Tuesday, December 25, 2012

चन्द्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल


कोई तीन बरस पहले परम कबाड़ी कवि वीरेन डंगवाल ने हमारे समय के बड़े कवि चंद्रकांत देवताले पर कबाड़खाने के लिए एक एक्सक्लूसिव अन्तरंग आलेख लिखा था. साहित्य अकादेमी ने इस वर्ष अंततः इस बार का सम्मान देवताले जी को देने का निर्णय लिया. इस अवसर पर इस अड्डे पर देवताले जी की दो-तीन कवितायेँ हाल ही में लगाई गयी थीं.

अब मैं वीरेन डंगवाल का वही आलेख यहाँ दुबारा से लगाने जा रहा हूँ. ताकि सनद रहे –

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आम का वह पेड़ भारी नहीं
उसकी कम घनी शाखों पर
फदकता दीख रहा है
कुछ बेडौल सी आवाज़ में बोलता
पहाड़ों का वह पक्षी.
जिधर से वह आया 
उधर ही मेरा घर भी था कभी.
एक नदी थी
दीखने में कृशकाय
मगर खूब भरी पानी से

यह कुछ अशालीनता सी भी लग सकती है - किसी अन्य, और बड़े कवि पर बात की शुरुआत ही अपनी कविता से करना, मगर 'पहाड़ों का पक्षी' शीर्षक उपरोक्त कविता कुछ वर्ष पहले इन पंक्तियों के लेखक ने लिखी ही चंद्रकांत देवताले की याद करते हुए थी. मेरी उनसे व्यक्तिगत और घनिष्ठ मुलाकातें ना के बराबर ही थीं. लिहाज़ा यह याद दरअसल उनकी कविताओं की, उनके प्रभाव की याद थी. मेरे तईं यह हिंदी के इस अनूठे कवि की कुल तस्वीर थी - थोड़ा अलग-थलग, अद्वितीय, और सारपूर्ण. उसमें करुणा का दयहीन पाखंड नहीं है, बल्कि आर्द्रता की एक मज़बूत लचीली डोर उसकी कुल रचनात्मकता को बांध कर रखती है. उसे बार-बार पंद्रह बरस के किसी भावुक किशोर की तरह आंसू छलछला आते हैं पर वह गुस्सा-भिंची मुठ्ठी से उन्हें पोंछता हुआ आंखें सुर्ख़ कर लेता है. थोड़ा फिचकुर फेंकता हुआ भी वह नाटकीय या झूठा नहीं लगता. उसका आवेश दरअसल प्रेम का ही एक बदला हुआ चेहरा है जिसे वह कभी स्त्री, कभी प्रकृति के आईने में देखता है, अक्सर समाज, संबंधों, और राजनीति के. परवर्ती कविताओं में तो देवताले आविष्ट से सुस्थिर-शांत होते हुए दिखने लगे हैं, लेकिन उनकी मूलभूत चिंतायें तथा मूल्यबोध, पूर्ववत और टिकाऊ हैं.

यह बात थोड़ा हैरत और अफसोस से भरने वाली है कि चार दशकों की सतत सक्रियता के बावजूद हिंदी कविता में चंद्रकांत देवताले की उपस्थिति को समुचित सम्मान नहीं मिला. यों तो उनका पहला संचयन 'हडि्डयों में छिपा ज्वर´´ 1973 में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित और बहुचर्चित 'पहचान´ सीरीज़ में छपा था लेकिन वह उसके कहीं पहले से उस दौर की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होते आ रहे थे और अपने काफी नवेले, आक्रामक और एक आहिस्ता अराजक अंदाज़ से ध्यान भी खींच रहे थे.

