Monday, October 15, 2012

दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है

खलील जिब्रान ने एक जगह लिखा है – “जब तुम दुखी होओ तो दोबारा से अपने दिल के भीतर झांकना, तुम पाओगे कि सच में तुम जिस के लिए रो रहे हो वह कभी तुम्हारी खुशियों का कारण बना था.”

विष्णु खरे की कविता - दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता हैजितनी बार पढ़ी है, उतनी बार खलील जिब्रान की यह पंक्ति, जिसे मैंने लड़कपन में अपने हॉस्टल वार्डन की मृत्यु के बार अपनी डायरी में दर्ज किया था, मन के किसी गुप्त हिस्से से तैरती चली आती है. खलील जिब्रान की कही इस बात को विष्णु जी की इस कविता में बहुत ड्रामाखेज़ अंदाज़ में लिखे जा सकने का न केवल पूरा स्कोप था, ऐसा किये जाने की लम्बी परम्परा भी रही है. भारतीय मध्यवर्ग के पारिवारिक संबंधों की प्रगाढ़ता और उनसे उपजने वाली अपरिहार्य करुणा जैसी मुश्किल विषयवस्तु के साथ जिस तटस्थता के साथ विष्णु जी ने बर्ताव किया है, उसने मुझे हैरत में भी डाला है और कदाचित उदास भी किया है. यही विष्णु जी के कविकर्म की अद्वितीयता है जो उन्हें हिन्दी में अपनी किस्म का अकेला कवि बनाती है.

इस कविता के कहीं भी छपने से पहले मुझे इस कविता का स्वयं कवि द्वारा टाइप किया हुआ ड्राफ्ट भीमताल के मेरे अज़ीज़ मित्र दिवंगत फ्रेडरिक स्मेटाचेक के पिताजी के कागजात छानते हुए मिला था और संभवतः अब भी मेरे कबाड़ में कहीं दबा होगा. विष्णु जी का आभारी हूँ कि उन्होंने अपनी कुछ कविताओं को यहाँ पुनर्प्रकाशित करने की इजाज़त दी. उनकी कविताओं का सिलसिला अभी कुछ दिन और चलेगा.



दिल्ली में अपना फ़्लैट बनवा लेने के बाद एक आदमी सोचता है

पिता होते तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
उन्हें देता वह छोटा कमरा
जिसके साथ गुसलखाना भी लगा हुआ है
वे आज इकहत्तर बरस के होते
और हमेशा की तरह अब भी उन्हें
अपना निर्लिप्त अकेलापन चाहिए होता
लगातार सिगरेट पीना और स्वयं को
हिन्दुस्तानी गेय तथा वाद्य शास्त्रीय संगीत का अभ्यासी व्याख्याकार समझना
उन्होंने अंत तक नहीं छोड़ा था सो अब क्या छोड़ते
इसलिए उनके लिए यही कमरा ठीक रहता
सिर्फ़ रेडियो और टेलीविज़न उनसे दूर रखने पड़ते

माँ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
माँ भी क़रीब सत्तर की होतीं
और दिनभर तो वे रसोई में या छत पर होतीं बहू के साथ
या एक कमरे से दूसरे कमरे में बच्चों के बीच
जो अगर उन्हें अकेला छोड़ते
तो रात में वे पिता के कमरे में
या उससे स्थाई लगी हुई बालकनी में उनके पैताने कहीं लेट जातीं
अपनी वही स्थाई जगह तय कर रखी थी उन्होंने

बड़ी बुआ होतीं तो उन्हें कौन सा कमरा देता?
क्या वो होतीं तो अभी भी कुँआरी होतीं
और उसके साथ रहतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब वे मरीं तो ब्याहता होने की
उनकी आस कभी की चली गयी थी
और अब अपने भाई के आसरे न रहतीं तो कहाँ रहतीं –
सो उन्हें देता वह वो वाला बैडरूम
जिसमें वह ख़ुद अपनी पत्नी के साथ रहना चाहता है
वैसे माँ के साथ वे भी दिनभर इधर से उधर होती रहतीं
घर की बड़ी औरतें मजबूरन ही
कुछ घंटों का आराम चाहती हैं

