कवि-आलोचक पंकज चतुर्वेदी द्वारा
किए गए ये अनुवाद गिरिराज किराडू और राहुल सोनी के सम्पादन में निकलने वाली द्विभाषी
पत्रिका प्रतिलिपि के नवम्बर २०११ के अंक में छपी थीं. अगले कुछ अनुवादों को वहीं
से साभार लिया गया है –
सिंहः शिशुरपि निपतति
मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥
सिंह का
शिशु भी
हमला करता है तो
मतवाले हाथियों के
झरते हुए मदजल से
श्यामल
गंडस्थल पर ही
पराक्रमियों का
यही स्वभाव है
निश्चय ही
प्रतिभा
उम्र पर
आश्रित
नहीं होती
शिशु भी
हमला करता है तो
मतवाले हाथियों के
झरते हुए मदजल से
श्यामल
गंडस्थल पर ही
पराक्रमियों का
यही स्वभाव है
निश्चय ही
प्रतिभा
उम्र पर
आश्रित
नहीं होती
2 comments:
अनुवाद पढ़कर रचना के आत्मा तक जाना होता है .
साधु, साधु ।
Post a Comment