Friday, November 2, 2012

कुत्ते पानी कहाँ पीते हैं? - शुभा का गद्य - ३



हम कितना बदल गए

-शुभा

पिछले दस वर्षों में गली के कुत्ते बदल गए हैं. नए नए साहब बने लोग विलायती कुत्ते पालते हैं. ये साहब लोग मिलन ऋतु में अपने कुत्तों को खुला छोड़ देते हैं. ये कुत्ते जब हमारी देसी कुतियाओं के संसर्ग में आते हैं तो बड़े नये नये किस्म के पिल्ले पैदा होते हैं. ये पिल्ले शुरू में तो बहुत अलग नहीं दिखते पर जैसे-जैसे बड़े होते हैं इन में विविध लक्षण पैदा हो जाते हैं. अलग अलग क़द काठी, अलग अलग रंग की आँखें और तरह तरह की कलाओं वाली पूंछें. इनमें कुछ ऐसा नयापन होता है कि भूरा रंग पुराना भूरा नहीं होता और काला रंग पुराना काला नहीं होता. इन कुत्तों को ग़ौर से देखने पर कोई घने गहरे अफ्रीकी जंगलों की याद दिलाता है. कोई जिप्सियों की याद दिलाता है. किसी की लाल आँखें बिना बात आस्ट्रेलिया का नाम दिल में जगाती हैं. किसी की गर्दन पर घोड़े जैसे अयाल होते हैं किसी की कमर चीते की तरह पतली होती है और कोई फ़़रों वाले बड़े बड़े कान हिलाकर पहाड़ी इलाके़ की याद दिलाता है. किसी की कद काठी भेड़िये की याद दिलाती है तो किसी का लम्बा चेहरा और नुकीली ठोड़ी लोमड़ी की याद दिलाती है. मतलब ये कि कुत्ते अपने पीछे किसी इतिहास, किसी अति विशिष्ट भूगर्भ को लिए हुए होते हैं. न देखें तो कुछ नहीं है. बस कुत्ते हैं और असल में कुत्ते भी नहीं हैं.

जानवरों का निष्कासन जिस तरह हमारे जीवन से हो रहा है उस संवेदनहीन हृदयहीन दुनिया में कुत्ते बड़े घीरज के साथ रहते हैं. यहां तक कि ये आम तौर पर कभी कभी ही सामूहिक रूप से रोते हैं. वैसे ग़ौर से देखा जाए तो अकेले बैठकर चुपचाप भी रोते हैं. ये बड़े पैमाने पर अकेले और अनमने घूमते हैं. साफ़़ दिखाई देता है कि खाना पानी मिलने की किसी उम्मीद के बिना ही ये घूमते हैं.

कुत्तों के पास आज भी समय की कमी नहीं हुई है, वे किसी मोड़ पर किसी हल्की सी ऊँची जगह पर किसी झाड़ी के पास किसी पत्थर के साथ ख़ामोश बैठते हैं और दिन रात बड़ी गरिमा से सारे जनजीवन को देखते हैं. वे लोगों की हड़बड़ी देखते हैं, उनके झगड़े देखते हैं, उनके उत्सव देखते हैं, उनके चोंचले देखते हैं और सबसे ज़्यादा देखते हैं साहब लोगों की तेज़ स्पीड. कभी कभी ये ठण्डी साँस छोड़ते हैं और कभी लेते हैं. कभी वे रेत में लोटपोट होकर अपनी कमर रगड़ते हैं और कभी चाँदनी में ख़ामोश नहाते रहते हैं - यहाँ तक कि उनके झुके हुए कानों की कोर से चाँदनी पानी की तरह बहने लगती है जिसे रेत चुपचाप जज़्ब करता रहता है. सर्दियों में वे बड़े फ़़ुर्तीले हो जाते हैं और गर्मियों में बहुत अलसाये रहते हैं. गर्मियों में उनकी घीमी चाल बताती है कि पानी की बहुत कमी है. कभी कभी वे आपस में खेल भी करते हैं और फिर उसे रोककर बड़ी समझदारी से अपनी अपनी जगह बैठ जाते हैं.