मुसीबत के वक्त
खुलने वाले उत्तेजित दिनों
और बंद होने वाली
दहशत भरी रातों में 
अकेलापन टूट कर
हर जगह सम्मिलित हो गया था
तब जोड़ों के दर्द
और चमड़ी के खुश्क होकर
दरकने के लिये
एक भी क्षण नहीं था
दगाबाज़ों और काटने वालों को भी
हिफाज़त की घड़ी में 
विश्वस्त मानते हुए
उनके कंधों पर फिसलता हाथ 
दुश्मनी को भूलकर
कैसे अपनेपन की हवा में
भूला हुआ था
तब दीमक और
चूहों के प्रति बेखबर होते जाना
कितना करुण और स्मृति वंचित
नाटक था ...
यह जानते हुए भी
कि यह हाथ
आग तापने को उठा है
हमने तपाक से उसे
अपने हाथों में
कस लिया था
ओज के परदे पर
हिलती हुई गरदनों के
उस दृश्य में
नमक की बात
कितनी फूहड़ होती 


('हडि्डयों में छिपा ज्वर´ शीर्षक कविता से अंश)

देवताले की इस, और ऐसी तमाम दूसरी कविताओं में आप आठवें दशक की ज़मीन को पकते हुए देख सकते हैं - बावजूद उस वैयक्तिक स्वर, उस प्रबल 'मैं तत्व´ के - जो उनके सामाजिक अनुभव की भी कसौटी है और उनकी कविता में हमेशा बहुत मुखर है. इस अंतर्विरोध ने देवताले की रचनात्मकता में कई रंग जोड़े हैं.

एक मायने में देवताले परिधि के कवि हैं - हाशिये के नहीं, परिधि के. निम्न मध्यम वर्गीय जीवन, रोज़मर्रापन का सौंदर्य, वंचना का प्रतिरोध और सत्ता केंद्रों से भौतिक और आत्मिक दूरी, इन सबके कारण प्रचुर और वैविध्यपूर्ण रचनात्मकता के बावजूद, आलोचना के केंद्रमुखी समुदाय ने परिधि के इस कवि को खास तवज्जो नहीं दी. लगभत समवर्ती धूमिल, और तत्काल अग्रज रघुवीर सहाय की तुलना में देवताले की यह उपेक्षा इसलिये भी थोड़ी अटपटी है क्योंकि उनकी कविता भी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय नागरिक और उसके समाज के जीवन की विडंबनाओं का बखान है. इस नागरिक के बाहरी और भीतरी, निजी और सार्वजनिक दोनों ही संसार - एक ही डाल के 'दो सुपर्णों´ की तरह देवताले की कविता में अपने पंख फड़फड़ाते हैं- कभी अलग-अलग, और कभी एक साथ; जैसे यहां 'राहत´ शीर्ष उनकी इस कविता के अंश में 

तुम अपनी खड़खड़िया सायकिल पर जाते हो
सोचते हुए आज बसन्त पंचमी है
और केरियर पर रखे कनस्तर में गेहूं उछलते हैं
जब तुम यह सोचते हो- देखो गेहूं के दाने
खनक रहे हैं, तभी तुम पुलिया में घुसने के पहले
देखते हो बांई की तरफ जाती मालगाड़ी
और उसी वक्त पेट्रोल भरी बड़ी गाड़ी से बचते
पुलिया के भीतर दैत्याकार आवाज़ों के बावजूद
अनजानी सी सुरक्षा की सांस लेकर
तुम पाते हो अकस्मात सड़क के बीचोंबीच बैठी दो बच्चियां
गंदे कागज़ों के चिन्दों को खोलकर तहाने में बेखबर
और तुम ट्रक के हार्न और टेम्पो-स्कूटरों की रफ़्तार के बीच
फिर से उन बच्चियों के साथ
बहुत सी चीज़ों की असुरक्षा से घिरने लगते हो...


बम्बई ने अभी मम्बई बनकर अपना लिंग परिवर्तन नहीं कराया है. सायकिल एक शानदार सवारी है. गेहूं पिसाने को केरियर से बंधे कनस्तर में दाने उछल कर खनकते हैं और एक लदी हुई मालगाड़ी महानगर की तरफ़ जा रही है. दिन वसंत पंचमी का है.

