अब्बुल असर ‘हफ़ीज़' पंजाब के जालंधर शहर में १४ जनवरी १९०० को पैदा हुए . इनके वालिद शमसुद्दीन साहब को कुरआन जुबानी याद थी और वो फौज़ के लिए वर्दियां बनाने का धंधा करते थे . जो 'हफ़ीज़' कभी हिंदुस्तान के इस कोने से उस कोने तक अपनी तरन्नुम भरी शायरी के लिए मशहूर थे, जिन्हें शायरी की बदौलत बरतानवी हुकूमत ने खानबहादुर का ख़िताब दिया था, जिन्हें तकसीम-ऐ-हिंदुस्तान के बाद (जबकि पाकिस्तान में बहुत नामी शायर मौजूद थे) पाकिस्तानी हुकूमत ने क़ौमी शायर का खिताब और ६००० रुपये सालाना वज़ीफ़ा दिया, वही 'हफ़ीज़' महज़ छठी पास थे . शायरी का चस्का उन्हें सातवीं जमात से ही लग गया था, जिसके चलते उन्होंने स्कूल भी छोड़ दिया. माँ-बाप की फटकार और मार-पीट का भी कोई असर नहीं हुआ.
खुद ‘हफ़ीज़' साहब की ज़ुबानी -
"मेरा ख़ानदान तक़रीबन दो सौ बरस पेश्तर चौहान राजपूत कहलाता था . मेरे बुज़ुर्ग हिन्दू से मुसलमान हो गए थे . मैं नन्हा सा था, जब मुझे मोहल्ले की मस्जिद में दाख़िल किया गया . मैं यक़ीनन उस ज़माने में ज़हीन लड़कों में शुमार होता था . क्योंकि मैंने ६ बरस की उम्र में ही कुरान शरीफ़ पढ़ लिया था . बहुत से सूरे ज़बानी याद कर लिए थे और करीमा-ओ-मामकीमा रट लिए थे."
इस से आगे में मस्जिद में न चल सका . अब मुझे मिशन स्कूल में दाख़िल किया गया . वहां मैं दूसरे दर्ज़े से भाग निकला . सरकारी मदरसे में दाख़िल हुआ, चौथी जमात में वहां से भी भाग गया . फिर आर्य-समाज स्कूल में दाख़िला लिया. फिर मिशन हाई स्कूल में ले जाया गया, लेकिन हिसाब से मेरी जान निकल जाती थी . हर रोज़ हिसाब के वक़्त भाग जाता था. दूसरे दिन पिटता था . ये भागने और पीटने की जंग चार साल चली . आखिरकार पीटने पर भागना ग़ालिब आया और हमेशा के लिए भाग निकला."
"शेरगोई यूं तो मेरी उम्र के सातवें बरस ही शुरू हो गयी थी. लेकिन इस मर्ज़ का बाकायदा हमला ग्यारह साल की उम्र में हुआ . जब मैं छठी जमात में पढता था, उस वक़्त शायरी की वजह तिफ़ली इश्क़ की गर्मी थी . लड़कपन का इश्क़ भी अजीब इश्क़ होता है साहब . काश के मैं उसको बयाँ कर सकता. "
"उस ज़माने में, नोवल, अफ़साने, ड्रामे, शूराओं के दीवान, थियेटर, मुशायरे सबसे दिलचस्पी हो गयी थी. मेरे घराने पर फ़रिश्ता-ऐ-मौत साया दाल रहा था. पांच भाई, यक के बाद दीगर-ऐ-नज़र-ऐ-अज़ल हो गए . एक तरफ़ तो ये आफ़त थी, दूसरी तरफ मैं घर के लिए एक मुसीबत बन गया था. क्योंकि घर से भागते वक़्त जो कुछ हाथ लगता, उड़ा ले जाता."
