१९४९ में जन्मे असग़र नदीम सय्यद कवि, कहानीकार, नाटककार और अनुवादक हैं. १९८५ में उनका पहला कविता संग्रह ‘जंगल के उस पार जंगल’ प्रकाशित हुआ. ‘ज़मींजाद का उफ़क़’ उनके द्वारा अनूदित कविताओं का संग्रह है. फ़िलहाल लाहौर में रहने वाले असग़र जी.सी. यूनिवर्सिटी में अध्यापक हैं.
आज के पाकिस्तानी लेखकों में सबसे विख्यात नामों में एक हैं असग़र. उन्होंने टीवी के लिए काफी लोकप्रिय नाटक लिखने के आलावा तमाम अखबारों में कॉलम भी लगातार लिखे हैं.
आज उनकी एक नज़्म पेश है –
वो क्या चाहते हैं?
मैंने फ़लिस्तीनी भाइयों के लिए अखबार में बयान दिया
उन्होंने ये बयान मेरे मुंह पार दे मारा
और कहा –
हमारे पास अब सिर्फ़ मोर्चे बाक़ी हैं
अरब भाइयों के बयानात से हमारे घर और गोदाम भरे पड़े हैं
उन्होंने ये बयान मेरे मुंह पार दे मारा
और कहा –
हमारे पास अब सिर्फ़ मोर्चे बाक़ी हैं
अरब भाइयों के बयानात से हमारे घर और गोदाम भरे पड़े हैं
मैंने उन्हें चावल और गंदुम भेजी
उन्होंने वापस कर दी
कि खाने के लिए उनके पास वक़्त नहीं है
उन्हें दिन-रात लड़ना होता है
वैसे भी ख़ुमार-आलूद गिज़ा उनके लिए मुज़िर है
मैंने कुछ पैसे उन्हें भेजे
उन्होंने रद्द कर दिया और कहा
हमें सिक्कों की नहीं गोलियों की ज़रुरत है
एक शहादत की ऊँगली की ज़रूरत है
एक सर की ज़रुरत है
एक गोरकन की ज़रुरत है
लेकिन हम तुम्हें बहैसियत गोरकन भी क़बूल करने को तैयार नहीं
मैं घर वापस आया
और फ़लिस्तीनी भाइयों के लिए एक नज़्म लिखी
यह सोचकर कि गोलीबारी में उनकी शायरी हिलाक हो गयी होगी
और उन्हें नज़्म की यक़ीनन ज़रूरत होगी
उन्होंने मेरी नज़्म का मुंह नोंच लिया
और उसे यह कहकर भगा दिया
कि हमें महफूज़ रुतबे वाले शायर की शायरी नहीं चाहिए
जो बर्फबारी और गोलाबारी में फ़र्क़ नहीं समझता
जिसके लफ्ज़ नर्म तकिए पार सर रखकर सोते हैं
मैंने उनके लिए दुआ के लिए हाथ उठाए
उन्होंने अफ़सोस किया
कि काश ये हाथ उनके दुश्मन पार उठते
और वो क्या चाहते हैं
मैं उन्हें अपने बच्चे का टैंक भेज सकता हूँ
जिसकी चाबी उसने तोड़ दी है
मैं फ़लिस्तीनी भाइयों की मदद करना चाहता हूँ
उन्होंने वापस कर दी
कि खाने के लिए उनके पास वक़्त नहीं है
उन्हें दिन-रात लड़ना होता है
वैसे भी ख़ुमार-आलूद गिज़ा उनके लिए मुज़िर है
मैंने कुछ पैसे उन्हें भेजे
उन्होंने रद्द कर दिया और कहा
हमें सिक्कों की नहीं गोलियों की ज़रुरत है
एक शहादत की ऊँगली की ज़रूरत है
एक सर की ज़रुरत है
एक गोरकन की ज़रुरत है
लेकिन हम तुम्हें बहैसियत गोरकन भी क़बूल करने को तैयार नहीं
मैं घर वापस आया
और फ़लिस्तीनी भाइयों के लिए एक नज़्म लिखी
यह सोचकर कि गोलीबारी में उनकी शायरी हिलाक हो गयी होगी
और उन्हें नज़्म की यक़ीनन ज़रूरत होगी
उन्होंने मेरी नज़्म का मुंह नोंच लिया
और उसे यह कहकर भगा दिया
कि हमें महफूज़ रुतबे वाले शायर की शायरी नहीं चाहिए
जो बर्फबारी और गोलाबारी में फ़र्क़ नहीं समझता
जिसके लफ्ज़ नर्म तकिए पार सर रखकर सोते हैं
मैंने उनके लिए दुआ के लिए हाथ उठाए
उन्होंने अफ़सोस किया
कि काश ये हाथ उनके दुश्मन पार उठते
और वो क्या चाहते हैं
मैं उन्हें अपने बच्चे का टैंक भेज सकता हूँ
जिसकी चाबी उसने तोड़ दी है
मैं फ़लिस्तीनी भाइयों की मदद करना चाहता हूँ
उनसे पूछो वो क्या चाहते हैं?
(गंदुम - गेहूं, ख़ुमार-आलूद गिज़ा - नशे में डुबो देने वाली ख़ुराक, मुज़िर - हानिकारक, गोरकन- कब्र खोदने वाला)
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