और इससे आगे हैं फिर ये पंक्तियां -


तभी तुम्हें याद आती है हंसती हुई भद्र महिला
जो गैस के लिए नंबर लगाने वाली लाइन में
ठीक तुम्हारे आगे खड़ी थी और अपने साथ आई लड़की से
पूछ रही थी - तेरी मम्मी ने क्या पकाया आज वसंत पंचमी के दिन


कैसा विलक्षण वृतांत है! इस घरेलू लगती तफसील से आप जैसे ही फारिग होते हैं, चक्की में पिसता हुआ गेहूं एक दूसरी ही मालगाड़ी पर लादकर आपको कहीं और पहुंचा देता है 

और चक्की गेहूं को आटे में तब्दील करते हुए
तुम्हें कहीं दूर पहुंचा देती है
जहां तुम सोचते हो कोई अदृश्य और विराट चक्की
तुम्हारे साथ भी ऐसा ही सलूक कर रही है
पर 'शब्दों से रोटी जैसी महक´ सोचते हुए
तुम उसी आवाज़ में अपने ही भीतर कुछ सुनने लगते हो
मित्रवत् जिससे तुम्हारे चेहरे पर आत्मीयता झलकने लगती है


तो यह है चंद्रकांत देवताले का तरीका - वसंत पंचमी के दिन, सायकिल पर गेहूं की चक्की के रास्ते, उस दूसरी अदृश्य चक्की तक ले जाना जो अनवरत हम सबका कचूमर निकालने के काम में लगी है, और इस जाने के क्रम में ही विराट दरिद्रता, मानवीय प्रेम और मैत्री का संधान भी कर लेना. इस नागरिक का प्रेम, उल्लास, क्रोध, आवेश, उसकी उग्र आदिवासियों जैसी प्रतिरोध रत चीख पुकार और बुखार भरी बर्राहटें, उसके आंसू - ये सब देवताले की कविता में स्पंदित होते हैं. यह कविता एक साथ बहिर्मुखी और अंतर्मुखी, सपाट और जटिल है. गो कि उसके पास मुक्तिबोध का नक्शा, उसकी भविष्य दृष्टि और निर्भ्रान्त विचारधारात्मक ज़मीन नहीं है पर यह कविता दौड़ती काफी आगे तक मुक्तिबोध की ही राह पर है क्योंकि वह अपने आंतरिक वर्गगत विवेक से मनुष्यता के शत्रुओं को पहचानती है. यह बात जरूर है कि कवि कई बार भाषा का 'ओवरयूज़´ करता लगता है - मसलन 'भूखंड तप रहा है´ शीर्षक लंबी और महत्वाकांक्षी कविता में , या 'आग हर चीज में बताई गई थी´ में संकलित 'हाइ पावर नंगे बस्तर को कपड़े पहनाएगा´ और 'सबसे जरूरी काम´ शीर्षक कविताओं में. कई जगह पूरी कविता ही 'क्लीशे´ तथा सामान्यीकरणों पर टिकी रहती है. 'थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे´ या 'प्राथमिक स्कूल´ सरीखी लोकप्रिय कवितायें, या 'एक नीबू के पीछे´ जैसी अभी तक असंकलित परवर्ती कविता इसके सटीक उदाहरण हैं. मगर यह गौरतलब है कि कवि की आवाज़ का सच्चापन भाषिक अतिरेक अथवा विषय की फार्मूलाबद्धता को भी ऊपर उठा लेता है. जैसा कि सुधी कवि और आलोचक विष्णु खरे भी जोर देकर कहते आए हैं, इस रूप में देवताले एक प्रतिबद्ध और राजनैतिक कवि हैं. यहां यह उल्लेख वाजिब रहेगा कि आलोचक समुदाय की विचित्र चुप्पी के बरक्स, पिछले कई दशकों से विष्णु खरे अपने इस कवि-मित्र की रचनात्मकता को रेखांकित करने में लगे रहे हैं. आखिर अब जाकर उनकी कोशिशें रंग लाती दिखाई दे रही हैं.