क्या छोटी बुआ होतीं तो वे भी अब तक कुँआरी होतीं?
हाँ कुँआरी ही होतीं – जब बड़ी बहन अनब्याही चली गयी
तो उन्हें ही कौन-सी साध रह गयी थी सुहागिन होने की –
सो छोटी बुआ भी रह लेतीं बड़ी बुआ के साथ
जैसे मौत तक उनके साथ रहीं
जब जवानी में दोनों के बीच कोई कहा-सुनी नहीं हुई  
तो अब क्या होती भाई-भौजाई बहू और नाती-नातिनों के बीच

इस तरह माता-पिता और बुआओं से और भर जाता घर
इस घर में और जीवित हो जाता एक घर बयालीस साल पुराना
वह और उसकी पत्नी और बच्चे तब रहते
बचे हुए एक कमरे में
जिसमें बेटियों के लिए थोड़ी आड़ कर दी जाती
कितने प्राण आ जाते इन कमरों में चार और प्राणियों से

लेकिन वह जानता है कि हर आदमी का घर
अक्सर सिर्फ़ एक बार ही होता है जीवन में
और उसका जो घर था
वह चालीस बरसों और चार मौतों के पहले था
कई मजबूरियों और मेहरबानियों से बना है यह घर
और शायद बसा भी है
बहरहाल अब यह उसकी घरवाली और बच्चों का ज्यादा है
अब इसका क्या कि वह इसमें अपने उस पुराने घर को बसा नहीं सकता
जिसके अलावा उसका न तो कोई घर था और न लग पाएगा
    
इसलिए वह सिर्फ़ बुला सकता है
पिता को माँ को छोटी बुआ बड़ी बुआ को
सिर्फ़ आवाज़ दे सकता है उस सारे बीते हुए को
पितृमोक्ष अमावस्या की तरह सिर्फ़ पुकार सकता है आओ आओ
यहाँ रहो इसे बसाओ
अभी यह सिर्फ़ एक मकान है एक शहर की चीज़ एक फ़्लैट
जिसमें ड्राइंग रूम डाइनिंग स्पेस बैडरूम किचन
जैसी अनबरती बेपहचानी ग़ैर चीज़ें हैं
आओ और इन्हें उस घर में बदलो जिसमें यह नहीं थीं
फिर भी सब था और तुम्हारे पास मैं रहता था
जिसके सपने अब भी मुझे आते हैं
कुछ ऐसा करो कि इस नए घर के सपने पुराने होकर दिखें
और उनमें मुझे दिखो बाबू भौजी बड़ी बुआ छोटी बुआ तुम     

(चित्र में – अब्राहम रूबेन का शिल्प ‘मैमोरीज़’)

6 comments:

आशुतोष उपाध्याय said...

वह.. इसीलिये तो तुम पर प्यार उमड़ता है अशोक..!

कविता रावत said...


एक घर बनाना दिल्ली क्या किसी भी बड़े शहर में बना लेना आम आदमी के लिए आसान काम कहाँ है ....
आदमी क्या क्या सोचता है ..सच सोच की कोई सीमा नहीं ...बहुत सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर कविता पढ़वाने के लिये आभार !

Boundaryless world said...

बहरहाल अब यह उसकी घरवाली और बच्चों का ज्यादा है
अब इसका क्या कि वह इसमें अपने उस पुराने घर को बसा नहीं सकता
जिसके अलावा उसका न तो कोई घर था और न लग पाएगा..............

महानगर में alienate होते चले जा रहे आदमी के मजबूर सपने!!!!

Hi.. I am Kaivi.. said...

Mahanagar main ek aam admi ki jandagi ka sach...

Thanks a lot for posting Ashok Dada..

Surabhi said...

This is beautiful