Saturday, November 3, 2012

स्त्री का जो कुछ लुटता रहता है उसका एक समरूप उनके पास बचा होता है - शुभा का गद्य - ४


अधूरी बातें – १

- शुभा 

कई बार व्यापार में घाटे आ जाते हैं, लोग सदमे में चले जाते हैं, आत्महत्या कर लेते हैं. स्त्रियाँ कहाँ व्यापार कर पाती हैं, पर उन्हें भारी हानियाँ होती हैं. औरतों के घाटे के बारे में कौन जानता है? औरतें उसे उठाती हैं, नहीं उठा पातीं तो आत्महत्या कर लेती हैं, अपने से बेगानी हो जाती हैं, यानी पागल हो जाती हैं या वेश्या की तरह रहने लगती हैं. औरतों के रोने में यही बात होती है - एक घाटा एक हानि - अक्सर न पूरा होने वाला घाटा. वे रोती हैं. वे ऐसे रोती हैं जैसे मौत पर रोती हों, एक शोक, कुछ वापिस न आने वाला है, कुछ जिसे वे किसको बतायें. ज़िन्दगी में कितने दुखों के बाद मैंने लिखा समय का घाटा’ - कितनी ज़िन्दगियां चाहिये, कैसा मानव समाज चाहिये कि स्त्री का घाटा कहा जा सके.

किस चीज़ का घाटा? रुपया औरतों के पास होता नहीं, सत्ता होती नहीं, समझौते के सारे सम्बन्घ हैं, फिर कैसा घाटा? भावनाओं का घाटा, अन्तर्जगत का घाटा, मानवीय सार का घाटा,  इच्छाओं का घाटा, दिल का घाटा. आख़िर गुलामों पर ऐसा क्या रखा है जिसमें उन्हें घाटा हो जाता है. और गुलामों की बात अलग, इन स्त्रियों की बात अलग. यहां जो कुछ घटता है स्त्री-स्त्री के बीच नहीं पुरुष-पुरुष के बीच नहीं, स्त्री-पुरुष के बीच घटता है. एक एकान्तिक सम्बन्घ में विश्वासघात - यह वफ़़ा और बेवफ़़ाई का मामला नहीं है जैसा कि कहा जाता है. यह मानवीय सार के उपभोग का, उसे कुचलने, विकृत करने, रौंदने का मामला है. जब खड़ी फ़़सल जला दी जाती है तो बाज़ार में उस फ़़सल का जो दाम होता है वह घाटा माना जाता है; लेकिन हरे रंग का, हवा में बालियों के झूमने का, बूंदों के नीचे सिहरने का, सुबह की रोशनी में नहाने का, दोपहर को तपकर दमकने का, अन्न के दानों के ऊपर बालियों के कांटों में रेत अटकाये रखने का, इनके पास चिड़ियाओं के आने का, इन्हें देखकर पैदा हुई किसी ख़ुशी की लहर का, इस पर पड़ने वाली किसी छाया का, इन सबका क्या मोल है? क्या इनका घाटा है? इस घाटे को कौन कहेगा? कौन सुनेगा? क्या वाक़ई ये कोई घाटा है? क्या कहें? मर्म का घाटा कह सकते हैं?

अगर ये मान लें कि औरतों के पास इज़्ज़त होती है तो उसके लुटजाने के बाद वे रोती हैं. आम तौर पर और कुछ हो जानेके बाद रोती हैं उसमें एक नुकसान की गहरी भावना होती है, लेकिन जो ख़त्म हो गया उसके बाद भी कुछ उसके जैसा ही बचा रहता है. इज़्ज़त लुट जाने के बाद उसके पास क्या बचा हुआ है. ग़लत सही को पहचानने और उसे महसूस करने की शक्ति बची रहती है. वे रोती हैं, इस रोने में लुट चुकी इज़्ज़त जैसी कोई चीज़ बची होती है. मान लो इज़्ज़तकी स्मृति ही बची रहती है तो वह भी इज़्ज़त के समतुल्य ही होती है. इस तरह स्त्री का जो कुछ लुटता रहता है उसका एक समरूप उनके पास बचा होता है. यह समरूप ही जैसे उनका सार है.

('जलसा' पत्रिका से साभार)

2 comments:

राजेश उत्‍साही said...

बहुत गहरी बात है।

Ek ziddi dhun said...

शुभा के जन्मदिन के मौके पर आज फिर पढ़ा। अशोक भाई, आपने मेहनत से इसे वेब दुनिया में सहेजकर बड़ा काम किया है।