कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी द्वारा
किए गए ये अनुवाद वी. के. सोनकिया के सम्पादन में निकलने वाली अनियतकालीन पत्रिका
आशय के सातवें अंक में छपी थीं. इन अनुवादों को वहीं से साभार लिया गया है –
यदचेतनोsपि पादैह स्पृश्तः
प्रज्वलति सवितुरिकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः पर कृत निकृतिं कथं सहते।।
जब जड़
सूर्यकान्त मणि भी
सूर्य की
रश्मियों के
स्पर्श से
जल उठती है
तब प्रतिभावान मनुष्य
दूसरों द्वारा
किए गए अपमान को
कैसे
सह सकता है?
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