अखबार पलटते हुए अचानक निगाह 'इन्डियन एक्सप्रेस' के तीसरे पन्ने पर छपे एक छोटे से बॉक्स पर पड़ी. मरहूम जनाब फ़िक्र तौंसवी को गुज़रे आज पूरे पच्चीस बरस हो गए.
उनकी एक तस्वीर लगी है - डाक टिकट से भी छोटी और नीचे एक पुराने फ़िल्मी गीत की दो पंक्तियाँ हैं -
"दुनिया से जाने वाले
जाने चले जाते हैं कहाँ"
यह शोक सन्देश उनकी पत्नी श्रीमती कैलाशवती और घर के बाक़ी सदस्यों की तरफ से छपाया गया है.
तौंसवी साहब के नाम के साथ लड़कपन से जवान होने तक की कितनी ही यादें वाबस्ता हैं. तमाम पत्रिकाओं में उनके शानदार आलेख छपा करते थे.
७ अक्तूबर १९१८ को जन्मे फ़िक्र तौंसवी उर्दू के मूर्धन्य व्यंग्यकारों में एक होने के अलावा अच्छे शायर भी थे. उनका एक स्तम्भ 'प्याज के छिलके' ख़ासा मशहूर रहा.
उनका मूल नाम रामलाल भाटिया था. बदकिस्मती से उनके इंतकाल के बाद उनके काम को बहुत ज़्यादा महत्व नहीं दिया गया. उन पर एक महत्वपूर्ण किताब डॉ. महताब अमरोहवी ने लिखी है मगर फिलहाल वह अप्राप्य है.
दुर्भाग्यवश मेरे संग्रह में उनका लिखा मुझे कहीं भी कुछ भी नज़र नहीं आ रहा. चाहता था उनकी कोई रचना उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप आप लोगों के सम्मुख रखता पर ऐसा हो नहीं पा रहा है.
आप लोगों में किसी के पास उनसे सम्बंधित कोई भी जानकारी या लेख हो तो उपलब्ध कराने का कष्ट करें. मेहरबानी होगी.
2 comments:
फिक्र साहब के बारे में पहली बार पढा। इसे मेरी अल्पज्ञता भी कह सकते हैं और फिक्र साहब का गुमनामी में रहना भी। जानकारी के लिए धन्यवाद।
फ़िक्र तौंसवी साहब से अपना बचपन का नाता है. तब रेडियो ही एकमात्र मनोरंजन का साधन होता था और विविध भारती पर आने वाले प्रहसनों के लेखक के नाम के रूप में इनका नाम सुनता था. :) सुंदर यादें.
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