साहब लोगों के बच्चे गलियों में नहीं खेलते, टी वी देखते हैं इसलिए कुत्तों से उनके बहुत बड़े साथी छिन गए हैं. कभी कोई कुत्ता जब अचानक आँखों में कौतुक भरकर तिरछे ढंग से किसी घर के फाटक को देखता है तो पता लगता है वे अब भी कभी-कभी बच्चे के आने की उम्मीद करते हैं. ऐसा वे तब करते हैं जब कभी कभार किसी घर से बच्चों के ऊँचा बोलने की आवाज़ें आती हैं. कोई-कोई कुत्ता डिप्रेशन में भी चला जाता है. ऐसे कुत्ते आँख मूँदकर पड़ रहते हैं, उनकी मुंदी हुई आँखों में कोई हरकत भी नहीं होती और जब वे आँखें खोलते हैं बड़ी ठण्डी नज़र दुनिया पर डालते हैं, लेकिन वे न कोई ग़ज़ल गाते हैं न कोई किताब लिखते हैं. मक्खियों से चकराना और खाल खुजाना और साफ़़ करना जैसे काम वे कभी बड़े दिल से और कभी बेदिली से करते रहते हैं. सभी कुत्तों को यह उम्मीद बनी रहती है कि कोई उनसे बोलेगा लेकिन साहब लोगों के पास फ़़ुरसत नहीं है. अब तो गृहणियाँ भी उनसे नहीं बोलतीं, मतलब गली के कुत्तों से नहीं बोलतीं. विलायती साहब कुत्तों से तो वे बोलती हैं. जब ऊँची नस्ल के कुत्ते साहब के साथ घूमने निकलते हैं तो गली के कुत्तों में अजीब सी सतर्कता आ जाती है. मिलन ऋतु में साहब लोगों के खुले कुत्तों और गली के कुत्तों में भीषण द्वन्द्व युद्ध होते हैं. किसी वजह से कुतियाओं की संख्या बहुत कम होती जा रही है. २०-२५ कुत्तों के झुण्ड में ६-७ कुतियाएं ही दिखाई देती हैं और बुरी तरह घायल. उन दिनों गली के घायल कुत्तों का ज़ोर ज़ोर से भौंककर सामूहिक प्रतिरोघ और विलायती साहब कुत्तों का उनके आस-पास से विजयी भाव से गुज़रना दिखाई पड़ता है.

गली के कुत्तों के बारे में कुछ बातें बहुत परेशान करने वाली हैं, मसलन ये सब पानी कहाँ पीते हैं? संदिग्ध होते हुए भी यह माना जा सकता है कि कूड़ेदान पर कुछ खाना उन्हें मिल जाता होगा, लेकिन पानी! कुछ जबाब नहीं सूझता, सिर चकराने लगता है. आख़िर ये पानी कहाँ से पीते होंगे? इस सवाल का जवाब खोजना एक मुश्किल बात है.

ये कुत्ते दिन-रात क्या सोचते हैं यह पता लगाना भी मुश्किल बात है. हालांकि ये हमें पता है कि वे सभी साहब लोगों को, ग़ैर साहब लोगों को, साहब लोगों के कुत्तों और बच्चों को पहचानते हैं, वे उनकी कार और स्कूटर की आवाज़ को भी अलग अलग पहचानते हैं, फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि कुत्ते बस उनके बारे में सोचते हैं. कोई कुत्ता जब गर्दन झुकाए अकेला लम्बी सड़क से गुज़र रहा होता है तो एक दार्शनिक की तरह नज़र आता है. सचमुच उसके बारे में यह बताना बहुत मुश्किल है कि वह क्या सोच रहा है.

(‘जलसा’ पत्रिका के पहले अंक से साभार)


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