शलभ श्रीराम सिंह (५ नवम्बर १९३८- २२ अप्रैल २०००) की यह कविता किसी ज़माने में डायरी में उतारी थी -
जीवन बचा है अभी
जीवन बचा है अभी
जमीन के भीतर नमी बरकरार है
बरकरार है पत्थर के भीतर आग
हरापन जड़ों के अन्दर सांस ले रहा है
जीवन बचा है अभी
रोशनी खोकर भी हरकत में हैं पुतलियां
दिमाग सोच रहा है जीवन के बारे में
खून दिल तक पहुंचने की कोशिश में है।
जीवन बचा है अभी
सूख गए फूल के आस-पास है खुशबू
आदमी को छोड़कर भागे नहीं हैं सपने
भाषा शिशुओं के मुंह में आकार ले रही है
जीवन बचा है अभी।
जमीन के भीतर नमी बरकरार है
बरकरार है पत्थर के भीतर आग
हरापन जड़ों के अन्दर सांस ले रहा है
जीवन बचा है अभी
रोशनी खोकर भी हरकत में हैं पुतलियां
दिमाग सोच रहा है जीवन के बारे में
खून दिल तक पहुंचने की कोशिश में है।
जीवन बचा है अभी
सूख गए फूल के आस-पास है खुशबू
आदमी को छोड़कर भागे नहीं हैं सपने
भाषा शिशुओं के मुंह में आकार ले रही है
जीवन बचा है अभी।
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