Saturday, September 15, 2012

अँधेरे समय में जन की जीत



प्रशांत कुमार दुबे का यह आलेख इण्डिया वाटर पोर्टल से साभार -


पानी में गलते विस्थापितों की जीत

सुनो
वर्षों बाद
अनहद नाद
दिशाओं में हो रहा है
शिराओं से बज रही है
एक भूली याद वर्षों बाद ...

दुष्यंत कुमार की ये पंक्तियां १० सितम्बर २०१२ को तब चरितार्थ हो गई जबकि मध्य प्रदेश सरकार ने खंडवा जिले के घोघलगांव में पिछले १७ दिनों से जारी जल सत्याग्रह के परिणामस्वरूप सत्याग्रहियों की मांगे मान लीं तथा विस्थापितों को जमीन के बदले जमीन देने का भी एलान किया. सरकार ने ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर घंटों में कम भी कर दिया. यह एक ऐतिहासिक जीत थी. सवाल यह है कि आखिर ऐसी कौन सी मजबूरियां गांव वालों के सामने रहीं कि वे उसी मोटली माई (नर्मदा), जिसे वे पूजते हैं, में स्वयं को गला देने के लिए मजबूर हो गए. दरअसल विस्थापन एक मानव निर्मित त्रासदी है. कभी कभार सरकारी अधिकारी भी इसके पक्ष में सुर अलापने लगते हैं. सोचना होगा यह कैसा विकास है और किसकी कीमत पर किसका विकास? पूरे देश और दुनिया में विकास बनाम विनाश की इस अवधारणा को सामने लाने का और इस पर बहस छेड़ने का काम नर्मदा बचाओ आंदोलन ने किया है और इस बहस की परिणति ही है यह जल सत्याग्रह.

मुनव्वर राणा कहते हैं -

धूप वायदों की बुरी लगने लगी है अब हमें,
अब हमारे मसअलों का कोई हल भी चाहिए

ओंकारेश्वर और इंदिरा सागर बांध के संबंध में वर्ष १९८९ में नर्मदा पंचाट के फैसले में यह स्पष्ट कर गया था कि हर भू-धारक विस्थापित परिवार को जमीन के बदले जमीन एवं न्यूनतम ५ एकड़ कृषि योग्य सिंचित भूमि का अधिकार दिया जायेगा. इसके बावजूद पिछले २५ सालों में मध्यप्रदेश सरकार ने एक भी विस्थापित को आज तक जमीन नहीं दी है. इस मसले पर पीड़ितों ने २००८ में उच्च न्यायालय में याचिका दायर की और उस पर उच्च न्यायालय ने प्रभावितों के पक्ष में दिये अपने निर्णय में कहा था कि सरकार को पुनर्वास नीति का कड़ाई से पालन करना होगा. इस फैसले को चुनौती देते हुए राज्य सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील की. पिछले साल ११ मई  को सर्वोच्च न्यायालय ने भी उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए यह कहा है कि इस हेतु जो भी किसान इच्छुक हैं वे शिकायत निवारण प्राधिकरण के समक्ष अपना आवेदन कर सकते हैं.

इस आदेश के बाद ओंकारेश्वर बांध के २५०० विस्थापितों ने जमीन के आवेदन भरे, जिसमें से १००० से ज्यादा आवेदनों की सुनवाई शिकायत निवारण प्राधिकरण पूरी कर चुका है व आवेदनों पर सुनवाई जारी है. २२५ से ज्यादा आदेश आ चुके हैं. प्राधिकरण ने सरकार तथा परियोजनाकर्ता कम्पनी को यह आदेश दिया है कि वे प्रभावितों द्वारा आधा मुआवजा लौटाने पर उनको ५.५ एकड़ जमीन प्रदान करें या ५ एकड़ जमीन खरीदने पर आर्थिक मदद करें. सर्वोच्च न्यायालय यह भी कहा है कि दी जाने वाली जमीन किसान की मूल जमीन से खराब नहीं हो सकती है तथा वह अतिक्रमित भी नहीं हो. न्यायालय ने यह भी कहा है कि जमीन आवंटन का काम बांध निर्माण के पूर्व पूरा करना पड़ेगा.

गौरतलब है कि २४ जुलाई २०१२ को ओंकारेश्वर का यह आदेश सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा सागर के विस्थापितों पर भी लागू कर दिया कि जिससे इंदिरा सागर बांध के २०,००० से अधिक किसान ५.५ एकड़ सिंचित जमीन के पात्र बन गये. जमीन देने के आदेशों से बौखलाई सरकार तथा एन.एच.डी.सी. कम्पनी अब इंदिरा सागर तथा ओंकारेश्वर परियोजना का जलस्तर बढ़ाने में तुली हुई थी ताकि सभी विस्थापित इधर-उधर भटक जाये व पुनर्वास नीति विफल हो जाये. अपनी इसी मांग को लेकर १६ जुलाई से अनशन कर रहे लोग २५ जुलाई को अचानक जलस्तर बढ़ाए जाने के विरोध में खंडवा के घोघलगांव में जल सत्याग्रह पर बैठ गए और उन्होंने १७ दिन अपने शरीर को गलाना जारी रखा.

