किशोर चौधरी की कहानी का
बाकी हिस्सा -
उसने घर को कभी गौर से देखा ही
नहीं था. घर में रखी हुई चीज़ें कैसी दिखती है, ऐसे उनको पढ़ा नहीं था. एक रोज़ खिड़की से कोई हवा का झोंका गुज़रा. बस
बित्ते भर सी ही खिड़की. इतनी कि अपना चेहरा बाहर निकल सके. उसी में एक पुरानी
कीचट से भरी कंघी और मिट्टी के तेल की ढिबरी रखी थी. चीज़ें उतनी ही पुरानी थी, जितनी दूर स्मृतियां दौड़ सकती थी. माँ गारा बनाती और पिताजी उसे सांचे
में डाल कर सूखने के लिए छोड़ते जाते. वे ईंटें आहिस्ता-आहिस्ता घर में बदल गई. ये
खिड़की तब से ही थी लेकिन पहली बार भीतर खुली थी. इस खिड़की से कोई गुज़र गया था.
एकांत
में उपजे शब्दों और कोर्स की किताबों में छपे हुए पाठों का कोई मेल नहीं था. लेकिन दोनों जगहें उसकी दुनिया के लिए जरुरी सामान थी. ये न होती तो उसके पास
कोई काम बचता ही नहीं. ये काम भी थे, बेहद नीरस. इनमें कभी मन नहीं लगना था, सो नहीं लगा. मगर इसके
बिना वह क्या करता? उसके ख़यालों की दुनिया और उलझती ही जाती. इसलिए अच्छा था कि उसके पास एक बस्ता था.
हर
इतवार की छुट्टी में घर पर बस्ता खुलता था. इस हफ़्तावार पढ़ाई में कई सारे ख़त जमा
हो जाते मगर उन पर लिखने के लिए उसके पास कोई पता नहीं था. अनाम लिखे गए ख़तों के
साथ एक नाउम्मीदी जुड़ी रहती कि उनके वापस लौटने का कोई पता नहीं होता. लापता ख़त आवारा बीजों के फाहे थे और अपना ठिकाना भाग्य के सहारे खोज रहे
थे. जैसे कि बरसों से बनी हुई इस खिड़की पर उसका ध्यान उसी वक़्त जाना था, जब कोई गुज़रा हो. इस तरह
जो छू कर चला जाये, उस झोंके को ख़त लिखने की ख्वाहिश
होना लाजमी था.
यूं
भी एक दिन सबको अपने ख़त कहीं न कहीं पहुँचाने होते
हैं आखिर उन्हें छुपाये रखने का सब्र चुक जाया करता है. स्कूल के दिनों से जमा
होते गये ख़तों का भार कॉलेज तक आते आते काफी हो चुका
था. उसको भी लगा कि अब ख़तों को एक मुकम्मल पता मिल
जायेगा. उसे लगाने लगा कि ये सोलह बार मोड़ कर ताबीज़ जैसे बनाये हुए ख़त, एक दिन कमल की तरह आहिस्ता-आहिस्ता खुलेंगे. खुशबू जो एक अरसे से इन ख़तों
में क़ैद है, हवा में बिखर जायेगी. यह उतना ही नैसर्गिक
हो सकेगा जितना कि एक बीज का फूल में ढल कर खिल उठाना.
लेकिन
खिल कर मिटने के लिए ऐसा वुजूद चाहिए, जिसे देखा, छुआ और टटोला जा सके. रूह के लिए ये
बातें नाकाम थी. इस नाकामी का हल खोजते हुए या इससे उकता कर वह दिन भर अलग-अलग दुकानों के आगे स्टूल पर
बैठा रहता. कभी खुली जगह पर खेल रहे बच्चों को देखने लगता. रात मगर उसे घर
तक ले जाती. उसका किसी ने कुछ चुराया नहीं था. उसके पास
से कुछ खो नहीं गया था मगर फिर भी नींद जाने किसलिए नहीं आती थी. खिड़की वाले कमरे में रखी हुई ढिबरी के बुझने के बाद रौशनी सिमट कर सो जाती और घास तेल की गंध फेरे
लगाती रहती. ये किसकी खुशबू थी? दीवारों से उतरती पपड़ी
के ज़ख्मों की या फिर ढिबरी की तड़पती हुई रूह की?
किताबें
रोकती थीं मगर कहीं कुछ और चीज़ें थीं. जो सूखी घास के आस पास चिंगारियां बनाती रही, छुपे हुए अहसासों को जगाती रही, प्यास को बढाती
रही. ऐसी प्यास जो सब हदों को छू लेने को बेताब कर देती है. जहाँ एक स्पर्श आदमी को आग के गोले में बदल दे, जहाँ आदमी रुई का फाहा बन जाये, जहाँ आदमी मिलन
के इंतजार में धूप घड़ी हो जाये. जहाँ सब खुशबुएँ एक
होकर नामी इत्रफरोशों को नाकाम कर दे. प्यास उसको ऐसे छोर पर पहुंचा दे, जहाँ से दोज़ख का रास्ता
शुरू होता है.
