तुम रहो यूँ ही
डाल-डाल
टहनी- टहनी चढ़ता रहूँ बार-बार
मेरे भीतर उगे
इस बरास के तने को
अपनी बाहों में पूरा समेट
डबडबाई आँखों
भीनी मुस्कान के साथ
तुम झुणक देती रहो
मेरे खिले फूल को
उसी ज़मीन पर उतारने के लिए ...
चाहकर भी झपटी नहीं तुम
इस फूल की ओर
बस पीती रहो
तल्लीन
इसके भीतर महकता पराग
नापती रहो
आदमकद आईना
बार-बार ...
तुमसे मैने
और चाहा भी क्या है?
आखिर कोई
दे भी क्या सकता है
किसी को
महज़ अपने होने के सिवा
बस
तुम रहो ज़रा यों ही
मैं कहता चलूं
कविता...
(बरास - बुरांश का वृक्ष, झुणक देना - पेड़ को खूब हिलाना)
बच्चा - १
मेरे तुम्हारे बीच
सृष्टि की
एक किलकारी
बच्चा - २
माँ की गोद में
दूध की धार में लीन
धार टूट जाने पर
पीटता माँ का वक्ष
गाची में बंधा
मां की पीठ पर सवार
कंधों से झूलता
वेणी से खेलता
दुनिया के खेल
माँ के हाथों की
उंगलियाँ मरोड़ता
गिनता
संसार की संख्याएं
माँ का हाथ लिए
जग के विस्तार में
बढ़ाने लगता अपना दूसरा हाथ
देखती रहती
माँ की आँख
पिघलता जाता
उसका अंतर
(गाची - कमर में बांधा जाने वाला वस्त्र )
बच्चा - ३
खा रहा रोटी
गा रहा
जाड़े की लम्बी रातों
बाबा से सुना गीत
कर रहा शौच
पत्थरों से खेलता
मिट्टी पर खींचता रेखाचित्र
अब वह
जाने लगा स्कूल
देख आता है
फूड इंस्पैक्टर के
बच्चे की पैंट
और उसके टिफिन में
ऑमलेट
वह खाता नहीं है रोटी
अब गाता नहीं गीत
खेलता नहीं पत्थरों से
1 comment:
चलो उस बच्चे को खोजा जाय...... जो सो गया होगा पृथ्वी की पुरसुकून आँच में , ढलान पर संभल कर चलते आदमी के भरोसेमंद कन्धों पर , या बेहोश पड़ा होगा हमारे अपने ही भीतर कहीं ..... वो ब्च्चा बड़ा प्यारा होता है , सच...... जिसे हम अनजाने ही खो देते हैं . .
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