अपने घरों में, खेतों में घुस रहे पानी को लेकर लोगों ने सत्याग्रह शुरू किया. बरसात के गंदे पानी में, कीड़े मकौड़ों के बीच उन्होंने अपने कीचड़ से सने पैरों से सत्ता के अहंकार को रौंद दिया. १७ दिनों के लंबे जल सत्याग्रह और उस पर देश और दुनिया में मचे बवाल पर सरकार को उनकी मांगें मानने पर मजबूर होना पड़ा. लेकिन सरकार के झुकने की क्या यही वजहें थीं? वैसे सरकार अक्टूबर माह के अंतिम सप्ताह में इंदौर में सरकार विश्व के कुछ चुनिन्दा उद्योगपतियों के साथ एक निवेशक बैठक (सरकार भाषा में इन्वेस्टर्स मीट) करने जा रही है. इस जल सत्याग्रह से यह संदेश जाता कि सरकार के पास जमीन नहीं है और मध्यप्रदेश में जमीन अधिग्रहण में सरकार मदद नहीं करती है. सरकार इस तरह की निवेशक बैठक के पहले निवेशकों को लुभाने के लिए वैश्विक स्तर पर विज्ञापन जारी करती है तो उसमें लिखा होता है सस्ती दरों पर बड़ी परियोजनाओं के लिए एक मुश्त जमीन की उपलब्धता. सरकार यह भी कहती है कि तीव्र औद्योगिक विकास में सहायक होना, मध्यप्रदेश सरकार की नीति है. इस मीट की व्यवस्थाएं सर्वोच्च प्रशासनिक एवं राजनीतिक तंत्र देखता है.

इस बीच जब एशियाई मानवाधिकार आयोग ने दुनियाभर में मध्यप्रदेश सरकार की इस अमानवीय हरकत को साझा किया तो दुनियाभर में सरकार की किरकिरी हुई. रही-सही कसर केंद्रीय प्रतिनिधि मंडल के खंडवा पहुंचने की खबर ने पूरी कर दी. अतएव प्रतिनिधिमंडल आने के पहले कुछ निर्णय लेना जरुरी था. सरकार की मंशा पर सवाल यहां भी खड़ा होता है कि जब सत्याग्रही अपने सत्याग्रह के १५वें दिन में प्रवेश कर रहे थे, तब मुख्यमंत्री भोपाल में ही कलेक्टर-कमिश्नर कांफ्रेंस में बोल रहे थे कि वे उद्योगपतियों को जमीन आवंटित करने के लिए दफ्तरों के चक्कर न लगवाएं बल्कि सर्व सुलभ तरीके से उन्हें जमीन अधिग्रहण में भी मदद करें. सरकार ने सत्याग्रहियों के साथ बातचीत करने के लिए एक (अ)शिष्ट मंडल बनाया. यह शिष्ट मंडल इतना अशिष्ट था कि बगैर सत्याग्रहियों की पूरी बात सुने उनसे लड़ कर आ गया. इस शिष्ट मंडल के सदस्य और अब बनी समिति के अध्यक्ष ने सोमवार को एक टी.वी. चैनल पर कहा कि हम सरकार हैं और हम पैसा लुटा नहीं सकते हैं. हरदा के खरदना में चल रहे जलसत्याग्रह पर तल्ख टिप्पणी करते उन्हें कहा कि सत्याग्रही वहां से उठें, नहीं तो हम सरकार हैं और शासन करना हमें भी आता है.

सरकार की असवंदेनशीलता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार के राहत एवं पुनर्वास विभाग को अभी तक यही नहीं पता है कि मध्यप्रदेश में अलग-अलग विकास परियोजनाओं से कितने लोग विस्थापित हुए हैं. नर्मदा बचाओ आंदोलन जिसने सक्रियता दिखाते हुए कुछ बांधों से विस्थापितों की सूचियां तैयार करने का काम किया था तो यह आंकड़ा मिल पा रहा है. अफसोस यह कि सरकार इन्हें अब मध्यस्थ कहती है और बरगलाने का आरोप लगा रही है. सरकारें हमेशा से हाशिए के लोगों को कमतर आंकती रही हैं और देशहित के नाम पर उनकी बलि चढ़ाती रही हैं. इस बार सत्याग्रहियों ने सरकार को नाकों चने तो चबवा दिए हैं. अब सत्याग्रहियों की मुश्किलें और बढ़ गयी हैं क्योंकि अब उन्हें इस निष्ठुर सरकार से उसकी विपरीत मानसिकता के बावजूद उपजाऊ जमीन निकलवानी है और सही मायने में लोकतंत्र को स्थापित होने में मदद करनी है.

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