय शिष्य हूं और पांच-छःवर्षों तक उनके सानिध्य में रहकर साहित्य का अध्ययन किया है. काफी इधर-उधर करने पर अंत में वे हमारे आग्रह को न टाल सके और आ. शुक्ल से हमारी मुलाकात कराने के लिए राजी हो गए. लेकिन कुछ कारणों से उन्होंने उनके साथ मुलाकात करने के स्थान और समय को किसी से भी न बताने की तजबीज की,सो मैं उसे गुप्त ही रखे हूँ.

उनसे यह मुलाकात कई दिनों तक चलती रही. हमने सुन रखा था कि वे बहुत संकोची हैं और बोलते बहुत ही कम हैं. पुस्तकों में छपी उनकी तस्वीर से यह भी लगा कि गुस्सैल भी अवश्य ही होंगे. सो,शुरू में ही मामला गड़बड़ा न जाए इसलिए प्रारंभ में कुछ ऐसे मुलायम और शाकाहारी सवाल ही उनके सामने रखे जिन पर बहुत विवाद न हो और वे खुलें. लेकिन जैसे-जैसे बातचीत आगे बढ़ी तो उनके इकतरफा बयानों, स्पष्टीकरणों की जगह गर्म वाद-विवाद ने ले ली जिसमें कई बार तो स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि लगा बातचीत का सिलसिला खत्म ही हो जाएगा. लेकिन उनकी निश्चितता और निश्चिंतता ने इसे बने रखने में काफी मदद की. बहस के बाद अक्सर वे कह देते कि इस विषय पर मुझे जो कहना है,मैं कह चुका-अब आगे आप जो कुछ कहें. फिर कुछ देर तक मौन रहकर वे हमारे प्रत्यारोपों को सुनते रहते और घनी मूछों में मुस्कराते जाते. इस बातचीत का तीसरा हिस्सा वह है जहां उनके दिए तमाम जवाबों के संदर्भ में मैंने साक्षात्कार लेने वाले के रूपमें नहीं एक समीक्षक की हैसियत से उनका विश्लेषण-मूल्यांकन किया है.

संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इस साक्षात्कार का पहला हिस्सा यदि उनकी ओर से साहित्य के सवालों पर दिए गए अपने इकतरफा बे-रोकटोक बयानों,स्थापनाओं का है तो उसका अंतिम हिस्सा मेरे द्वारा किए गए विश्लेषण-मूल्यांकन का,बीच का हिस्सा आपसी बहस-मुबाहसे और भिड़ंत का है और इसलिए काफी रोचक बन पड़ा है. लेकिन इस तरह की बहस क्योंकि साक्षात की चीज होती है इसलिए उसे इस तरह की सभा में रखना आसान नहीं है. फिलहाल साक्षात्कार के प्रारंभिक हिस्से के कुछ अंशों को ही मैं आपके सामने रखना चाहता हूं -वैसे तमाम बातचीत को पुस्तकाकार छपाने की इजाजत आ. शुक्ल ने सहर्ष दे दी है. और हां,एक बात और. क्योंकि उन्होंने बातचीत को टेप नहीं होने दिया इसलिए स्मृति के आधार पर ही उसे नोट किया है और जहाँ उनकी पूरी बात याद नहीं रह सकी,वहाँ उनकी पुस्तकों के आधार पर उसे मुकम्मल कर दिया है. तो फिर आइए,शुरू से ही लें.

शुक्ल जी से जब हम मिले तो पाया कि वे श्यामल वर्ण के,मँझौले कद के थोड़ा भारीपन लिए थे. मैं किताबों में छपी उनकी तस्वीर को देखकर समझता था कि कोट-पैंट-टाई वाला लिबास फोटो खिंचाने जैसे खास अवसरों के लिए उन्होंने रख छोड़ा होगा. लेकिन जब उन्हें बाकायदा उसी लिबास में बैठे पाया तो आश्चर्य हुआ. छोटे कटे हुए और ठीक से संवारे हुए खिचड़ी बाल,दोनों ओठों को ढकने वाली लंबी और किनारों से साफ की हुई मूछें,आंखों पर गोल फ्रेम का चश्मा,तीखी नाक,आंखें गोल चश्मे से बाहर सीधे झाँकती हुईं. गौर से देखा तो उनकी आँखों में खिंचे लाल डोरे भी दिखाई पड़े. वे एकदम सतर और गंभीर मुद्रा में बैठे थे. ऐसी गंभीरता से मैं बहुत घबराता हूं जो सारे उत्साह और उमंग पर घड़ों पानी डालने जैसा प्रभाव उत्पन्न करे. लेकिन इस घनघोर गांभीर्य के बावजूद उनकी शक्ल में कोई बात थी कि वे सौम्यता और माधुर्य की मूर्ति नजर आ रहे थे. और इसे उनकी घनी लंबी मूछों के नीचे छिपी अनुमानित मुस्कान के कारण समझिए या प्रश्न आमंत्रित करती-सी उनकी आकृति का प्रभाव कि मैं एकदम सहज और मुखर अनुभव कर रहा था. बिना हिले-डुले उन्होंने मौन में ही मानो नमस्कार स्वीकार किया और बिना संकेत के ही जैसे बैठने का निमंत्रण दिया.