"लोग कहते हैं के फ़न-ऐ-शायरी मनहूस है . इस क़ौल में सदाक़त ज़रूर है . अगर ये मान लिया जाये के शेरगोई आवारगी साथ लाती है, तो नहूसत (मनहूसी) का सबब भी समझ आ जाता है. कम से कम हमारे साथ तो यही गुज़री. आवारगी और शेरगोई, आँखों पर परदे पड़े हुए थे. "
"आँख उस वक़्त खुली, जब वालदैन ने मेरी शादी कर दी. उस वक़्त मुझे मालूम हुआ के मेरे घराने की दौलत, पैदा करने वाले अफराद, अजल के हाथों और जमा-जथा मेरे हाथों गायब हो चुकी थी, और ये सब चंद ही बरस में हो गया. अब मुझे ज़िम्मेदारियों का अहसास हो चला था . मेरे वालिद बूढ़े, वालिदा अलील (बीमार), एक सौतेला भाई, जिसका ख़ानदान बहुत वसीअ (बड़ा), आमदनी बहुत क़लील (थोड़ी), बाक़ी बेवा बहनें, बेवा भावजें, यतीम बच्चे-बच्चियां, ये सब कुछ था. लेकिन मुझे काम-काज कोई न आता था . मेरे पास सिर्फ फ़ारसी की चंद क़िताबें, उर्दू शुअरा के चंद दीवान, मेरा मुब्लिग़ इल्म और ग़ज़लगोई मुब्लिग़ फ़न था. पंजाब में इन दिनों उर्दू शायरी का रिवाज़ ताज़ा-ताज़ा हुआ था और अवाम को इसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. अलबत्ता मेरे वतन जलंधर की मिट्टी में फारसी ज़बान के मुस्सलिम उल्सबूत उस्ताद मौलाना गरामी की ख़ाक शामिल थी, जिसके चलते जालंधर को ये शर्फ़ हासिल था के यहाँ अक्सर मुशायरे होते थे और इन मुशायरों में शहर और आस पास के गाँव की बस्तियों के शुअरा शिरक़त करते थे."
"मैंने सात-आठ बरस की उम्र में गिरामी को एक मुशायरे में शेर पढ़ते सुना था. उस वक़्त तो मुझे ये मजलिस मज़हक़ाखेज़ सी (हास्यास्पद) नज़र आई . वाह-वाह, सुब्हान अल्लाह, मुक़र्रर, इरशाद हो, वल्लाह एजाज़ है, वल्लाह सहर है, वल्लाह जादू है, या दाद देने वालों का उछलना, हाथों का हिलाना, सब का मिलकर शोर मचाना, अजीब मसख़रापनपन मालूम होता था . क्या खबर थी के आखिर यही मसख़रापन मुझे भी करना पड़ेगा और उम्र का एक हिस्सा इसी तमाशागाह में गुज़रेगा.
जब मैंने बाक़ायदा ग़ज़लगोई शुरू की तो हस्बदस्तूर (परंपरा के हिसाब से) क़दीमी (पुराने) उस्ताद की ज़रुरत महसूस हुई. करीबी बस्ती में सरफ़राज़ खां साहब 'सरफ़राज़' मुदर्रिस थे . जैसा उस वक़्त कहते थे, वैसा ही आज बुढ़ापे में भी कहते हैं और मेरा ख्याल है की अगर उनका कहा हुआ सब शाया हो जाये तो उसका हजम (कुल काम) २०-३० हज़ार सफ़हात से कम न होगा . ख़ैर मैंने आगाज़ की दो-तीन गज़लें दिखाई . उन्होंने कोई ख़ास इस्लाह न दी . लेकिन मैं अब तक उनका शुक्र-गुज़ार हूँ . मुझे किसी ने मशवरा दिया की अपना कलाम हज़रत-ऐ-गिरामी की ख़िदमत में पेश करूं और तज्ज़िये की गुज़ारिश करूं . मैंने ऐसा ही किया, और चंद गजलें उनकी ख़िदमत में इर्साल कीं . जवाब मिला - 'गिरामी फ़ारसी का शायर है, उर्दू से बहुत दूर, हफीज़ जौहर-ऐ-क़ाबिल मालूम होता है . हफीज़ को चाहिए के अपना क़लाम बार-बार खुद ही की नज़र से देखा करे .' "
इस से आगे में मस्जिद में न चल सका . अब मुझे मिशन स्कूल में दाख़िल किया गया . वहां मैं दूसरे दर्ज़े से भाग निकला . सरकारी मदरसे में दाख़िल हुआ, चौथी जमात में वहां से भी भाग गया . फिर आर्य-समाज स्कूल में दाख़िला लिया. फिर मिशन हाई स्कूल में ले जाया गया, लेकिन हिसाब से मेरी जान निकल जाती थी . हर रोज़ हिसाब के वक़्त भाग जाता था. दूसरे दिन पिटता था . ये भागने और पीटने की जंग चार साल चली . आखिरकार पीटने पर भागना ग़ालिब आया और हमेशा के लिए भाग निकला."
"शेरगोई यूं तो मेरी उम्र के सातवें बरस ही शुरू हो गयी थी. लेकिन इस मर्ज़ का बाकायदा हमला ग्यारह साल की उम्र में हुआ . जब मैं छठी जमात में पढता था, उस वक़्त शायरी की वजह तिफ़ली इश्क़ की गर्मी थी . लड़कपन का इश्क़ भी अजीब इश्क़ होता है साहब . काश के मैं उसको बयाँ कर सकता. "
"उस ज़माने में, नोवल, अफ़साने, ड्रामे, शूराओं के दीवान, थियेटर, मुशायरे सबसे दिलचस्पी हो गयी थी. मेरे घराने पर फ़रिश्ता-ऐ-मौत साया दाल रहा था. पांच भाई, यक के बाद दीगर-ऐ-नज़र-ऐ-अज़ल हो गए . एक तरफ़ तो ये आफ़त थी, दूसरी तरफ मैं घर के लिए एक मुसीबत बन गया था. क्योंकि घर से भागते वक़्त जो कुछ हाथ लगता, उड़ा ले जाता."