खिड़की
से गुज़री लड़की, दोपहर का भेस धर कर रोज़ आया करती. लड़की एक
पारदर्शी पंखों वाली तितली की तरह थी. उसके पंखों के आर पार देखते हुए चिलमिलाती
धूप आँखों को औचक छू जाती थी. जिस तरह ख़्वाब तामीर होते हैं, उसी तरह ये भी एक दिन सच
हो गया कि वह लड़की वास्तव में थी. पहली छुअन के बाद वह इतना जान पाया कि वह गुनगुनी लड़की हमेशा किसी अजनबी देश
के बारे में सोचती थी.
उन
दोनों ने कब से इस गोदाम में आना शरू किया याद नहीं था. भय के भूत किस तरह उनसे डर
कर भाग गए थे और वे किस तरह इतनी जल्दी बड़े हो गए. ये कभी मालूम न हो सका.
बड़े हाल के पीछे एक नीम का दरख़्त था. उसके नीचे पत्थर की बैंच लगी थी. बैंच पर
निम्बोलियों की गुठलियाँ पड़ी होती. कुछ एक टूटी हुई पत्तियां या फिर किनारों के आस
पास जमा रेत पर लहरें बनी हुई होती. उस जगह मिलन के अल्हड़ दिन बीतने के मामले में बड़े जल्दबाज़
होते थे.
उसका
प्रिय काम था कि लड़की का सर अपनी गोदी में रख का बैठा रहे. ऐसा ही हो सकता था. बीतते
हुए दिनों के सिलसिले में किसी रोज़ लड़की के पेट में छिपी कस्तूरी ने करवट ली होगी
कि खुशबू फूट पड़ी. धूप और पत्तों की बाज़ीगरी में उसका उसका पेट, साफ पानी की नदी के तलहट में खुले पड़े हुए चमकीले जवाहरातों से भरे चांदी के बक्से सा
चमकने लगा. सब चीज़ें एक साथ नहीं मिला करती जैसे नसीब
और धैर्य में करीब का रिश्ता होने के बावजूद दोनों एक
साथ नहीं आते.
उनका आने वाला कल एक नन्हीं कोंपल की तरह था जो दिखाई नहीं दिया. एक लम्बे आलाप
सा वांछित धैर्य उस लड़की की मुंदती आँखों में खो गया.
सांसों के ज्वार में कस्तूरी गंध हिचकोले खाती हुई खो गई. इस दिशाभ्रम में लहरों पर उछलती किस्मत कभी डूबती कभी तैरती हुई
होठों को कम्पास बनाये हुए भटकती रही.
उस
दिन की दोपहर के बाद, शाम के अँधेरे का जो विलयन बरसों से उसने
देखा था, उसमें कोई नया रंग घुल आया. अब घर की मुंडेर
पर बैठे हुए लगता कि वह अकेला नहीं है. कोई उसके पहलू में बैठा हुआ है. वह जानता
था कि कोई नहीं है. ये बस उसके बैठे होने की ख्वाहिश भर है लेकिन फिर भी वह
आहिस्ता से देख लेता कि पास में कोई है या नहीं. सूनी मुंडेर, सूनी शाम और वही सुस्त शहर की खाली गली में डूबता हुआ सूरज.
किताबों
में लिखे हर्फ़ बेजान हो गए. उनसे एक ऊब जागती रहती थी. वह आधी बुझी हुई आँखों पर
किताब को रख लेता. पलकों के पास नम रोयों पर अटकी भीनी गंध उसके आस पास पसर जाती.
देह में सैंकड़ों नदियाँ बहते हुए सीने के ठीक पास से फूट पड़ने को दस्तक देने
लगतीं. वह आदमी होने से पहले एक ज्वालामुखी में बदलने लगता. यह एक अछूता अनुभव था.
खिड़की से गुज़रा हुआ साया सचमुच उसके पहलू में आ जाता और उसके कानों में कहने लगता. “मैं अपने भीतर कुछ खिलता हुआ सा महसूस कर रही हूँ मगर ऐसा क्यों लगता है
कि हज़ार तूफानों में उड़ते हुए नश्तर आते हों.”
उसी
सरकारी बाड़े के बड़े हाल के पीछे वाले नीम की छाँव में सुकून क़ैद था. वहीं मिलते थे. जिस तरह लोग प्यार के ख़्वाब देखा करते हैं, लड़कियां छोटी छोटी बातों पर रूठने मनाने का खेल खेला करती है,वैसी उन्होंने कभी कोई बात नहीं की थी. वे देर तक चुप बैठे रहते या फिर एक
दूसरे के पास सरकते रहते थे. देह की पहचान जिस सिरे पर ख़त्म होती वहीँ पर सब नसें
एक साथ फूट पड़ने जैसा कोहराम मचाती रहती. उनको कभी समझ नहीं आया कि वे सिमट रहे
होते थे या बिखर रहे. लेकिन यह अद्भुत और अतुलनीय था.