और देवताले की स्त्रियां! शोक और आह्लाद और उनके विलक्षण झुटपुटे का वह महोत्सव, जिसका एक छोर एक विराट अमूर्तन में है - पछीटे जाते कपड़ों, अंधेरी गुफा में गुंधे आटे से सूरज की पीठ पर पकती असंख्य रोटियों आदि-आदि में, गोया यह सब करती स्त्री स्वयं कर्मठ मानवता है. और दूसरा छोर है घर में अकेली उस युवती के निविड़ एकांत में जहां उसका अकेलापन ही उसका उल्लास, उसका भोग उसकी यातना, उसके भी आगे उसका स्वातंत्र्य है 

तुम्हारा पति अभी बाहर है, तुम नहाओ जी भर कर
आई
ने के सामने पहनो, फिर
आईने को देखो इतना कि वह
तड़कने-तड़कने को हो जाये...


क्या मज़ा है. जहां निविड़ता होनी चाहिये - सूरज की पीठ, पृथ्वी के स्तनों, और घास के गठ्ठरों में - वहां कतई शोरो-गुल है और जहां शोरो-गुल मुमकिन था 'घर में अकेली औरत के लिये´ में - वहां कत्तई सन्नाटा है. हालांकि उसके भीतर एक खामोश कोहराम भी है. यही कवि की महिमा है.

कवि के विधिवत पहले संकलन 'दीवारों पर खून से´ में है यह कविता, और स्त्री के साथ उसका यह नाता अब तक अटूट चला आता है, और इतने रंग हैं उसमें कि हैरानी होती है. 'औरत´, 'मां जब खाना परोसती थी´, 'दो लड़कियों का पिता होने पर´, 'उसके सपने´, 'बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियां´, 'मां पर नहीं लिख सकता कविता´, 'नहाते हुए रोती औरत´ - ये वे स्त्री विषयक कवितायें हैं जो अपनी मार्मिकता के साथ औचक स्मृति में बसी रहती हैं. इन्हीं की पूरक है 'प्रेम पिता का दिखाई नहीं देता´ या 'मेरी पोशाक ही ऐसी थी´ - जैसी कवितायें जिनमें भीतर के एक कोमल प्रांतर के उद्घाटन, या फिर एक दूसरी विद्रूप सामाजिक सचाई के खोलने का निमित्त स्त्री ही बनी है. वैश्वीकरण की विडम्बनाओं के बावजूद भारतीय समाज के ताने-बाने में औरत की जो विचित्र, अद्वितीय और जटिल हैसियत है, और उससे भी ऊपर, पुरुष की सापेक्षता में उसका जो झुटपुटा और तिलिस्म है हिंदी में देवताले से ज्यादा उसे किसी कवि ने न समझा है, न लिखा है. इसे यह कवि खुद जानता भी है, तभी 'स्त्री का साथ´ शीर्षक कविता में वह लिखता है

सचमुच मैं भाग जाता चंद्रमा से फूल और कविता से
नहीं सोचता कभी कोई भी बात ज़ुल्म और ज़्यादती के बारे में
अगर नहीं होतीं प्रेम करने वाली औरतें इस पृथ्वी पर

...स्त्री के साथ और उसके भीतर रहकर ही मैंने अपने को पहचाना है 

... मुझे औरत की अंगुलियों के बारे में पता है
ये अंगुलियां समुद्र की लहरों से निकलकर आती हैं
और एक थके-मांदे पस्त आदमी को
हरे-भरे-गाते दरख़्त में बदल देती हैं
जिसे तुम त्वचा कहते हो वह नदी का वसंत है

... फिर भी सिर्फ एक औरत तो समझने के लिए
हजार साल की जिंदगी चाहिये तुमको
क्योंकि औरत सिर्फ माफ या बसंत ही नहीं है
एक सिम्फ़नी भी है समूचे ब्रह्मांड की...
 

2 comments:

राजेश उत्‍साही said...

चन्‍द्रकांत देवताले की कविता पर जितनी भी बात की जाए कम है। समकालीन परिदृश्‍य को ध्‍यान में रखकर मैंने भी उनकी तीन कविताएं अपने ब्‍लाग गुल्‍लक पर लगाईं हैं।

Arun Aditya said...

इस महत्वपूर्ण आलेख के लिए वीरेन दा को धन्यवाद। बहुत डूबकर लिखा है और डूबकर ही इसे पढ़ा जा सकता है। इस महत्वपूर्ण आलख को यहां लगाने के लिए अशोक जी को भी शुक्रिया।