प्रश्न: शुक्ल जी,साहित्यिक मुद्दों पर बातचीत शुरू करने से पहले आपके घर-परिवार,स्वयं आपके जीवन के बारे में जानने की जिज्ञासा है. यदि अन्यथा न लें तो संक्षेप में आप ही से सुनना है.

शुक्ल जी:मेरे जीवन में कोई ऐसी विशेष उल्लेखनीय बात नहीं है जिसका जिक्र करने का महत्त्व हो. एक आम भारतीय नागरिक के जीवन की जो कहानी होती है,वैसा ही अपना भी है. फिर भी आप जानना ही चाहते हैं तो संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है:

मेरे पूर्वज गोरखपुर जिले के भेड़ी नामक स्थान में रहते थे.मेरे पिता पंडित चंद्रबली शुक्ल की अवस्था जब 4-5वर्ष की थी तो पितामह पंडित शिवदत्त शुक्ल का देहांत हो गया. दादी उन्हें लेकर बस्ती जिले के अगोना गाँव में रहने लगीं,जहाँ उनको ‘नगर’ के राज-परिवारकी ओर से यथेष्ट भूमि मिली थी. पिताजी की शिक्षा अगोना से दो मील दूर नगर के मदरसे में फारसी में हुई थी. इसी गाँव में संवत् 1940 की आश्विन-पूर्णिमा को मेरा जन्म हुआ बताते हैं. पिताजी हिंदी कविता के बड़े प्रेमी थे,प्रायः रात को‘रामचरित मानस’,‘रामचन्द्रिका’ या भारतेंदु जी के नाटक बड़े चित्ताकर्षक ढंग से पढ़ा करते थे....

मैंने बीच में टोककर पूछा: लेकिन शुक्ल जी,यदि धृष्टता न समझें तो कहूँ कि आपके पिता के बारे में इधर काफी कुछ और तरह की बातें भी पढ़ने को मिली हैं. मसलन यह कि वे अंग्रेजी और फारसी के समर्थक थे,हिंदी - संस्कृत को बेहूदा जबान समझते थे,ब्राह्मणों को ‘ब्रह्मन’ कहते थे और उनके अधिकांश मित्र मुसलमान ही थे. यही नहीं,उनकी वेश-भूषा भी कुछ इसी तरह की थी. मसलन मुस्लिम ढंग की दाढ़ी रखना,पट्टेदार बाल कटाना,शेरवानी तथा चूड़ीदार पाजामा पहनना,घर में उर्दू बोलना और ढीली धोती पहनने वालों से सख्त नफरत करना. और तो और आपके पुत्र पंडित केशव चंद्र शुक्ल जी ने भी इन बातों की एक हद तक पुष्टि की है.

शुक्ल जी: हो सकता है इन बातों में सत्य का कुछ अंश हो. लेकिन मुझ पर उनके व्यक्तित्व की जो छाप है,वह वही है जिसका उल्लेख ऊपर कर आया हूँ. वैसे इन चीजों को तूल देने की परिपाटी केशव के उस कथन से चल पड़ी है जहाँ उसने कहा-‘‘भाषा बोल न जानहीं जिनके घर के दास.’’ इसमें किसी महानुभाव के हिंदी प्रेम को गौरवान्वित करने का भाव छिपा होता है. लेकिन ये सब अतिशयोक्तियां बन जाती हैं और बात का बतंगड़ बन जाता है. खैर! मेरे पिता हिंदी के प्रेमी थे,मेरी माँ गाना के उस मिश्र वंश से थीं जिसमें कई सौ वर्ष पहले गोस्वामी तुलसीदास हुए थे. वे परम वैष्णव राम भक्त थीं,रामचरितमानस उन्हें कंठस्थ था और हिंदी संस्कृत से उन्हें स्वाभाविक प्रेम था.

जब मैं आठ वर्ष का था तो माँ की मृत्यु हो गई. पिता हम लोगों को मिर्जापुर ले आए जहाँ वे नौकरी करते थे. मिर्जापुर प्रकृति की अनुपम क्रीड़ास्थली है. वहीं पिता जी ने दूसरा विवाह किया और जैसा लोगों ने लिखा भी है,घरों में इससे कुछ तनाव पैदा होते ही हैं. फिर 12 वर्ष की अवस्था में मेरा भी विवाह कर दिया गया. असल बात यह है कि मिर्जापुर के सुरभ्य वातावरण में मेरी शिक्षा-दीक्षा हुई,वहीं लिखना भी मैंने शुरू किया. वहाँ से नागरी-प्रचारिणी-सभा के ‘हिंदी शब्द सागर’ में आने से लेकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में नियुक्ति की कहानी तो सब जानते ही हैं. इधर कई लोगों ने मेरे जीवन कई कुछेक घटनाओं को उठाकर ऐसा वर्णन किया है जिसमें मुझे धीरोदत्त नायकोचित गुणोंसे विभूषित करके दिखाया है. लेकिन उसमें वैसी कोई बड़ी बात नहीं. जीवन में सभी लोगों को कुछ-न-कुछ संघर्ष करना ही होता है. जो कुछ बन जाते हैं उनके किस्से शोध-ग्रंथों में बढ़-चढ़कर छपते हैं,जो आम नागरिक के रूप में जूझते चले जाते हैं उनके बड़े-बड़े बलिदानों को भी कोई नहीं पूछता.