"लोग कहते हैं के फ़न-ऐ-शायरी मनहूस है . इस क़ौल में सदाक़त ज़रूर है . अगर ये मान लिया जाये के शेरगोई आवारगी साथ लाती है, तो नहूसत (मनहूसी) का सबब भी समझ आ जाता है. कम से कम हमारे साथ तो यही गुज़री. आवारगी और शेरगोई, आँखों पर परदे पड़े हुए थे. "
"आँख उस वक़्त खुली, जब वालदैन ने मेरी शादी कर दी. उस वक़्त मुझे मालूम हुआ के मेरे घराने की दौलत, पैदा करने वाले अफराद, अजल के हाथों और जमा-जथा मेरे हाथों गायब हो चुकी थी, और ये सब चंद ही बरस में हो गया. अब मुझे ज़िम्मेदारियों का अहसास हो चला था . मेरे वालिद बूढ़े, वालिदा अलील (बीमार), एक सौतेला भाई, जिसका ख़ानदान बहुत वसीअ (बड़ा), आमदनी बहुत क़लील (थोड़ी), बाक़ी बेवा बहनें, बेवा भावजें, यतीम बच्चे-बच्चियां, ये सब कुछ था. लेकिन मुझे काम-काज कोई न आता था . मेरे पास सिर्फ फ़ारसी की चंद क़िताबें, उर्दू शुअरा के चंद दीवान, मेरा मुब्लिग़ इल्म और ग़ज़लगोई मुब्लिग़ फ़न था. पंजाब में इन दिनों उर्दू शायरी का रिवाज़ ताज़ा-ताज़ा हुआ था और अवाम को इसमें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं थी. अलबत्ता मेरे वतन जलंधर की मिट्टी में फारसी ज़बान के मुस्सलिम उल्सबूत उस्ताद मौलाना गरामी की ख़ाक शामिल थी, जिसके चलते जालंधर को ये शर्फ़ हासिल था के यहाँ अक्सर मुशायरे होते थे और इन मुशायरों में शहर और आस पास के गाँव की बस्तियों के शुअरा शिरक़त करते थे."
"मैंने सात-आठ बरस की उम्र में गिरामी को एक मुशायरे में शेर पढ़ते सुना था. उस वक़्त तो मुझे ये मजलिस मज़हक़ाखेज़ सी (हास्यास्पद) नज़र आई . वाह-वाह, सुब्हान अल्लाह, मुक़र्रर, इरशाद हो, वल्लाह एजाज़ है, वल्लाह सहर है, वल्लाह जादू है, या दाद देने वालों का उछलना, हाथों का हिलाना, सब का मिलकर शोर मचाना, अजीब मसख़रापनपन मालूम होता था . क्या खबर थी के आखिर यही मसख़रापन मुझे भी करना पड़ेगा और उम्र का एक हिस्सा इसी तमाशागाह में गुज़रेगा.
जब मैंने बाक़ायदा ग़ज़लगोई शुरू की तो हस्बदस्तूर (परंपरा के हिसाब से) क़दीमी (पुराने) उस्ताद की ज़रुरत महसूस हुई. करीबी बस्ती में सरफ़राज़ खां साहब 'सरफ़राज़' मुदर्रिस थे . जैसा उस वक़्त कहते थे, वैसा ही आज बुढ़ापे में भी कहते हैं और मेरा ख्याल है की अगर उनका कहा हुआ सब शाया हो जाये तो उसका हजम (कुल काम) २०-३० हज़ार सफ़हात से कम न होगा . ख़ैर मैंने आगाज़ की दो-तीन गज़लें दिखाई . उन्होंने कोई ख़ास इस्लाह न दी . लेकिन मैं अब तक उनका शुक्र-गुज़ार हूँ . मुझे किसी ने मशवरा दिया की अपना कलाम हज़रत-ऐ-गिरामी की ख़िदमत में पेश करूं और तज्ज़िये की गुज़ारिश करूं . मैंने ऐसा ही किया, और चंद गजलें उनकी ख़िदमत में इर्साल कीं . जवाब मिला - 'गिरामी फ़ारसी का शायर है, उर्दू से बहुत दूर, हफीज़ जौहर-ऐ-क़ाबिल मालूम होता है . हफीज़ को चाहिए के अपना क़लाम बार-बार खुद ही की नज़र से देखा करे .' "
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