एक
दिन, वे दिन चले गए. एक दिन सबके दिन चले जाते हैं. अब दिन के हिस्से सुबह, दोपहर और शाम में अलग
अलग बांटे नहीं जा सकते थे. जाने कितना ही वक़्त हो गया था. अब जीया नहीं जाता था. किताबें फिर भी साथ थी. उनको पढ़ते हुए अपनी आदत के मुताबिक अपने मुंह पर खोल कर बिछा लेता था. रात के घने
अँधेरे में तन्हा लेटे हुए, अचानक वह किताब को अपने
चहरे से उठा लेता. स्मृतियां जवाब देने लगती. जो याद आ सकता था, वह नाकाफ़ी था कि उस किताब के पीले पन्नों पर कई गुलाबी फूल थे. और वे सब
कागजी फूल थे. ढिबरी के धुंए की गंध, धतूरे के जलने
जैसी होने लगती. कुछ भीतर ही भीतर बुझता जाता.
इस
सारी बात का इतना सा सच था कि बाँहों से फिसली लड़की उन कुछ एक दिनों के बाद ही सपनों के ससुराल वाले देश की दिशा का अंदाज़ा
करते हुए न लौटने के लिए दूर खो थी.
लड़के
के पास अब जो बचा था, वह था, टूटे ज़र्द
पत्ते, हर जगह, हर पल सांस
घुटती हुई और केसरिया झोली वाले बाबा के अनचीन्हे शब्द. वह सोचता रहता था कि कुदरत
में ऐसा किस तरह हो सकता है कि भरे हुए कुएं अपने आप छलकने लगते हों.
उसके
लिए रात और दिन एक जैसे हो गए थे. सूखे पत्ते उड़े जाते थे, शोर था मगर शहर में बसे हुए लोगों की ज़िन्दगी के कारोबार का शोर...
* * *
बाद
बरसों के उसने एक सपना देखा. कोई आवाज़ लगा रहा था कि आज घनी अँधेरी रात है.
हाकिमों के हरकारों का कहना है कि सब आदमी बुत की तरह जम जाएंगे. ख़ानाबदोशों को
अभी सही जगहों पर इमदाद के लिए पहुँच जाना चाहिए. सब अपनी-अपनी आग को चूल्हों में
सहेज लें. कल दुनिया बरफ हो जाएगी.
हर
कोई बढ़ते आ रहे घने कोहरे में सीढियों तक पहुँचने में कामयाब हो जाना चाह रहा था.
इन सब हाँफते दौड़ते हुये लोगों के बीच अंग्रेजी के माड़साब उसी जगह बैठे शाम का
इंतज़ार कर रहे थे. शायद उनके इंतज़ार को मिटाने वाली शाम आने को थी. तीसरे घर वाली
औरत ने सिसकियाँ उतार कर एक तरफ रख दी थीं और फटी फटी आँखों से हंस रही थी. मगर
दुनिया हांफती हुई भाग रही थी.
वह
भी एक अरसे से मुक्त होने के लिए चढ़ता जा रहा था. उसे मालूम था कि सीढियों पार
वाले इस घर में एक औरत अपने बाजूबंद से आग को बाँध कर रखती है. नीम की सूखी हुई
गुठलियाँ, टूटे हुए पत्ते, कोलतार
की गंध, और सूनी दोपहरें उसी आग में कैद थी.
आवाज़ों
की सिम्फनी में यही सुनाई पड़ता था. अग्नि... अग्नि... मदद करो.
सुखा
दो इस छलकते हुए कुंए को, सोख लो इस नाभि का अमृत, तोड़ दो ये पानी का आईना कि इस आईने से टकरा कर सवाल असंख्य हो जाते हैं. वायु तुम थाम लो मुझको अपनी बाहों
में कि एक लम्हें में टूट कर ज़मीन पर गिर जाने भय घेरे जा रहा है. जल उठो अमावस
के दीयों, जाने क्यों ये अँधेरा घिरा चला आता है.
पर्वतों लुढका दो सब पत्थरों को कि उनके शोर में खो जाये सब आवाज़ें कि अब सवाल सुने
नहीं जाते... उस फूल की उम्र क्या होगी ? वो
रास्ता किस देश को जाता था.
सुबह
देर तक सपने की मारफीन में खोये हुए उसे दिखाई देता रहा कि एक अरसे से ढिबरी बुझी
पड़ी है.
1 comment:
Sabse saral shabdon ka sabse khubsurat tareeke se istemaal karne wale ekmatra hindi lekhak
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