प्रश्न: इस सवाल का प्रयोजन एक हद तक यह जानना भी था कि आपके विगत जीवन की वे कौन-सी घटनाएँ रहीं जिनका बाद में आपके लेखन पर असर पड़ा हो?

उत्तर: अपने परिवार के विद्यानुराग और हिंदी प्रेम की बातें तो मैं बता ही चुका हूँ जिन्होंने मुझे उस ओर प्रवृत्त करने में अवश्य ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई होगी. दूसरा असर मुझ पर मिर्जापुर के प्राकृतिक सौंदर्य का रहा. वहाँ के सघन वन्य-वृक्षों से लदी पर्वत मालाएँ,ऊँची-नीची पर्वत-स्थलियों के बीच क्रीड़ा करते हुए टेढ़े-मेढ़े नाले,सुदूर तक फैले हुए हरे-भरे लहलहाते कछार,बड़ी-बड़ी चट्टानों के बीच में हरहराते हुए निर्झर,रंग-बिरंगे शिला खंडों पर बहती हुई नदियों की निर्मल धाराएँ तथा फूली-फली अमराइयों के बीच बसी हुई ग्राम-बस्तियाँमेरे मन में बस गईं. मैं प्रकृति के सौंदर्य का उपासक रहा हूँ और जब-जब भी सिद्धांत या साहित्य चर्चा के बीच प्रकृति का प्रसंग आता है तो मेरा मन मिर्जापुर के उसी प्राकृतिक सौंदर्य में खो जाता है. इसलिए जहाँ भी उस पर बात चली तो वर्णन का विस्तृत हो जाना स्वाभाविक है.

एक बार काशी से मिर्जापुर साहित्य-मंडल आया तो मैं अपने उद्गारों को रोक नहीं पाया-

‘‘यद्यपि मैं काशी में रहता हूँ और लोगों का यह विश्वास है कि वहाँ मरने से मुक्ति मिलती है. तथापि मेरी हार्दिक इच्छा तो यही है कि जब मेरे प्राण निकलें तब मेरे सामने मिर्जापुर का वही भूखंड रहे. मैं यहाँ के एक-एक नाले से परिचित हूँ-यहाँ की नदियों,कांटों,पत्थरों तथा जंगली पौधों में एक-एक को जानता हूँ.’’

वहाँ पुस्तकालय भवन के कवि-सम्मेलन पर भी यही उद्गार आप-से-आप फूट पड़े-

‘‘मैं मिर्जापुर की एक-एक झाड़ी,एक-एक टीले से परिचित हूँ. उसके टीलों पर चढ़ा हूँ. बचपन मेरा इन झाड़ियों की छाया में पला है. मैं इसे कैसे भूल सकता हूँ....आपने कवि-सम्मेलन का आयोजन पुस्तकालय भवन में किया है,यह ठीक नहीं. दूसरी बार जब कवि-सम्मेलन कीजिए तब पहाड़ पर,झाड़ियों में कीजिए जब पानी बरस रहा हो,झरने झर रहे हों,तब मैं भी हूँगा और आप लोग भी. तब मिर्जापुर के कवि-सम्मेलन का आनंद रहेगा.’’

इसके अलावा जिस चीज ने मुझ पर सबसे अधिक असर डाला वह थे गोरखपुर,बस्ती जिले के गाँवों में रहने वाले साधारण जन. यह इलाका बहुत गरीब,दबा-पिसा है. यहाँ के लोगों का जीवन बड़ा कठिन है. मेरा बचपन इन्हीं लोगों के बीच बीता. बीच-बीच में झगड़ा-टंटा हो जाने या नौकरी न मिलने पर निराश हो यहीं लौट आता था. अगोना बस्ती से छः मील दूर दखिन में एक छोटा-सा गाँव है. भाषा शुद्ध अवधी है. अयोध्या यहाँ से कुल 30-32 मील पश्चिम है. अब तक इस प्रदेश की ग्रामीण स्त्रियाँ बेलगाड़ियों पर घूंघट काढ़े ‘‘रथ हांकव गाड़ीवान अजोध्यन जानो’’ गाती हुई राम की पावन भूमि के दर्शनार्थ जाती हुई मिल जाएंगी.

विस्तार से तो और भी ऐसी कितनी ही बातें कही जा सकती हैं जिनका गहरा असर मुझ पर रहा.

(जीवन की यह चर्चा काफी समय तक चली जिसमें उनके जीवन के ऐसे अनेक पक्ष उभरकर आए जिनका उनके व्यक्तित्व और सिद्धांतों पर पड़ा प्रभाव सहज ही देखा जा सकता है. उसके बाद उनके साहित्य-सिद्धांतों पर चर्चा चली जिसके कुछ अंश अगली कड़ी में.)

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